Friday, October 18, 2024
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आधा अधूरा सा इतिहास लगता है पिथौरागढ़ के लंदन फोर्ट में अंकित जानकारियां।

(मनोज इष्टवाल/ट्रेवलाग 12 मार्च 2019)

लन्दन फोर्ट के नाम से सुप्रसिद्ध पिथौरागढ़ का किला।


लंदन फोर्ट का नाम सुनते ही आंखों में विस्मय सा था। मन सोचने को मजबूर कि कहां पिथौरागढ़ और कहां इंग्लैंड स्थित लंदन ..! फिर यहां लंदन फोर्ट कैसे सम्भव है। विस्मय पर पर्दा उठाने के लिए यह यात्रा कुछ अलग ही ले आई। यकीनन जब 8-9 मार्च 2019 को भाव राग ताल अकादमी द्वारा आयोजित किये गए “भ र त रंगोत्सव” का जब निमंत्रण मिला था तब मन विचलित था क्योंकि एक ओर बमुश्किल शुरू हुई जॉलीग्रांट-नैनी-सैनी हवाई सेवा पिथौरागढ़ के लिए 10 मार्च तक के लिए स्थगित कर दी गयी दूसरी ओर हल्द्वानी से लेकर पिथौरागढ़ तक का लगभग 7 घण्टे का सफर जो थकान देता है वह किसी से छुपा नहीं है।

किले के अंदरूनी दृश्य।


समाजसेवी पलायन एक चिंतन के संयोजक रतन असवाल जी का फोन आया- हो पंड़ा जी, क्या तुम भी चल रहे हो पिथौरागढ़..! पिथौरागढ़ से कैलाश कुमार का फोन आया था। मैं दुविधा में था कि जाऊँ न जाऊँ लेकिन अब तो सहपाठी मिल जो गए थे। मैंने कहा – हांजी, क्यों नहीं जरूर। उनका जवाब था पहले बता देते तो पन्त नगर तक मेरे साथ जहाज से ही चल देते अब लेट हो गयी है आप कल सुबह मुझे हल्द्वानी होटल क्लार्क में मिलो लेकिन ध्यान रहे किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है कि तुम या मैं हल्द्वानी में हैं क्योंकि यहां से कौन सी गाड़ी मिलती है यह देखना होगा छोटी मिली और पिथौरागढ़ चलने वाले ज्यादा हो गए तो यह अभद्रता होगी कि हम उन्हें अपने साथ न ले जा सकें इसलिए यह सब अपने तक ही रखना।

किले के 15 कमरों में एक भवन।


वार्ता संक्षिप्त थी। मैंने 6 मार्च को वॉल्वो पकड़ी और 7 मार्च सुबह जा पहुंचा हल्द्वानी क्लार्क इन में। अभी मैं नहाकर बाहर ही आया था कि नाट्यकर्मी वसुंधरा नेगी का फोन आया बोली- हल्द्वानी में आपका स्वागत है। मैं पिथौरागढ़ के लिए निकल चुकी हूं वहीं मुलाकात होती है। थोड़ी देर में समाजसेवी इंद्र सिंह नेगी व सोशल एक्टिविस्ट अधिवक्ता करगेती जी भी क्लार्क में आ पहुंचे। चाय नाश्ता हुआ और लगभग साढ़े 11 बजे हमने होटल छोड़ा नीचे इनोवा इंतजार कर रही थी। करगेती जी जा चुके थे लेकिन इंद्र सिंह नेगी जी को उनके होटल में ड्राप कर हम काठगोदाम जा पहुंचे जहां जन शताब्दी से दिल्ली से सुप्रसिद्ध रंगकर्मी लक्ष्मी रावत व उनके पति दलवीर सिंह रावत जी उतरे और हमारे सफर के साथी बने।


यह अक्सर दोस्तों के बीच होता ही रह है कि जब भी सफर में हों और सफर की बोरियत खत्म करनी हो तो मनोज इष्टवाल से बेहत्तर उनके पास खिलौना और हो भी क्या सकता है। धानाचूली पहुंचते पहुंचते रतन असवाल की बात मैं काटूँ और मेरी बात रतन असवाल यही चलता रहा। चूंकि दलवीर सिंह रावत से परिचय तो था लेकिन इतना लंबा नहीं इसलिये अब तक वह सिर्फ हंस दे रहे थे वह भी सिर्फ और सिर्फ रतन असवाल जब भारी पड़ते तब। साफ सा जाहिर था कि तराजू का पलड़ा एक तरफ भारी था। लक्ष्मी जी, सामंजस्य बिठाने की कोशिश में थी वह दोनों की चटाक पर फटाक में बराबर रिएक्ट करती। खैर धानाचूली से एक की जगह मुझे झेलने के लिए दो मुसीबत हो गई क्योंकि अब तक दलवीर सिंह रावत भी समझ चुके थे कि मनोज इष्टवाल किसी बात का बुरा मानने वाला नहीं है। सेमगढ़ शुरू किया हुआ पहले हल्की बूंदाबांदी हुई फिर बर्फवारी जो पूनागढ़ तक चलती रही या कहें झाँकर सेम तक तो कोई आश्चर्य नहीं।


