केदारकांठा से हर-की-दून, बालीपास तक चुगती भेड़ों और भेड़ालों की अनोखी जिन्दगी!
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 9-10 जुलाई 2019)
कुछ यात्राएं जिन्दगी के मायने बदल देती हैं और वह ग्रामीण जीवन के ऐसे दर्शन करवा देती हैं कि यकीन नहीं होता! इसे भी आप हमारी हिमालय दिग्दर्शन यात्रा का एक अंश मान सकते हैं क्योंकि जब हम (ठाकुर रतन सिंह असवाल/मनोज इष्टवाल) 8 जुलाई को देहरादून से निकले थे तब मुझे सिर्फ यह पता था कि हम खेड़मी जा रहे हैं लेकिन नौगाँव पहुंचकर जब पलायन एक चिंतन के संयोजक रतन सिंह असवाल ने अपनी इनोवा को बायीं ओर काटने की जगह दांयीं ओर यानि यमनौत्री की ओर मोड़ी तब मैंने पूछा- ठाकुर सा, यहाँ कहाँ? रतन असवाल बोले- अरे बैठे रहो पंडा जी..! आज विजयपाल व उसकी मित्र मंडली के साथ रुकना है! मैं सिर्फ कसमसाया लेकिन कुछ नहीं बोल पाया! खैर विजयपाल यानि विजयपाल सिंह रावत, उत्तराखंड कांग्रेस के प्रवक्ता व बडकोट क्षेत्र के छात्र नेता व समाजसेवी ! यहाँ हमारी व्यवस्था टीआरएच बंगले में थी! यह कहना ब्यर्थ है कि यहाँ हमारी आवाभगत कैसी हुई क्योंकि इतना खा दिया कि गले से बाहर उबकाई आनी बाकी थी! यह अक्सर होता आया है कि रवाई या पर्वत क्षेत्र में जब भी रतन सिंह असवाल के साथ जाना हुआ, उनकी मित्र मण्डली “अतिथि देवो भव:” की परम्परा का निर्वहन करने में हमेशा तत्पर रही!
9 जुलाई को खेडमी की यादगार यात्रा इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण रही क्योंकि यह हिमालयी क्षेत्र से लगा गाँव है जहाँ पहुँचने के लिए हमें पांच से छ: किमी. पैदल यात्रा करनी पड़ी! यों तो मौसम सुबह से ही बेईमान था कभी बादल, कभी बादलों के झुण्ड तो कभी आकाश की गर्जन हमें घेरे में लेकर हमारे सफर में हमारा सहयोग करती! खरसाड़ी से बमुश्किल एक डेढ़ किमी. आगे भदरासु की तरफ मुड़ते हुए हम केदारगंगा (केदारगाड़) पार करते हुए कच्ची सडक पर जा पहुंचे! यहाँ से कुछ ही आगे चलकर एक सडक देवजानी जाती है जबकि हम सड़क का तीख़ा बांया मोड़ लेते हुए बिंगसारी की तरफ बढ़ चले! यह कहने को तो सडक है लेकिन सच मानिए इस सडक पर लदे हुए घोड़े गधे भी चलने को इनकार कर दें! यहाँ ठाकुर रतन सिंह असवाल की मैं मन ही मन प्रशंसा कर रहा था जो अपनी कार का हैंडल मजबूती से पकडे पैरों से स्टेरिंग ब्रेक सम्भाले बेहद चौकस निगाह के साथ इस सड़क पर ड्राइव कर रहे थे! आखिर हमारी मंजिल के दर्शन हो ही गए जहाँ से हमें कार पार्क करके लगभग 6 किमी. पैदल खेडमी के लिए चलना था! वास्तव में कहीं खूबसूरत स्थान पर पहुँचने के लिए आपको परिश्रम तो करना ही होता है! बिन्गसारी गाँव की आलौकिक छटा बेहद लोकलुभावनी है! दूर-दूर तक फैले शानदार खेतों में घुटनों-घुटनों तक डूबे पैरों के बीच यहाँ का ज्यादात्तर जनमानस धान की नयी पौध रोपणी पानी से लबालब भरे खेतों में लगाकर मटमैले खेतों की रंगत को हरा कर रहे थे! गाँव से होते हुए हमारा झुण्ड जिसमें सुरेन्द्र देवजानी सहित खेडमी गाँव के कई अन्य लोग शामिल थे आगे बढ़ रहा था! इस गाँव में कर्ण पुत्र बिषासन (वृषकेतु) का सुंदर मंदिर है! इस घाटी में मैंने एक चीज जो महसूस की वह यह है कि यहाँ के लोग अपने देव धामों और देवताओं के प्रति बेहद सजग व संवेदनशील हैं तभी जिस गाँव में भी जाओ वहां देवमंदिर भव्यता के साथ सुशोभित होते हैं! आखिर हों भी तो क्यों न हों, देश दुनिया की चकाचौंध से कटे ऐसे इलाके के लोगों का जीवन भी तो प्रभु कृपा से ही चलता है!
