Friday, November 22, 2024
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ग्वली बेतालधार की समैणा, बबला भ्याळ की आँछरी, वीर भड लोधी रिखोला, नकधार के भूत लड़वा ब्राहमण। जाने कहाँ चले गए।

ग्वली बेतालधार की समैणा, बबला भ्याळ की आँछरी, वीर भड लोधी रिखोला, नकधार के भूत लड़वा ब्राहमण। जाने कहाँ चले गए।
(मनोज इष्टवाल)
बात  बयेली गाँव के वीर  भड़ लोधी रिखोला से शुरू होकर, ग्वली की समैणा, बबल्या भ्याळ की आँछरी, घसेन्यू के खाजा व नकधार के भूत लड़वा धस्माना पंडितों तक ही नहीं यह एक ऐसा रोचक वृतांत है कि आंखें यकीन न करें, मन गवाही न दे और जुबान बोल पड़े सब झूठ है। लेकिन है अकाट्य सत्य! क्योंकि कोई झूठ ज्यादा दिन तक नहीं टिकता और ये तो बर्षों से निरंतर यूँही होता आ रहा है।
बात सन 1996 की है तब में “गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका” सन्दर्भित एक पुस्तक पर अपना शोध जारी रखे हुए था। श्रावण मास अंगड़ाई ले ही रहा था तब मैं चौंदकोट के गुराड़स्यूँ के ऐतिहासिक तीलू रौतेली के तल्ला गुराड़ स्थित क्वाठा जोकि अब भग्नावेशों में शामिल है में सुबह के नाश्ते में कंकरियाला घी , गैथ की भरी ढ़बडी दुनाली रोटी, चाय का गिलास व चटपटी भाँगमिक्स मूले की सब्जी  खाने में तलीन था। महीना आषाढ़ का अंतिम दिन। मेरे गांव की एक बुढी जी जो बलवंत सिंह पडियार बिष्ट और त्रिलोक सिंह पड़ियार बिष्ट ताऊ जी की बहन थी मेरे लिए एक पीतल के बड़े से गिलास में भैंसिया दूध की पिंगली रंगत की मलाई लगा गिलास लेकर आई और बहुत प्यार से बोली- भुलु, घार जांदी त एक घ्यू की माणी दगड़ी ली जांदी। (भाई, घर जाता तो एक माणी यानी आधा किलो घी ही ले जाता)! मैंने हाथ जोड़कर कहा- अरे बुढी ऐसे भाग कहाँ। उन्होंने तपाक से हाथ पकड़कर बोला- हैं कतरी बात कनु छई तू। बामण आदिम ह्वेकि खांदी दां हाथ जोडूणु छई। बबा असगार लगलु मी पर। तु त इबरी हमकू देवता समान छई।(अरे कितनी बड़ी बात कर रहा है। ब्राह्मण व्यक्ति होकर खाते वक्त हाथ जोड़ रहा है। मुझ पर पाप चढ़ेगा। तू तो इस समय हमारे लिए देवता समान है)!
सच कहूं यही शब्द आजतक मेरे जेहन में हथौड़े समान बजते हैं। तब शायद अक्ल कम थी और चपलता ज्यादा। मैं दो दिन वहीं तीलू रौतेली के क्वाठा में गश्त करता रहा। और जितना हो सका मैटीरियल जुटाया फिर बुढी से इजाजत ली तो उन्होंने तिलक लगाकर विदा किया व दक्षिणा में करारा सा पांच का नोट दिया। सच कहूं तब कड़की इतनी थी कि पांच का नोट भी 500 रुपये लग रहा था।
अहा आज भी मेरी आँखों में उस बुढी की बूढ़ी आंखों में तैरती मायके की खुद अच्छे से याद है। वह लगभग सुबकती हुई सी बोली- भुलु, घार म सब्यूँ थैंन याद करि दे हो। अर तखुंद अंक्वे जै, अजक्याळ झिमलाट होयूँ च अर भुइयां देखी चली। भुइयाँ फुंडा बिजां हूंदीन अजक्याल। (भुला, घर में सबको याद कर देना। और आराम से जाना। आजकल झाड़ फूँस हो रखी है। नीचे देखकर चलना, नीचे के (सांप बिच्छू) ज्यादा होते हैं आजकल)!