खैर जैसे भी रहा रास्ता आसान होता गया और हम लगभग 7 बजे पिथौरागढ़ स्थित बाखली होटल में प्रविष्ट हुए जहां भाव राग ताल अकादमी द्वारा हमारे ठहरने की व्यवस्था की गई थी।
अगली सुबह यानि 8 मार्च 2019 को हम पिथौरागढ़ की समाजसेवी लक्ष्मी मेहता की अगुवाई में लन्दन फोर्ट के लिए रवाना हुए। पहले यही था कि हम पिथौरागढ़ किले में जा रहे हैं लेकिन जब लक्ष्मी मेहता जी ने बताया कि इसे लन्दन फोर्ट कहते हैं तो मैं आश्चर्यचकित रह गया।

किले तक पहुंचने के लिए सीढियां।

किले में प्रवेश करते ही जो जानकारियां कुमाऊँ मंडल विकास निगम द्वारा शिलापटों पर उकेरी गई हैं उनके अनुसार सन 1789 में गोरखाओं द्वारा इस किले का निर्माण किया गया जबकि स्थानीय कई बुद्धिजीवी इस किले को राजा पिथौठा द्वारा निर्मित भी बताते हैं लेकिन गोरखा आक्रमण के बाद इसे गोरखा किला या पिथौरागढ़ किला नाम से जाना गया। ब्रिटिश काल तक पहुंचते-पहुंचते यह लंदन फोर्ट हो गया। इसे कई दस्तावेजों में बाऊल का गढ़ भी कहा गया है। कहा जाता है कि पिथौरागढ़ के सभी 9 कोटों के राजाओं को परास्त करके गोरखाओं ने इस किले पर 1789 में पुनर्निर्माण शुरू करवाया जो 1793 तक चला और फिर यह गोरखा गढ़ या गोरखा किला के नाम से जाना जाने लगा। सन 1881 में अंग्रेजों द्वारा सिघोली संधि के बाद इसे हस्तगत किया गया व इसे लन्दन फोर्ट नाम देकर फिर इस किले का जीर्णोद्धार किया व यहां ब्रिटिश अधिकारियों के दफ्तर व तहसील शुरू की गई। स्वतंत्र भारत में फिर भी इस पर तहसील कार्यालय चलते रहे।

किले के अंदर निर्मित खूबसूरत भवन जिनपर आज भी गोबर मिट्टी की पुताई हो रखी है।

यह किला 6.5 नाली पर अवस्थित है,किले की लंबाई 88.5 मीटर, चौड़ाई 40 मीटर, ऊँचाई 8.5 मीटर है। इस किले से “नौ ठाकुर सौर के नौ किले” उदयपुर कोट, ऊंचा कोट, भाट दुनी कोट, वेलोर कोट, डूंगर कोट, बल कोट, थर कोट और सहज कोट को देखा जा सकता है।

पिथौरागढ़ नगर की लंबाई 10 किमी. चौड़ाई 8 किमी। आपको जानकारी दे दें कि प्रथम विश्व युद्ध 1914-1919 में पिथौरागढ़ के 1005 सैनिकों ने प्रतिभाग किया। 32 सैनिकों ने प्राण न्यौछावर किये। जो किले की दीवार पर मुद्रित किये गए।

बाऊल का गढ़ नामक इस किले का निर्माण 1791में गोरखा शासकों ने किया था। नगर के ऊंचे स्थान पर 6.5 नाली क्षेत्रफल वाली भूमि में निर्मित इस किले के चारों ओर अभेद्य दीवार का निर्माण किया गया था। इस दीवार में लंबी बंदूक चलाने के लिए 152 छिद्र बनाए गए हैं ।

किले से हथियार चलाने के लिए बनाए गए छिद्र।

यह छिद्र इस तरह से बनाए गए हैं कि बाहर से किले के भीतर किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। किले के मचानों में सैनिकों के बैठकर व लेटकर हथियार चलाने के लिए विशेष रूप से स्थान बने हैं। किले की लंबाई 88.5 मीटर और चौड़ाई 40 मीटर है। 8.9 फीट ऊंचाई वाली इस दीवार की चौड़ाई 5 फीट 4 इंच है। पत्थरों से निर्मित इस किले में गारे का प्रयोग किया गया है। किले में प्रवेश के लिए दो दरवाजे हैं।

