Thursday, December 26, 2024
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गढ़वाल श्रीनगर राजधानी तक पहुँचने का मार्ग चौकीघाटा द्वारकोट या सिद्धबलि का खोहद्वार?

(मनोज इष्टवाल)

अब जबकि ब्रिटिश काल के बाद या यूँ कहें कालौं डांडा (लैंसडाउन) में सैन्य छावनी के लिए बने छकडा मार्ग के पश्चात् गढ़वाल में प्रवेश का मुख्य द्वार कोटद्वार हो गया है, तब भला हमें इस बात से क्या लेना देना कि मुग़ल राजवंश के दौरान दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह ने 1658 ई० में इस रास्ते से श्रीनगर शरण लेने आया था। या फिर 1796 में चौकीघाटा की तर्ज पर गढ़वाल में प्रवेश हेतु खोहद्वार घाटा बन चुका था। 

चौकीघाटा अर्थात वर्तमान में कण्वाश्रम से लगभग डेढ़ किमी ऊपर जहाँ से मालिनी नदी की पर्वत श्रृंखलायें शुरू होती हैं और खोहद्धार अर्थात सिद्धबलि मंदिर से लगभग डेढ़ किमी ऊपर वर्तमान में बना लालपुल जहाँ खोह नदी संकरे पर्वतीय मार्ग से फ़ैलते मैदान में प्रवेश करती हैं, का सिद्ध परंपरा से संबंध स्व० ललिता प्रसाद नैथानी संपादक सत्यपथ के सौजन्य से 1668 ई० के ताम्रपत्र की प्राप्त प्रतिलिपि से पता चलता है कि मुगल दरबार के प्रभावशाली सैय्यद साहब ने पुरिया नैथानी को चौकी (घाटा) और खोहद्वार अथवा द्वारकोट (कोटद्वार) के घाटों की सुरक्षा का दायित्व सौंपा था। जब वे श्रीनगर नरेश की ओर से पातशाही दरबार में राजदूत बनाकर भेजे गए थे।

इसी ताम्रपत्र में गढ़वाल राजा के सैन्य सलाहकार पुरिया नैथानी को दो हजार बीघा जमीन की बख्शीश देने का भी उल्लेख है। लोगों का मानना है कि यह जमीन चौकीघाटा के आस पास की है, वहीं मेरा व्यक्तिगत मत है या यूँ कहें विस्तृत शोध है कि सैय्यद साहब ने वह जमीन बख्शीश में नहीं दी थी अपितु वह जमीन गढ़वाल नरेश पृथ्वीपति अर्थात पृथ्वीशाह या फतेशाह द्वारा साके 1590 संवत 1725 ने सैद साहब अर्थात नजीबाबाद के तत्कालीन सैय्यद से रकम देकर छुड़वाई जिसने इस पर यह दावा कर दिया था कि कोटदुआरा चौकी से आगे जितनी भी जमीन भाबर क्षेत्र में राष्ट्रीय राज मार्ग से नीचे की है वह उनकी मिल्कियत है क्योंकि इस जमीन पर उनके वंशज बर्षों से “खैकरी” करते आ रहे हैं। यह 2000 बीघा ज़मीन किशनपुरी क्षेत्र की है न कि चौकीघाटा क्षेत्र की। यह अलग बात है कि तत्कालीन समय में चौकीघाटा से ही नहीं बल्कि ईडा शून्य शिखर से लेकर मालिनी नदी के दाएँ क्षेत्र में पड़ने वाली ज्यादात्तर हजारों एकड़ जमीन पूर्ववर्ती राजाओं ने पुरिया नैथानी को सनद के तौर पर दी थी जिसका रिकॉर्ड तलाशा जाय तो हो सकता है, मिल भी जाय या फिर आने वाले काल में रसूकदारों ने खुर्द-बुर्द कर दिया हो।

“स्वर्गीय जगतराम मिश्रा बताते थे कि चौकी घाटा का कोट द्वारकोट था। पुरिया की संतान बहुत बाद तक चौकी घाटा की थोकदार/फौजदार थी। भीषण गर्मी बरसात में वह लोग ईड़ा गांव के पास शून्यशिखर पर चले जाते थे। इसी शिखर के पादतल से मालिनी निकलती है।”  आज भी ईडा गाँव के भवन नैथानियों के थोकदारी व सम्पन्नता की कहानी कहते दिखाई देते हैं जबकि यह गाँव अब लगभग खाली हो चुका है। एक या दो परिवार अब इस गाँव में निवास करते हैं।