बिंगसारी गाँव के अंतिम ऊपरी छोर पर एक स्कूल है, जहाँ दो युवा खड़े दिखे पूछने पर पता लगा कि ये दोनों मासाब हैं व स्कूल के ही एक कमरे में इनका आवास है! स्कूल के बिल्कुल बगल से चीड़ देवदार जंगल के बीच से गुजरता शोर्टकट रास्ता खेडमी गाँव के लिए जाता है जिस पर हम आगे बढ़ रहे थे! मैंने दोनों मासाब का अभिवादन किया और उनसे खैरियत पूछी! दोनों मासाब शायद यही सोच रहे थे कि कोई अधिकारी तो स्कूल में नहीं आ रहे होंगे? मुझे जानकार हैरत हुई कि एक मासाब मेरे पौड़ी जिले के पाबौं ब्लाक के हैं तो दूसरे टिहरी के! दोनों ने ही यहाँ के जनमानस के व्यवहार व सहयोगी स्वभाव की प्रशंसा की! मुझे भी याद हो आया कि ये गाँव अभी अभी रोड हेड से जुड़ा है शायद तभी यहाँ के जनमानस में वह भोलापन है क्योंकि गाँव के बीच से गुजरते हम लोगों का अभिवादन ही ग्रामीण नहीं कर रहे थे बल्कि वे हमें आज अपने ही गाँव में रोकने रुकने की बात कर रहे थे!
चीड़ जंगल में बमुश्किल आधा किमी. भी उपर नहीं चढ़े होंगे कि रतन सिंह असवाल की आवाज सुनाई दी- अरे ओ पंडा जी, जरा देखकर चलना! यहाँ जोंकें भी हैं! मेरी नजर उनकी तरफ गयी तो देखा उनके पीछे चल रहे एक ग्रामीण उनके जूतों पर चढ़ी जोंक को लकड़ी से हटा रहे थे! जोंक की बात आते ही अंदरूनी दहशत शुरू हो गयी क्योंकि मुझे सर-बडियार की 2012 की वह यात्रा याद आ गयी जब मैं कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय गंगनानी की वार्डन सुश्री चन्द्रप्रभा इंदवाण व कस्तूरबा गाँधी आवासीय बालिका विद्यालय गुन्दियाटगाँव (पुरोला) की वार्डन श्रीमती सरोजनी रावत के साथ सर बडियार की छात्राओं के बुलाये पर कालिया नाग मेले में शिरकत करने सर गाँव जा रहा था! तब भी सरू ताल से निकलने वाली केदारगाड़ के पार जोंके हमारे पैंरों के अंदर घुसकर रक्तपिचासिनी बन गयी थी! इनकी काटने से अजीब सी लौल्याट (खुजली) होती है, और जब यह खून चूसती हैं तब आपको जरा भी अंदाज नहीं होता! सुरेन्द्र देवजानी बोले- पहले हमारे इलाके में यह जोंक वोंक कुछ नहीं होती थी लेकिन जाने पिछने दो तीन सालों से ये कैसे दिख रही हैं! खैर इस दौरान दो तीन जोंक मुझे व पांच एक जोंक रतन सिंह असवाल को भी लगी लेकिन खेडमी के ग्रामीण बेहद चौकसी के साथ उन्हें हमारे जूतों पर चढ़ते ही हटा देते थे!