इसमें 152 छिद्रों के संचालन के लिए 52 चौपालों का निर्माण भी करवाया गया था। बताया जाता है कि इस किले में एक गोपनीय दरवाजा भी था,साथ ही एक कुआं भी था जो पानी भरने के प्रयोजन से निर्मित किया गया था लेकिन अब यह कहीं नजर नहीं आता। किले के अंदर लगभग 15 कमरे हैं।

अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर कि क्या 1789 से पहले पिथौरागढ़ का कोई वजूद न था ? कुमाऊं का इतिहास पृष्ठ संख्या 19-20 में बद्रीदत्त पांडे लिखते हैं कि “श्रीअठकिन्सन साहब व श्री रूद्र दत्त पन्त जी यहाँ दो किस्से लिखते हैं –“सोरैकि नाली कत्युरिया माणी, ज्वेजै ठूली खसम जै नानो!” इस बात से ज्ञात होता है की यहाँ पर पुरुषों से स्त्रियों की प्रभुता ज्यादा है!

सोर घाटी यानि सम्पूर्ण पिथौरागढ़ बहुत काल तक डोटी राज्य के अधीन रहा लेकिन यह भी सत्य है कि डोटी राज्य से पहले “ना ठुकुर सोर” के नाम से जाना जाता है जो नौ राजाओं के अधीन था इनमें क्रमश: उचाकोट (पंगूट व हुडती गाँव के मध्य भाग), भाटकोट (पिथौरागढ़ से पूर्व चैंसर व कुमौड़ के उत्तर आधे क्षेत्र), बैलरकोट (मौजे थरकोट के निकट), उदयपुर कोट (बाजार से पश्चिम को मौजे पयदेव व मंजेडा के ऊपर), डूंगराकोट (मौजा धारी व पामै के पास), सहजकोट (बाजार से उत्तर मौजा पंडा व उरग पहाड़ के ऊपर), बमुवाकोट (बाजार के दक्षिण तरफ पहाड़ की चोटी पर), देवादारकोट (बल्दिया पट्टी में मौजे सिमलकोट के नजदीक) व दुनीकोट मौजे दुनी व कासनी के नजदीक छावनी से पूर्व की ओर) ! ये सभी छोटी-छोटी ठकुराई थी लेकिन सब अपने को राजा कहलाते थे इसीलिए इसका नाम “नौ ठुकुर सोर” पड़ा! इन सभी के किले या तो वीरान पड़े हैं या फिर खंडहर मात्र में तब्दील है!

चंद राजाओं के काल में यहाँ पीरु उर्फ़ पृथ्वी गुसाईं बलशाली राजा हुआ जिसने सभी ना ठुकुर सोर को इकठ्ठा कर पिठौड़ागढ़ नामक किले का निर्माण करवाया जिसे बाद में 1789 में गोरखाओं ने फतह कर इसे तहस नहस किया और फिर इसी किले का जीर्णोद्वार कर इसे गोरखा गढ़ या गोरखा किला का नाम दे दिया! सन 1816 में इसे अंग्रेजों ने हस्तगत किया और यहाँ 1881 तक ब्रिटिश सेना रही जिसने कुमाऊं के पश्चिमी क्षेत्र को सुदृढ़ता से सम्भाले रखा! सन 1881 में इस किले का पुनः जीर्णोद्वार हुआ और इसमें तहसील कार्यालय शिफ्ट किया गया! पृथ्वी गुसाईं के राजकाल के बाद ही इस स्थान को पिथौरागढ़ के रूप में जाना जाने लगा ! कई इतिहासकारों ने इसे पृथ्वीराज के नाम से भी पुकारा है! पिथौरागढ़ को हस्तगत करने की तिथि ब्रिटिश इतिहासकार 28 फरवरी 1815 मानते हैं क्योंकि इसी दिन 500 कुमाऊंनी सैनिक गोरखाओं का साथ छोड़कर मेजर हेयरसे की सेना में शामिल हुए थे!

यदि पिथौरागढ़ भी काली कुमाऊं क्षेत्र में पड़ता है तब काली कुमाऊं के प्रथम चंद राजा व उसके 10 वंशजों का शासनकाल 975 ई. से 1065 ई. तक माना जाता रहा है! लगभग 200 से 250 बर्ष तक खस राजाओं ने फिर यहाँ अपना अधिपत्य जमाया और फिर अप्रवासी चंद वंशजों का सन 1365 में कुमाऊं आगमन बताया जाता है! फिर दुबारा खसों को व डोटी के रैन्का राजाओं को पराजित करने का श्रेय चंद वंश के राजा रतन चंद (1450-1488) को जाता है जिसने अपनी सेना का विस्तार महाकाली नदी के इस पार सैन्य छावनी सोर घाटी में अवस्थित की! हो न हो यह किला भी राजा रतन चंद के काल का रहा हो जबकि असकोट के रजवार सातवीं सदी में एक मात्र तालुकेदार कहे जाते थे जो किसी के अधीन कभी नहीं रहे! इस राजवंश को सन 1289 में कत्युर शासक के संस्थापक 53वें वंशज राजकुमार अभयदेव द्वारा स्थापित किया गया और स्वयं पाल उपाधि धारण कर उनके वंशज फिर पाल कहलाये जिनके अधीन अस्सी किले आये जो डोटी से इस्लामाबाद तक अपने राज्य विस्तार की बात करते हैं! ऐसे में क्या अस्कोट के राज वंशजों का पिथौरागढ़ पर अधिकार नहीं रहा होगा? लेकिन यह साफ़ नहीं है कि उस काल में यहाँ किला अवस्थित था!

