Thursday, November 21, 2024
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16वीं सदी से लेकर वर्तमान तक ज्यों की त्यों है खैरालिंग महादेव की विजयगाथा।

(मनोज इष्टवाल)

हम अक्सर जब उत्तराखण्ड के इतिहास को खंगालने की कोशिश करते हैं तो बदले में शून्य ही पाते हैं। ऐसे में हम कहाँ से शुरू करें यह बड़ा मुश्किल हो जाता है क्योंकि न आपके पास कोई शिलालेख है न ताम्रपत्र व ना ही कहीं इतिहास के पन्नों में सजा इतिहास। ऐसे में मात्र जागर व पंवाड़े ही आपके पास उपलब्ध हैं जिन्हें सुनकर आपको उनके आधार पर इतिहास के पन्नों के साथ कदमताल करनी पड़ती है।  बस उसी कदमताल के शामिल है खैरालिंग महादेव का यह इतिहास…!

थैर गांव के सात भाई थैरवालों के नमक के भारे के साथ आया “खैरालिंग” (मुंडनेश्वर) देवता 80 बर्षीय माडु थैरवाल के नमक के भारे के साथ 16वीं सदी में आया बताया जाता है। जहां पर सर्वप्रथम माडु थैरवाल ने नमक का भारा रखा था व दिशा-फिराक (शौच निवृत्ति) के लिए गए थे। वहां कलीराम नामक सकनौली गाँव के व्यक्ति का लहेत था। नमक का भारा जिस पेड़ की आड़ व जिस टिक्वा (हाथ की लाठी) के सहारे रखा गया था वे दोनों ही खैर की लकड़ी के थे। खैरालिंग महादेव की जागर “स्याळआ झमाको” के प्रसंग में इसका बर्णन आता है। सोलहवीं सदी में 84 गांव के थोकदार नगर गांव के गढ़पति भँधो असवाल जिसे जागरी अपनी जागर में “भंगो अस्वाल” नाम का संबोधन देते हैं, द्वारा अपनी कुलदेवी माँ काली के सपने में आने के कारण माँ काली व महादेव के कहने पर वर्तमान स्थान में सम्पूर्ण पूजा विधि से थरपते (स्थापित) करते हैं। कहा जाता है कि खैरालिंग वे माँ काली ने भँधो असवाल को खुश होकर कहा था कि मेरे स्थान से लेकर पश्चिम दिशा की ओर जहां तक तेरी नजर पड़ेगी वहां तक तेरी राज्य वृद्धि होगी। कालांतर में हुआ भी यही, क्योंकि 84 गांव की थोकदारी स्थापित कर नगर गांव में स्वघोषित राजा रणपाल असवाल के इस वंशज की जहां भी नजर पड़ी वही गढ व गढ़पति उसके अधीन हुए। जिनमें भैरों गढ, लंगूर गढ, कालों डांडा, महाबगढ़, घुड़केन्डा गढ और तराई नजीबाबाद क्षेत्र का स्याळ बूंगा (मोरध्वज किला) उनके अधीन होता गया। लेकिन उनके वंशज पीड़ा गांव के थोकदार द्वारा ताड़केश्वर महाराज के साथ अभद्रता करने के कारण इनका धीरे-धीरे राज क्षीण होता गया और मलेच्छों ने महाबगढ़ क्षेत्र पर अधिकार कर इन्हें करारी शिकस्त दी।
1512 ई. में गढ़वाल नरेश ने 52 गढ जीतकर जहां अपनी राजधानी चांदपुर गढ से पहले देवलगढ़ और फिर श्रीनगर स्थापित कर “गढ़वाल राज्य” की स्थापना की वहीं 1515 ई. में नागपुर गढ से रणपाल असवाल ने भी अपना राज्य विस्तार के रूप में 84 गांव राजा से स्वछंद पाकर बिना मुकुट के राजा बनकर नगर गांव असवालस्यूँ को अपनी राजधानी घोषित किया और “अधो गढ़वाल-अधो असवाल” की कहावत पर राज्य को तराई तक विस्तार दिया। यह विस्तार 1628 के बाद रणपाल असवाल के पौते भँधो असवाल द्वारा खैरालिंग से मिले बज्र भाले व भोजपत्र निर्मित ढाल से अविजित राज किया।
खैर वृक्ष के नीचे सर्वप्रथम माढु थैरवाल के नमक भारे से बाहर निकले लिंग को लोगों ने खैरालिंग नाम से संबोधित करना शुरू कर दिया। लोगों ने यह भी मत दिया कि यह लिंग बड़ी खैरी (मुसीबत) के बाद नमक भारे से बाहर निकाला गया इसलिए इसे खैरालिंग संबोधन मिला जो तर्कसंगत नहीं है।
खैरालिंग महादेव को धावड़ी देवता नाम से भी जाना है जो किसी भी आकस्मिक आक्रमण से असवाल थोकदारों को सावधान करता था। कहते हैं खैरालिंग देवता ने धावड़ी लगाकर ही कलीराम सकनौली, भँधो असवाल व माडु थैरवाल तीनों को इंगित कर जानकारी दी कि सकनौली वाले उनके पुजारी, थैर गांव के थैरवाल उनके मैती (मायके पक्ष) व असवाल क्योंकि काली के उपासक हैं व माँ काली के मायके वाले हुए तो उस हिसाब से उनके ससुराल वाले हुए।
इस तरह बंटवारे के बाद उन्होंने भँधो असवाल की थाती (असवालों की माटी) में अपना स्थान चुना जहां से उतुंग हिम शिखरें दिखाई देती हैं। माँ काली ने भी नगर गांव से महादेव के साथ खैरालिंग स्थान पर जाने की इच्छा जाहिर की। अतएव एक निहित तिथि पर माँ काली की मूर्ति का उठागण कर ध्वज पताका के साथ महादेव के वामांग में स्थान ग्रहण कर अपनी स्थापना स्वीकारी। तब से हर साल यहां मेला लगता है, जिसमें असवाल जाति व थैरवाल जाति के लोग ध्वज पताका लाते हैं व सकनौली गांव के पुजारी पूजा करते हैं।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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