करीब ढाई से तीन किमी. की दम फुलाऊ चढ़ाई चढ़ते हुए जैसे ही हम खेडमी गाँव की छानियों के पास पहुंचे बारिश ने हमारा स्वागत सत्कार किया! यहाँ सुरेन्द्र देवजानी के आवास में थोड़ी देर सुस्ताने के लिए बैठे! आस-पास सेबों के बागीचे देख चेहरे पर रंगत आ गयी! वास्तव में बहुत मेहनती लोग हैं यहाँ के..! यहाँ जब मैंने जूता उतारा तो देखा एक जोंक जुराब के अंदर घुसकर खून पीकर मोटी हो गयी है! मुझे बिना हड्डी वाले कीड़े व जोंक बिलकुल पसंद नहीं हैं, किसी ने उसे खींचकर मुझसे दूर किया तो वहां से खून रिसने लगा! करीब आधा घंटा यहाँ सुस्ताने के बाद हम खेडमी गाँव की ओर बढ़ चले! यहाँ से खेडमी गाँव दिखा तो जान में जान आई लेकिन जितना हम चलते वह और आगे बढ़ जाता! आखिर हम गाँव के नीचे एक बड़े से मैदाननुमा खेत में पहुँच चुके थे! यहाँ से अनिल भी हमारे साथ हो लिए थे! मैं ट्रेकिंग के समय एक बात का बिशेष ध्यान रखता हूँ कि अपनी मंद-मंद चाल से चलूँ इसलिए बिना थकान के मैं इस स्थान पर कुछ लोगों के साथ देरी से पहुंचा तो पाया रतन सिंह असवाल यहाँ से लाइव कर रहे हैं! लाइव खत्म होने के बाद वह अनिल पंवार के साथ सेब के बागानों का सर्वेक्षण करने जगह जगह निकल जाते और हम अनिल पंवार के घर की ओर निरंतरता के साथ बढ़ते रहते!
क्षेत्रीय सामाजिक कार्यकर्ता अनिल पंवार के आवास में हमारे आतिथ्य सम्मान की तैयारियां थी, जिसे उनके चाचा दफ्तर सिंह व बहनें बेहद कुशलता से निभा रही थी! रात्री प्रहर जब भेड़ और भेडालों पर चर्चा होनी शुरू हुई तब भला ऐसे कैसे हो सकता था कि हम लामण व छोड़े नहीं सुनते! सामाजिक क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने वाले इस क्षेत्र के चंद युवाओं में एक सुरेन्द्र देवजानी ने जब भेडालों से जुड़े लामण छोड़े सुनाने शुरू किये तो आकाश भी झूमने लगा! बाहर झमाझम बारिश और अंदर गीत रागों की झमाझम ने सफर की सारी थकान ही उतार दी!
मैं भला इतनी दूर आऊँ और क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासतों पर बात न करूँ यहाँ कहाँ सम्भव हो सकता था! मैंने भेड़ पालकों की जिन्दगी से जुड़े अहम सवालों को ढाल बनाते हुए सुरेन्द्र देवजानी, अनिल पंवार व दफ्तर सिंह पंवार जी से प्रश्न करने शुरू कर दिए! दफ्तर सिंह पंवार का कहना था कि यह पेशा जरा टेड़ा है क्योंकि इसके लिए आपको सन्यासी बनना पड़ता है लेकिन जिसने इसका शुरूआती सफर तय कर लिया तो समझो तर गया! मैंने पूछा- लोगों के पास पहले ज्यादा भेड़ बकरियां थी कि अब हैं? उन्होंने कहा- मेरे हिसाब से मेरे गाँव में अब ज्यादा भेड़ बकरियां हैं क्योंकि हमने शुरुआत 100 डेढ़ सौर से शुरू की थी आज वही बढ़कर लगभग 400-500 हो गयी!
मैंने सुरेन्द्र देवजानी से प्रश्न किया कि क्या कभी आप भेड़-बकरियों के साथ गए या अनिल गए? सुरेन्द्र बोले- नहीं, लेकिन दफ्तर सिंह जी तो हमेशा ही उन्हीं के साथ जाते हैं इन्हें पूरा रूट पता है कि उन्हें किन-किन चुगान स्थलों से किन-किन मुसीबतों के साथ आगे बढना पड़ता है!