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पिथौरागढ ही वह कुमाऊं का पहला क्षेत्र रहा जब गोरखाओं ने 1789 में उसे हस्तगत किया व तत्पश्चात 1791-92 में सुब्बा जोगामल्ल, 1793 में काजी नरशाही व रामदत्त शाही, फिर अजब सिंह, खवास थापा और श्रेष्ट थापा व 1997 में हस्तीदल चौंतरिया के अधीन सम्पूर्ण कुमाऊं आ गया था जिन्होंने यहाँ 1815 तक शासन किया! इनमें भक्तिवीर थापा, अमर सिंह थापा, रणजोर थापा (रणदोज थापा), बलभद्र थापा, रणबहादुर थापा व भीमसेन था प्रमुख थे! २७ अप्रैल 1815 में सम्पूर्ण कुमाऊं पर अधिकार कर ब्रिटिश सेना द्वारा अल्मोड़ा किले पर ब्रिटिश ध्वज फहरा दिया गया!

डॉ. शिब प्रसाद डबराल “चारण” की पुस्तक “उत्तराखंड के अभिलेख एवं मुद्रा” के पृष्ठ 225 (चंद राजवंश के अभिलेख) से विधित होता है कि छेड़ा (पिथौरागढ़) ताम्र शाके १३८९/१४२७ ई. में भी किले के रूप में था जिसका काल राजा विजय ब्रह्म का काल माना जाता है! कत्युरी राजवंश उत्थान एवं समागम के पृष्ठ संख्या 82 में सुप्रसिद्ध इतिहासकार शिब प्रसाद डबराल चारण लिखते हैं कि ” सरजू (सरयू) की उत्तर उपत्यका में, काली नदी और पूर्वी राम गंगा के द्वाब न स्थित सोर मंडल के नौ कोट (नौ किले) थे……….इनमें बहुत पीछे पिथौरागढ़ की स्थापना हुई ! सम्भवतः वहां पहले भी कोई गढ़ था!”

वहीँ एटकिंसन के अनुसार, चंद वंश के एक सामंत पीरू गोसाई (पृथ्वी गोसाईं) ने पिथौरागढ़ की स्थापना की। ऐसा लगता है कि चंद वंश के राजा भारती चंद के शासनकाल (वर्ष 1437 से 1450) में उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के राजा डोटी को परास्त कर सौर घाटी पर कब्जा कर लिया एवं वर्ष 1449 में इसे कुमाऊं या कुर्मांचल में मिला लिया। उसी के शासनकाल में पीरू (या पृथ्वी गोसांई) ने पिथौरागढ़ नाम से यहाँ एक किला बनाया। किले के नाम पर ही बाद में इस नगर का नाम पिथौरागढ़ हुआ। राजा रतन चंद का राज्यकाल डोटी तक बताया गया जिन्होंने 1450 से 1488 तक सम्पूर्ण कुमाऊं पर राज किया!


इस वंश के तीन राजाओं ने पिथौरागढ़ से ही शासन किया तथा निकट के गाँव खड़कोट में उनके द्वारा निर्मित ईंटों के किले को बनाया गया। वर्ष 1622 के बाद से पिथौरागढ़ पर चंद राजवंश का आधिपत्य रहा। राजा पृथ्वी गोसाईं को राजा पिठौरा के नाम से भी जाना गया! इसलिए यह कहना कि वर्तमान में स्थित लंदन फोर्ट/ पिथौरागढ़ किला 1789 में गोरखाओं द्वारा निर्मित किया गया है मेरे हिसाब से सरासर गलत है! इसे संशोधित कर ऐतिहासिक जानकारियों के साथ शिलापटीकरण किया जाना चाहिए क्योंकि इस किले का हर काल में जीर्णोद्वार होता रहा ! अत: इसका काल मात्रलगभग 230 साल तक ही समेट लेना ठीक नहीं है अपितु इसे लगभग 582 बर्ष पुराना माना जाना चाहिए व शिलापट में इसका हर बार जीर्णोद्वार दर्शाकर किले के पुरातत्विक महत्व को समझा जाना चाहिए!

 

 

 

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