मिश्रा खानदान कोटद्वार भाबर का वह पुराना खानदान है जिनके वंशज स्व. धनीराम मिश्रा ने दुगड्डा शहर बसाया है। और अगर स्व. जगतराम मिश्रा ने चौकीघाटा क्षेत्र से हल्दुख़ाता-किशनपुरी तक मालिनी नदी के दाएँ छोर की ज़मीन गढ़ चाणक्य पुरिया की बताई है तो उसकी ठोस वजह भी है क्योंकि जसोधर पुर, जसोधर नैथानी व किशनपुर में किशनदत्त नैथानी के नाम से ब्रिटिशकाल से जमीन चली आ रही है। कलाल व बोक्सा लोगों ने यहाँ इस सिंचित ज़मीन पर “खैकरी” की, क्योंकि गर्मियों में अक्सर मच्छर, मलेरिया, हैजा, कोलरा जैसी बीमारियों के डर से नैथानी ईडा गाँव चले जाते थे।  ब्रिटिश काल में आये भू-क़ानून में खैकरों को जमीन दी गई जिसमें कलालघाटी, हल्दुखाता, लच्छमपुर, भीमसेनपुर से लेकर देवरामपुर व ठीक वर्तमान कण्व आश्रम -चौकीघाटा अर्थात द्वारकोट तक की हजारों बीघा ज़मीन शामिल है।

इससे इस बात का भी अनुमान लगाया जा सकता है कि गढ़ चाणक्य पुरिया नैथानी अपने कुछ परिजनों के साथ नैथाणा गाँव (विकासखंड कल्जीखाल, पौड़ी गढ़वाल) से संवत 1725 के आस-पास मालिनी नदी तट पर बसे ईडा गाँव (विकास खंड दुगड्डा पौड़ी gadhwal) आ बसे और यहीं से उनके वंशजों ने भाबर क्षेत्र के बड़े भू – भाग पर अपने खैकरों से क़ृषि करवाई, क्योंकि इसी मालन तट पर उपजने वाली बासमत्ती चावल का भोग बद्री नारायण को लगता था व यही बासमत्ती चावल अच्छे दामों पर श्रीनगर राजदरबार तक पहुँचता था।

सैकड़ों बर्ष पूर्व अर्थात मध्यकाल में इस घाटे के प्राचीन सिद्धरक्षक का स्थान जगदेव पंवार ने ले लिया था। जिसकी गढ़ी मवाकोट थी। जिसने म्लेच्छ शत्रु की अधीनता स्वीकार करने के बदले अपना सर कटाव दिया था। जिसकी रानी सतीचौड़ में सती हो गई थी और अपने बलिदान से लोकगाथा में अमर हो गई थी। मरने के बाद जनमानस की स्मृति में जगदेव अमर हो गया। सिद्धों की अणु और अमरता के समान उसे भी सिद्ध का दर्जा मिल गया। आज भी उसकी थात पर स्थानीय दस बारह गांवों के, प्राचीन जनजातीय लोग तथा बिजनौर वासी, मेले में जुटते हैं।

चौकीघाटा जिसे पूर्व में द्वारकोट (राजधानी श्रीनगर का प्रवेश द्वार) का सिद्ध स्थान मध्य युग में म्लेच्छ आगमन और उनके कब्जे में रहने से पुराने घाटे द्वार पर टिका न रह सका। पुराने सिद्धस्थल पहाड़ी शिखर पर ही वह सीमित रहने को विवश हो गया। इसके हमारे पास दो प्रमाण है। एक तो 1796 ई० में कैप्टन थामस हार्डविक का यह विवरण कि कोटद्वारा पास में हकीम का कंट्रोल है, जो राजा को प्रतिवर्ष 12000 रु० देता है जबकि श्रीनगर का राजा नेपाल के गोरखा राजाको 25000 रु० वार्षिक कर देता है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि यह वह संक्रमण का काल था जब गोरखाओं से पूर्व यहाँ मुगलों ने द्वारकोट पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया था क्योंकि असवाल गढ़ जिसे वर्तमान में गहड़ या गढ़ के नाम से जाना जाता है, के सैन्य रक्षक श्रृंगारमति के श्राप से त्रस्त होकर मालिनी घाटी छोड़ चुके थे और तब नैथानी वंशज चौकीघाटा में कमजोर पड़ गए थे।

हार्डविक यहां पर किसी देवमंदिर या सिद्धस्थान का उल्लेख नहीं करता। केवल निकट के छोटे से गंवाड़े कोद्वारा का जिक्र करता है। तबका यह वैरियर खोह नदी पर लकड़ी के भारी लट्‌ट्ठों और तख्तों से बना एक विशाल आकार का था, जिसके दोनों ओर रक्षक रहते थे,  जो दो तरफों के सीमा रक्षक क्रमशः होते थे। वैरियर के दोनों ओर खड़े ऊंचे पहाड़, निकट ही उनके पादतल में विचरते जंगली हाथी और खोह नदी की प्रचुर जल वाली तीव्र धार, इन सब से बचकर बस यही एक बैरियर से होकर खोह के बाएं तट से होकर जाने वाला रास्ता होता था। वैरियर की रक्षा करने वाले आयुधजीवी सैनिक जो सहारनपुर सैयद हकीम के अधीनस्थ थे, धनुष-बाण, ढाल-तलवार तथा तोड़ेदार बंदूकों से लैस रहते थे। गांव की तरफ से ऊंची पत्थरों की दीवार भी होती थी। जिसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि हार्डविक के समय खोहद्वार अर्थात सिद्धबली मार्ग जो वर्तमान में राज्यीय राजमार्ग है तब तक “ढाकर” मार्ग बन चुका था।