स्वाभाविक सी बात हुई दफ्तर सिंह पंवार खाना पीना निबटाकर महफ़िल में आ बैठे! फिर क्या था सुरेन्द्र ने लामण गाने शुरू किये और दफ्तर सिंह पंवार उन्हें सुर देते रहे! अजब-गजब का आतिथ्य था! हाँ…हैरत इस बात की थी कि इतने दुर्गम क्षेत्र में अनिल पंवार हमारे लिए जॉनी वाल्कर की स्कॉच की ब्यवस्था करते नहीं भूले! वहीँ दफ्तर सिंह यानि अनिल के चाचा जी ने आतिथ्य सत्कार हेतु आज पुराना मांस (बकरे का ऐसा मांस जो लगभग छ: माह से अधिक पुराना हो) बनवाया हुआ था!
महफ़िल की रंगत के बीच मैंने आखिरकार दफ्तर सिंह पंवार जी से पूछ ही लिया कि आप कितने दिन भेड़ बकरियों के साथ थाच, थात, बुग्याल, धार, घाटी व हिमशिखरों में व्यतीत करते हैं व कहाँ से कहाँ तक की यात्रा करते हैं? उन्होंने मुस्कराते हुए जबाब दिया कि आप मत ही पूछो तो अच्छा! हम आपके देहरादून से लेकर बाली पास तक का सफर करते हैं, जिसमें तीन महीने तो लगातार भेड़ों के साथ जंगल में गुजारने ही पड़ते हैं! कई बार रसद नहीं पहुँच पाती या ज्यादा बर्फवारी या बारिश हो जाती है तब बड़ा मुश्किल हो जाता है क्योंकि तब हमें भेड़ बकरियों के साथ लगातार चलना पड़ता है ताकि सुरक्षित स्थान पर पहुंचा जा सके! ऐसे में न लकडियाँ सूखी मिलती हैं न खाना ही नसीब हो पाता है! अब ये देख लीजिये कि हमारे गाँव की ही कम से कम दो हजार के आस पास भेड़ बकरियां हैं जिन्हें हम गाँव से केदारकांठा, लामा थाच, मोटाथाच, ज्ञानखड्ड, तालुका, दोउसू थाच, अटऊ बण, जीतू का चौंरा, भुजलौग बण, सेटी, रेउसाडा खड्ड पार ठाण्गा या नजदीक के बाली पास तो दूसरी ओर थ्योली-दामीण (देबासु/द्योबासा) होकर रुपिन नदी के उद्गम तक ले जाते हैं!
काफी देरी से चुप बैठे सुरेन्द्र देवजानी बताते हैं किभेड़ पालक जिन बिषम परिस्थितियों में अपना जीवन यापन कर रहे हैं उसके लिए उन्हें प्रोत्साहन स्वरूप ऐसे प्रशस्तिपत्र मिलने चाहिए ताकि वे प्रदेश के अंदर जहाँ भी भेड़ बकरियां चुगाएं उन्हें सिर्फ वन-विभाग को ही थोड़ा बहुत टैक्स चुकाना पड़े! लेकिन यहाँ तो अंधेर नगरी वाली बात है क्योंकि जहाँ भी भेडाल अपनी भेड़ बकरियां लेकर जाते हैं वहां हर ग्राम सभा या ग्राम पंचायत को उन्हें प्रत्येक जानवर के हिसाब से 10 या 20 रूपये चुगान के रूप में देना पड़ता है! सुरेन्द्र कहते हैं सरकार भेड़ पालकों से कितने भी वादे करे, सच्चाई छुपती नहीं है! यहां पर सरकार हो या प्रशासन भैंस के आगे बीन बजाने वाली बात सच साबित होती है।
भेड़ पालकों के तीन माह आषाढ़, सावन, भादों (जुलाई, अगस्त, सितम्बर) मन झकझोर देने वाले होते हैं क्योंकि इन महीनों में उन्हें बरसात, जोंक, बरसाती गाड़-गदेरों, व बड़ी नदियों के कहर से जूझना पड़ता है! न समय पर खाना खा पाते हैं न सो पाते हैं! उच्च हिमालयी स्थलों पर तो बारिश की जगह इन महीनों में भी अतिवृष्टि के रूप में बर्फ पड़नी शुरू हो जाती है! इन तीन महीनों में जहां पर भोजन बनाने के लिए भी लकड़ी भी दूर-दूर तक नही दिखती है, तब गुजर के लिए भेडाल अपनी राशन के साथ लकड़ी अपने कट्टों व झोलों में भरकर कई दूरी तक ले चलते हैं! जिसको कई दिनों तक उपयोग में लाया जा सके!
