Wednesday, December 18, 2024
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मृतात्माओं से जुड़े लोकविश्वास और प्राचीन परम्पराएं

मृतात्माओं से जुड़े लोकविश्वास और प्राचीन परम्पराएं
(मनोज इष्टवाल)
“यस्यादृष्टो नैव भूमण्डलांशो यस्या दासो विद्यते न क्षितीशः ।
यस्याज्ञातं नैव शास्त्रं किमन्यै यस्याकारः सा पराशक्तिरेव ।।”
अर्थात :-कोई भी ऐसा भूखण्ड नहीं पराशक्ति जहां न पूजी जाती हो। कोई ऐसा शासक नहीं, जो पराशक्ति की शरण न मांगता हो। तथा कोई ऐसा शास्त्र नहीं, जिसमें पराशक्ति का गुण-गान न हो।
भारत का हर क्षेत्र अपने अद्भुत लोकविश्वासों और परम्पराओं के लिए प्रसिद्ध है। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में मृतात्माओं और उनके प्रभाव से जुड़े अनेक किस्से-कहानियां प्रचलित रही हैं। इन विश्वासों के माध्यम से लोग न केवल अदृश्य शक्तियों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करते थे, बल्कि जीवन और मृत्यु के रहस्यों को समझने का भी प्रयास करते थे। पौराणिक काल से ही यहां यह धारणा रही है कि जिन व्यक्तियों की मृत्यु अकाल, आत्महत्या, दुर्घटना, या गतिकर्म के अभाव में हुई हो, वे मृतात्माएं अपने परिवेश में भटकती रहती हैं। ऐसी आत्माएं अंधेरी रातों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं और कभी-कभी अपने परिवारजनों या उनके वंशजों को दंडित करने या अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए संपर्क करती हैं। इन आत्माओं को तृप्त करने के लिए विशेष धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं।
 प्रेतात्माओं के प्रकार:-
1. ट्वाला/टोला 

यह विश्वास था कि अगतिक बच्चों, किशोरों और अविवाहित युवाओं की आत्माएं “ट्वाल” या “टोला” के रूप में शमसान और निर्जन स्थानों में भटकती हैं। ये आत्माएं सिर पर आग लिए मशालों की तरह दिखाई देती थीं और रात के पहले या अंतिम प्रहर में देखी जाती थीं। उत्तराखंड की हिन्दू धर्म संस्कृति में ट्वाला उन्हें कहा जाता है जिन अवयस्क बच्चों को शमशान घाट में न ले जाकर गाँव समाज द्वारा निहित एक स्थान में दफनाया जाता था इनमें वे वयस्क व्यक्ति भी शामिल होते थे जो किसी छूत की बिमारी यानि हैजा, टीबी, कोलरा, कोढ इत्यादि से मरते थे। कहा जाता है कि बिना काट-पितरडू (कर्मकाण्ड) के दफनाये गए इन सब मृत आत्माओं की आत्माएं अक्सर रात्री के प्रथम पहर या अंतिम पहर में भटकती रहती थी। उत्तराखंड के गाँवों में निवास करने वाला चाहे वह व्यक्ति अब शहरों में रहता हो व 50 की उम्र पार कर चुका हो, ने भी जिन्दगी में एक न एक बार इनकी बारात जाती देखि जरुर होगी। इनकी बारात आग के शोलों के रूप अपने दफनायें हुए स्थान से एक के बाद एक उभरती थी व फिर उसके बाद काफी बड़ी होकर एकाएक शांत हो जाया करती थी। यह गर्मियों के दिनों में अक्सर तब दिखाई देती थी जब आप चंद्रमा के प्रकाश में परिवार सहित बाहर बैठकर मसूर दाल या कुर्फली व मटर की फलियाँ ठूंग रहे होते थे या फिर आँगन में ढुंगला पका रहे होते थे। हमने बचपन में इसे खूब देखा। हमारे गाँव के सामने के गाँव पाली के बायीं ओर छौंकी का भ्याल नामक स्थान के पास उस गाँव के बच्चों को दफन करने का स्थान था, जहाँ अक्सर रात्री पहर में यह सब दिखाई देता था। इनको हमने दूर के गाँव में बज रहे ढोल की थाप पर नाचते हुए भी देखा है। भले ही इनकी काया नहीं दिखती थी लेकिन इनकी उपस्थिति के रूप में आग के शोले या मशालें अकसर दिखने को मिलती थी। अब इनकी उपस्थिति दिखाई देनी दुर्लभ है क्योंकि आधुनिक युग में बीमारियों के इलाज व अच्छे खान पान के कारण बच्चे/अवयस्क व रोगग्रस्त मरने वालों की संख्या नामात्र है।