खोहद्वार से प्राप्त चुंगी प्रदीपशाह/ललितशाह के समय में मात्र 6000 रु० वार्षिक थी। अतः हम अनुमान लगा सकते हैं कि नजीबाबाद में रुहेलों की नवाबी स्थापित होने के बाद गढ़नरेशों ने चौकीघाटा बाह्यागतों के प्रवेश पर पूर्णतया रोक लगा दी थी और केवल धार कोटद्वार जिसे हार्डविक ने कोद्वारा पास लिखा, से ही मैदानी भाग से व्यापारिक और राजनीतिक संबंधों को सीमित कर दिया था और एक तगड़ी रकम के बदले इसे आयुध जीवी टोली के नेता हकीम को सौंप दिया था। श्रीनगर से बिना परवाना पाये कोई भी इस बैरियर से आगे गढ़‌वाल की ओर नहीं बढ़ सकता था। हार्डविक को परवाना अवध के नवाब की सिफारिश पर ही श्रीनगर दरबार से मिला था।

इस विशेष सुरक्षा व्यवस्था के अनेक कारण थे। एक कारण तो वह ऐतिहासिक घटना थी कि 1658 ई० में जब सुलेमान शिकोह इस रास्ते से श्रीनगर शरण लेने आया तो औरंगजेब के कोप के कारण महान संकट उपस्थित हो गया था। जबकि मेरा मत है सुलेमान शिकोह खोहद्वार के रास्ते नहीं अपितु द्वारकोट यानि चौकीघाटा के रास्ते श्रीनगर दरबार पहुँचे हैं। जिसके प्रमाण आज भी मालिनी नदी घाटी में मौजूद हैं। यहाँ कई गाँव मुस्लिमों के हैं, जिन में कुछ का मानना है कि वे सुलेमान शिकोह के वंशज हैं तो कुछ का मानना है, उनके वंशज पहले हिन्दू थे।

चौकीघाटा/ द्वारकोट (मालिनी नदी घाटी), खोहद्वार (खोह नदी घाटी) कोटद्वार को विशेष महत्व दिए जाने के अनेक कारण थे। एक प्रमुख कारण तो यह था कि यहां पर नगीना-बढ़ापुर से आने वाला मार्ग मिलता था। नगीना तब गढ़वाल राज्य में था, वहां प्रदीपशाह जाड़ों में जाता था। वहां पहाड़ी दरवाजा आज भी है। मैदान से इसी मार्ग से पहाड़ में गुड़, कपड़ा, मसाला, नमक आदि आता था और बदले में बढ़िया लकड़ी, लोहा, तांबा, टिन मैदानी मंडियों को जाता था।

बाद में जब नजीबाबाद का उत्थान हुआ तो सनेह से बढ़ापुर के बदले रास्ता नजीबाबाद की ओर मुड़ गया और काबुल, कश्मीर, लाहौर तक की मंडियों से कोटद्वार घाटा से व्यापार होने लगा क्योंकि नजीबाबाद के रुहेलों का पंजाब, अफगानिस्तान से सीधा संपर्क था।

इस मार्ग पर मध्य में एक और सिद्ध पड़ाव था, जिसे बाद में ‘हरपाल सिंद्ध’ कहने लगे। इसी मार्ग की एक शाखा मोरघाटी से होकर सिद्धखाल, यक्षिणीखाल (रिखणीखाल) की ओर बढ़ती थी। सिद्धबली कोटद्वार से दूसरा प्रसिद्ध मार्ग रामनगर को जाता था, जो दो वैकल्पिक रूपों में था। एक तो चोखमदूनबोकसाड़ होकर पातलीदून से बढ़ता था, दूसरा हरपाल सिद्ध से प्रसिद्ध कंडी रोड होकर रामनगर को पूर्व में और पश्चिम में चण्डी परगने निकट हरिद्वार को जाता था।

मुगल काल से ही गढ़वाल राज्य के भाबर-दून इलाके पर मुगल साम्राज्य की छाया गहराने लगी थी। दीवान टोडरमल ने, जो माल विभाग संभालता था, अकबर बादशाह को सलाह दी थी कि “पहाड़ी राजाओं का मांस काट लिया जाए और हड्‌डी छोड़ दी जाए”। अतः कुमाऊं राजा की 84 या नौलखिया माल तो मुगल साम्राज्य की कुमाऊँ सरकार बना दी गई थी। जो जहांगीर के समय से शिकार के बहाने विशाल मुगल फौज बादशाह सलामत की सुरक्षा हेतु प्रसिद्ध गिरिद्वारों तक आ धमकने लगी थी। फलतः कुमांऊनी काल में टांडापीपल हाटा का बादशाही बाग, तिमली पास में फैजाबाद के पास का बादशाही बाग अस्तित्व में आ चुके थे। जहांगीर जब स्वास्थ्य लाभ हेतु हरिद्वार के पास आया तो सलामती और खैर मकदम के लिए श्रीनगर का राजा शामशाह गंगा के बांये तट पर शिविर डालकर पड़ा रहा था। श्यामपुर स्थान नाम आज भी वहां विद्यमान है।

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