सुरेन्द्र देवजानी बोलते हैं – सर, यह इन वादियों घाटियों की आवोहवा व भेडालों के देवता भृंग व मातृकाओं (परियों) की ही कृपा दृष्टि है कि ये भेडाल अक्सर इस हिमालयी क्षेत्र में निरोग रहते हैं लेकिन कभी भूल से किसी की गलती वश कोई बीमार पड़ गया तो इनका फर्स्ट ऐड भी इनकी निजी पूजाओं व मन्त्र तंत्र शक्ति से ही ठीक हो जाता है! यह आप माने न माने लेकिन पर्वत क्षेत्र में भेडालों के देवता भृंग कभी इन्हें नुक्सान नहीं पहुँचने देते।
इनके खाद रसद की कमी पूरा करने के लिए अक्सर इनके सहयोगी अपनी अदला बदली कर लेते हैं! जो गाँव से राशन पानी लेकर आते हैं वे कुछ दिन भेड़- बकरियों के साथ रुक जाते हैं लेकिन ग्लेशियरों से पानी निकालना बड़ी टेड़ी खीर है! वैसे ही रुपिन या सुपिन पार नदी तट के आर पार राशन भेड़ बकरियां पहुंचाना जान जोखिम का काम होता है जिसे नित्य दिनचर्या में ये लोग करते हैं! अक्सर कमर में बंदी ऊनि रस्सियाँ इसमें इनका सहयोग करती हैं जिसके माध्यम से ये लोग ग्लेशियरों के हाड कंपाऊं पानी को तैरते हुए पार करते हैं!
यह सच भी है कि भेडालों को आये दिन जिन परिस्थियों का सामना इन तीन महीनों में करना पड़ता है वे काफी विकट होते हैं! सरकार अगर कुछ महत्वपूर्ण जगहों में पुल व कुछ जगहों में रास्तों को ठीक कर दे तब भेड़ पालकों को काफी सहूलियत हो सकती है! भेड़ पालक बिनक सिंह पंवार का कहना है कि निम्न 20 जंगलों में भेड़ पालक अपने-अपने दिए हुए जंगलों में चरान, चुगान करते हैं जिसकी एवज में गांववासियों को पैसे दिए जाते है? प्रत्येक भेड़, बकरी का 10-20 रुपये के हिसाब से सम्बन्धित निकट गांव वासियों को चरान-चूंगान का पैसा देना पड़ता है।
सुरेन्द्र देवजानी बताते हैं कि उनके छोटे भाई खजान ने उन्हें इस सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी दी है! खजान के कहे अनुसार ही इन्होने यह जानकारी हमें दी है! खजान देवजानी, दपत्तर सिंह पंवार, राजेन्द्र सिंह, बाबूराम सिंह, मण्डल सिंह, विपिन सिंह, शिवराम सिंह सहित अनेकों भेड़ पालकों (भेडालों) ने और भी कई विभिन्न रूट व थाच, थात, बुग्यालों के बारे में जानकारी दी है जहाँ ये लोग अपनी भेड़-बकरियां चुगाते हैं इनमें मुख्यतः अटव, जीतू का चौरा, बुजलाऊँग, सेती, तयरेवसुडो, विशिकह, देववासिक, ऊपरीथांगों, तयथागों, छोनी, बनों, गिगोंन, मोलकोटा, बन्या, रापू, चापू, रास, दाड़, टाटको, धिनोढक, कटकह (रूपिन नदी का उद्गम), गीठ, सीमा, चाइना, चारसिंगा इत्यादि प्रमुख हैं।