गढ़-कुमाऊँ शान…! जिनकी साँसों में पहाड़ का जीवन प्रदेश में भी हिलौरे मारता है…..!
(मनोज इष्टवाल)
आधुनिकता और विलासिता के इस प्रबल दौर में अगर कोई दिल्ली या देहरादून में ठेठ अपनी लोकसंस्कृति की नुमाइश करे या गढ़-कुमाऊँ की पोशाकों को पहनकर महानगरों की गलियों से निकले तो आप क्या कहेंगे. ऐसा नहीं है कि राजधानी देहरादून में पहाड़ की लोकसंस्कृति की अगुवाई करने वाला समाज नहीं है! यहाँ रुपिन सुपिन नदी घाटी, तमसा यमुना नदी घाटी से घिरे पर्वत, रवाई, बावर, जौनपुर व जौनसार की लोक संस्कृति व सांस्कृतिक वानगी के बिम्ब नजर ना आते हों! लेकिन गढ़वाल के शेष भागों की लोक संस्कृति व लोकसमज की तरावट यकीनन यहाँ 2005 तक दिखने क़ो नहीं मिलती थी!
लेकिन…. ये दो नाम ऐसे रहे जिन्होंने हर तीज त्यौहार व मंच पर अपने पहाड़ अर्थात गढ़ -कुमाऊं क़ो लाकर खड़ा कर दिया. जबकि इससे पूर्व हम लोग यह साहस नहीं कर पाते थे कि हम समाज के सम्मुख अपने ठेठ परिधानों व आभूषणों की नुमाईश कर सकें,क्योंकि हमारी उस दौर में यह सोच होती थी कि क्या जाने लोग हम पर हँसेंगे? लेकिन चमोली गढ़वाल से देहरादून में रची बसी हेमलता बहन व कुमाऊं से गाजियाबाद में रह रही हँसा अमोला देवभूमि के दो सिरों को मजबूती से पकड़कर प्रदेश में अपनी लोकसंस्कृति को जिन्दा रखने के लिए बर्षों से कमर कस रखी है! वर्तमान में भले ही इस लोक संस्कृति की संवाहक कई महिलाओं ने अपने अपने जिले के अपने अपने लोक समाज क़ो जिन्दा रखने के लिए ध्वजवाहक की भूमिका निभानी शुरू कर दी है, जिनमें काबीना मंत्री रेखा आर्या, मसूरी के समीर शुक्ला व श्रीमति कविता shukla, सुप्रसिद्ध गायिका हेमा नेगी करासी, शिल्पी व लोक कलाकार मीरा आर्या, समाजसेवी व शिल्पी मंजू टम्टा जैसे अब दर्जनों नाम है जो लगातार अपने लोक समाज व लोक संस्कृति के लिए भागीरथ प्रयास कर रहे हैं!
जहाँ तक इस जोड़ी की बात है, इन्होने राज्य निर्माण से पूर्व भी अपने-अपने क्षेत्र की लोकसंस्कृति क़ो जिन्दा रखने लिए बेहद दबंगता के साथ अपने लोक पहनावे क़ो प्रदर्शित कर लोगों क़ो लोकसंस्कृति के लोक के प्रति आकर्षित किया है. मैं श्रीमति हेमलता बहन को हर मंच पर अपनी गढ़ पोशाकों में उपस्थिति दर्ज करते हमेशा ही देखा करता था. श्रीमति हंसा अमोला के बारे में यही सोचता था कि वह सिर्फ इस सोशल साइड पर ही अपने कुमाऊँनी वस्त्रों में सुसज्जित रहती हैं. लेकिन हाल ही में लोधी रोड (लोधी गार्डन) दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में आयोजित एक अभिव्यक्ति कार्यशाला में जब हंसा जी को भी ठेठ कुमाऊँनी पोशाक के साथ उपस्थिति दर्ज करते देखा तो लगा गढ़-कुमाऊँ की कम से कम दो बेटियाँ तो हैं जो निर्द्वंद रूप से अपनी लोकसंस्कृति में रची बसी और उसी के लिए बनी नजर आती हैं.
सच मानिए तो जहाँ भी ये दोनों उपस्थित हों..हर एक के आकर्षण का केंद्र रहती हैं. इन दोनों बहनों की यह पहल जीवंत पर्यंत जीवित रहे ताकि हम अपने आप पर गर्व कर सकें. और क्यों न हम भी ऐसी कोशिश करें कि गढ़-कुमाऊँ के मेलों या उत्सवों में अपनी पारम्परिक भेषभूषा में शिरकत करें. क्योंकि मुझे पता है कि आने वाला समय इन्हीं बहनों के नाम दर्ज होगा.