सच में उस भाषा में कितना प्यार कितना मिठास और कितना अपनापन था। मैं भी गमगीन हृदय से विदा हुआ और बुढी मुझे तब तक निहारती रही जब तक मैंने गांव की वह धार पार नहीं कर दी। अंतर्मन आज भी वही सोचता है कि अब कहाँ गया वह अपनत्व। उस बुढी ने न कभी मुझे जन्म से अब तक देखा था न मैंने ही देखा था लेकिन उनकी आत्मीयता ने एक पल भी यह महसूस नहीं होने दिया था कि वो मेरे गांव की बुढी हैं। उनकी बहुओं ने भी मुझे उतना ही मान सम्मान दिया था जितना बुढी जी ने।
(तल्ला गुराड़ गाँव फोटो- उदय रावत)
आज भी ये शब्द मुझे कायल बनाते हैं कि ब्राह्मण होकर खाते समय हाथ जोड़ रहा है। पाप चढ़ाएगा क्या। ये वह समाज था जिसे हम अनपढ़ कहकर पुकारते थे । क्या आज ऐसी आत्मीयता मिलेगी? सन्दर्भ प्रसंग बहुत हैं और सफर बहुत लम्बा इसलिए अब मेरे पैर इंडिया टुडे पत्रिका के आर्ट डायरेक्टर चंद्रमोहन ज्योति के गांव मलथा की ढलाई नाप रहे थे। तेज धूप थी भले ही दूर ताड़केश्वर की पहाड़ियों पर बादल मंडरा रहे थे। मुझे किसी भी सूरत में आज सिपाही नेगियों के इड़ा गांव पहुंचना था। मल्था, धूर, रैंसोली गाँव  को पार करते करते पसीने से तरबतर था,  एक तरफ पानी की प्यास और दूसरी तरफ पेट की भूख पेट में गुड़गुड़ कर रही थी। रैंसोली से एक सज्जन को रास्ता पूछा कि मुझे इड़ा जाना है तब उन्होंने दो रास्ते बताए एक जो बैलोड़ी-रीठाखाल होकर वापस इड़ा आता था व एक बडौली होकर मालै गांव होकर या फिर सिरकोटखाल होकर।
मैंने अंगुली से बताते हुए पूछा क्या वही आपने बैलोड़ी गांव बताया। उन्होंने सिर हिलाकर बोला हां। अब तक वे पीतल के भारी लोटे में पानी लेकर आ गये थे।बोले- अभी तेज धूप है कुछ देर आराम करो । भात और मसूर की दाल बन रही है दो गफ़े खाकर जाना। मैं पानी पीकर हटा और बोला- धन्यवाद। दरअसल बैलोड़ी हमारी बैलोडूया भाभी का मायका है वहां जाकर थोड़ा आराम करूँगा। वो बोले- जैसी इच्छा। मन ही मन सोचा। इच्छा तो बहुत तेज भूख मिटाने की थी पर मसूर की दाल ने इच्छा खत्म कर दी। मुझे मसूर बिल्कुल पसंद नहीं थी तब।
बैलोड़ी गांव का अलग ही वैभव है। आप जब इसमें प्रवेश करते हैं तो लगता है किसी किले के अंदर प्रवेश कर रहे हो। बैलोड़ी गांव परमार रावतों के बर्चस्व का जलवा बिखेरता नजर आ रहा था। मैने एक सज्जन से पूछा कि प्रेम सिंह रावत जी का घर कहाँ है? उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। काले रंग के मुझ जैसी दुबली पतली काया को देखकर उन्होंने मुझे जाने किस जाति वर्ण सम्प्रदाय का समझा फिर बोले- अरे वो खड़मंगची बॉक्सर है । ऐरे- गैरे उसके घर की तरफ झांकते भी नहीं। मुझे लगा ये मुझे डराने का काम कर रहे हैं। लेकिन जब सर ओखल में दे ही दिया तो अब मूसल से क्या डर। पेट की भूख का सवाल था भई। आखिर मैं वहां पहुंचा और अपना परिचय दिया। एक लंबा चौडा विशालकाय व्यक्ति मेरे सामने खड़ा था। ये अशोक के पिता प्रेम सिंह रावत इतने मजबूत काठी के होंगे सोचा भी नहीं था। बैलोड़िया भाभी यानि अशोक की माँ और प्रेम सिंह रावत की बहन व मेरी माँ की अच्छी दोस्ती थी। अशोक व मेरी इसलिए दोस्ती थी क्योंकि हम साथ पढ़ते थे। अशोक की फूफू यानि बैलोडया भाभी हमारे गाँव रहती थी व अशोक उन्हीं के साथ पढता था! वे मुझे देखते ही पहचान गए ,  क्योंकि अशोक की शादी में मैं जगजीत सिंह कंडारी भाई जी, व रुद्री कंडारी गए थे। वे बहुत गर्मजोशी से गले मिले। सच कहूं यह गर्मजोशी थोड़ी देर और रहती तो मेरे दम निकल जाते। शुक्र है कि उनसे वंदन मुक्त होते ही मेरी सांस में सांस आई। उफ़ उनकी वह जकड़ आज भी याद आती है तो पसलियाँ चटकनी शुरू हो जाती हैं!  अब ब्राह्मण घर पहुंचा था तो बड़े कुल के थोकदारों की परंपरा रही है उसे सम्मान देने की। रोटी, सब्जी, दाल, घी, दही,मट्ठा और यह सब ग्रहण करने से पहले एक सफेद लिफाफे में पीला टीका लगा पहले घर की चौखट और फिर मुझे तिलक लगा । लिफाफा आगे बढ़ा तो भला ऐसा कैसे साहस होता कि ना-नुकुर कर देता। तब तक ये संस्कार जीवित थे। बस यही सोच रहा था कि काश….मैं ब्राह्मण कुल का नहीं होता तो एक भात का गफ्फा भी मिल जाता क्योंकि तीन चार दिनों से राजपूतों के घर ही खाना हो रहा था जहाँ पंडितों के लिए भात निषेध समझा जाता था! लगभग दो घण्टे फसर कर यहां लेटा और इंतजार करता रहा कि चाय कब मिले और कब इजाजत लूँ। ठीक 4 बजे शुद्ध दूध की चाय आई और झट से पीकर चलने की तैयारी करने लगा । उन्हें बुरा लगा कि अभी जा रहा है। फिर मैंने अपनी यात्रा का मकसद बताया तो बड़े खुश हुए और गाँव की धार तक विदा करने आये जहां से बडौली दिखता था। अब एक और मुसीबत यह हुई कि उनसे हाथ मिला दिया। दर्द के मारे चिल्लाया- वे बोले, अरे क्या हुआ। ओहो मैं तो भूल ही गया कि यह हाथ बॉक्सर का नहीं कलमकार का है। खैर मैं रास्ते भर हाथ की पीड़ा नहीं भूला था लेकिन बलोड़ी सड़क पर पहुंचते ही वह पिठाई वाला लिफाफा याद आ गया। झट से खोलकर देखा तो कड़क पचास का नोट मुस्कराता हुआ मेरी आँखो का स्वागत करता दिखाई दिया। अहा मानों दुनिया की खुशी मिल गयी हो।
क्रमशः/-
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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