2. बाण और बयाल
बाण प्रेतों की टोली थी जो दोपहर या आधी रात के बाद दिखती थी। इनका विशेष प्रभाव भाद्रपद और अश्विन महीनों में माना जाता था। यह कहा जाता था कि ये बरछीनुमा हथियारों के साथ निकलती थीं और उनके मार्ग में आने वाले व्यक्ति को मारकर अपनी टोली में शामिल कर लेती थीं। बयाल, इसी प्रकार की टोली थी, जिसे कुछ स्थानों पर कुलदेवताओं का समूह भी माना गया, लेकिन अनिष्टकारी समझा जाता था। बाण और बयाल में इतना अंतर है कि बावनी बयाल को देवताओं के आगमन का समय माना जाता है जो अक्सर अलसुबह 02 बजे से पौने चार बजे के समय पर निहित होती है या फिर बयाल तब फैलती है जब गाँव में कोई देवपूजा चल रही हो और कुछ अपशगुन हो गया हो। हमने बयाल फैलते समय घर, आँगन, गाय, माई, बाघ-बकरी सबको नाचते देखा है। इसे रोकने में हमारे गाँव की कुलदेवी को प्रकट होना पड़ता था जबकि बयाल फैलने की धाद (आकाशवाणी) हमारी भूमि का भुम्याल कालीनाथ भैरव करते थे। वहीँ बाण को प्रेतों में शामिल माना जाता है ये वह मृतआत्माएं होती हैं जो कभी सैनिक हुआ करते थे व अपने दुश्मनों से युद्ध करते हुए अल्पायु या बिना दाहसंस्कार के भटकती रहती हैं। ये कहीं हिन्दू मृत आत्माएं होती हैं तो कहीं मुस्लिम या मुगल होते हैं इनकी जागर में कुछ ऐसा सुनने को मिलता है :-
कौन खड़ा है, भाई कौन खड़ा है ? 
बरछी वाला ज्वान देखो कौन खड़ा है?
नजीबाबाद बाजार में कौन खड़ा है?

तीन टांग घोड़ी संग कौन खड़ा है?

पठान खड़ा है, मुसलमान खड़ा है।वहीँ बयाल रोकने के लिए दूध,तिल, जौ व गौंत का मिलान किया जाता है जिसे दुबला यानि दूब के पौधे से अभिमंत्रित किया जा है कुछ इस तरह :-

जै जस दे धरती माता।
जै जस दे कुरम देवता।
जै जस दे भूमि को भुम्याल।
जै जस दे गंगा की सैंणी धार।
जै जस दे पंचनाम देवता। 
जै जस दे मायों की जमात ।
जौ ल्यौ पंचनाम देवतौं,
जौ ल्यौ पंचमी का साल। 
जौ ल्यौ हरि, राम, शिव, 
जौ ल्यौ मोरी का नारैणा 
जौ ल्यौ बार मैना, 
जौ ल्यौ पंचनाम देवतौं।’
3. आंछरी/परियां/मातृदेवी 
अथर्ववेद में पृथ्वी देवी (भूमि देवी) की प्रख्याति में एक लम्बा अति मनोहर सूक्त है। ऋग्वेद में वागाम्भृणी सूक्त १० ।१२५ से यह भी विदित होता है कि ऋग्वेद के युग तक आर्यजनों की यह धारणा हो चुकी थी कि समस्त देवों में जो शक्ति हैं, वह उन्हें महाशक्ति वाग्देवी से ही प्राप्त हुई है।
वेदों में मातृदे‌वियों, इन्द्राणी आदि मात्रिकाओं, जलदेवियों, सावित्री आदि देवियों के साथ ही महाशक्ति की भी स्तुतियाँ है। उत्तरवैदिक साहित्य में देवियों की विस्तृत प्रख्याति है। इसका वर्णन हम आगे दरेंगे।

सिन्धु सभ्यता के विकास में जिन नृशाखाओं का योगदान था, में आर्य नृशाखा सहित उन सभी में मातृदेवी के प्रति श्रद्धा की भावना थी। सिन्धु सभ्यता में मातृदेवी की उपासना के प्रमाण तो मिले हैं, पर सिन्धु-लिपि के अब तक न पढ़े जा सकने के कारण यह विदित नहीं है कि सिन्धु में पूजित मातृदेवियों के क्या नाम थे एवं उनकी किस प्रकार की प्रख्याति थी। उनके साथ जो आख्यान जुड़े रहे होंगे, उनका भी पता नहीं चला है सिन्धु-सभ्यता में मिली मुद्राओं पर छोटे-छोटे लेख हैं जो शायद देवी-देवताओं के नाम आदि बता सकें। वहां कोई विस्तृत लेख न मिलने से उनसे संबन्धित आख्यानों की प्राप्ति की आशा कम ही है।

वेदों की छः मातृदेवियों में से एक रात्री देवी भी है। ऋग्वेद में रात्रि देवी की प्रख्याति प्रायः उषासानक्ता वाले सूक्तों में मिलती है। जिनमें रात्रि देवी एवं उसकी बहिन उषा देवी की प्रख्याति है। उषादेवी की पूजा अब विशेष प्रचलित नहीं है। अब प्रातः मध्यान्ह और सायंकाल की अधिष्टात्री देवी गायत्री के तीन रूपों की पूजा होती है। ऋग्वेद में रात्रि देवी के तथा उषासानक्ता के निम्न सूक्त-मंत्र हैं-१/३५/७, १/१३/१ अग्नि, मित्र, वरुण, सविता के साथ रात्रि, १/११३/१ उषोरात्री, १/१४२/७ उषासानक्ते, १/१८८/६ उषासानक्ते, २/३/६ उषासानक्ते, ३/४/६ उषासानक्ता, ५/५/६ उषासानक्ता, ७/२/६ उषासानक्ते, ९/५/७ उषासानक्ते, १०/७०/६ उषासानक्ते, १०/११०/६ उषासानक्ते, १०/१२७ सम्पूर्ण सूक्त रात्रिः।
इस प्रकार ऋग्वेद में रात्रिदेवी का केवल एक बार अकेले सारे सूक्त में, केवल एक बार अग्नि आदि के साथ तथा बारह बार उषा के साथ आवाहन हुआ है।
“एषा ऽऽ त्मशक्तिः ।
एषा विश्वमोहिनी।
एषा एकादश रुद्राः।
ऐषा ब्रह्मविष्णुरुदुस्वरुपिणी।
रैषा यानुधानां असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः ॥”
ये मातृदेवी ही परमात्मा की शक्ति हैं। वही विश्वमोहिनी हैं। वही एकादशारुद्र हैं। वही ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र रूप में हैं तथा यातुधान, असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्धों के रूप में भी वही मातृदेवी है।

इन्हीं मातृदेवियों में शामिल आँछरी, परी, मातृका, ऐडी, अहेड़ी  इत्यादि का लोक संसार बहुत व्याप्त है। लोकमान्यता है कि अविवाहित-युवतियां अकाल मृत्यु के बाद “आंछरी” बन जाती थीं। ये पर्वतीय चोटियों और नदी-नालों में लाल वस्त्र पहने विचरण करती थीं और युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करती थीं। इनसे बचने के लिए लोग लाल डोरी पहनते थे। आंछरी व परियों का संसार बहुत बड़ा है। इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है, ये ताल, पोखर, बुग्याल व हिमशिखरों में विचरण करने वाली होती हैं। इनमें कुछ रक्त पिचास/पिचासनियाँ भी होती हैं, जिन्हें दांगुडिया, डाग व डागिन भी कहा जाता है। इनमें जरुरी नहीं है कि सिर्फ अविवाहित मृत आत्माएं ही हों क्योंकि इनका अस्तित्व वेद, पुराण में सतयुग व द्वापर् काल में सबसे ज्यादा दिखने को मिला। भगवान बिष्णु के कृष्ण अवतार व शिब जी के साथ इनकी जागरें गाई जाती हैं। ये कहीं जल छाया के रूप में तो कहीं थल छाया के रूप में पूजी जाती हैं। इनकी पूजा में डोली, गुड्डी, बकरी, साड़ी व श्रृंगार इत्यादि चढ़ाई जाती हैं। इनका आवाहन कुछ इस तरीके से होता है :-

“सुवा पंखी त्वे साड़ी द्योलो
नौरंगी त्वैकू चोली द्योलू
वैणी कुसी त्वै दैजू द्योलू
न्यूतीक बुलौलू पूजीक पठौलू
गिंली पिठाई न रंग्योलू
औंळा सारी त्वै डोला घोलू”
4. गड़देवी/हन्त्या

गड़देवी वे प्रेतात्माएं थीं, जिनकी मृत्यु दुर्घटना, आत्महत्या, या हिंसा के कारण हुई हो। ये आत्माएं अपने मृत्युस्थल के पास भटकती थीं और वहां से गुजरने वालों को परेशान करती थीं। इनसे मुक्ति के लिए विशेष धार्मिक विधियों का सहारा लिया जाता था। ये कभी रुकमनी के रूप में भी प्रकट होती हैं तो कभी हन्त्या के रूप में इनकी पूजा दी जाती है। गाँव में अगर इनकी प्रेतात्मा किसी पर चिपकती है तो कुलदेवता या भुम्याल का पश्वा इन्हें कंडाली अर्थात्त बिच्छु घास से भगाता है। कुछ प्रेतात्मा तो गुड़ रोटी, हरी सब्जी रोटी, नमक रोटी से मान जाती हैं तो कुछ दूध फूल के स्नान से कुलधात्री / हन्त्या के नाम से हर बर्ष अपनी पूजा मांगती हैं। कुछ ऐसी भी आत्माएं होती हैं जो विवाह के बाद अभाव में आत्महत्या करती हैं व बाद में प्रेतआत्मा बन परिवार को दुखी करती हैं जिन्हें साजो श्रृंगार दिया जाता है व ये बांकदार मुर्गा व अपनी डोली गुड्डी मांगकर शांत हो जाया करती हैं। इनके पश्वा को नचाने के लिए डांगरिया या जागरिया/धामी को बुलाया जाता है जो इनका आवाहन कुछ इस तरह से करता है :-

तेरी छोड़ो च बोई, चाखुडी सी टोली
तेरी होलो बोई जसि माता सी पराणी
होलो बोई परांणी जति पापड़ सि पाणी
कनो रई होलो बोई तेरो ऊ रीटदो पराण
कन रई होलो बोई तोई ऊ काळ छैंपदो
जसी होली बोई तेरी धूराणी जिठाणी
तिन बोली होलो ब्वै मी हर्ष देखलू
कै काळ न डाळी होल्वो बौंजोड़ी मा बिछोड़
यखी बैठ्यूच ब्वे तेरा सिर को छतर
देखी भाली जादूं अपणीं यी गैरी भीतरी
देखी जा दौं बोई यीं रौंत्याळी गंवाड़ी
5. मसाण/मसान/मुसलमान/पठान
ऐसा माना जाता रहा है कि यह प्रेतात्मायें श्मशान, संगम, कब्रिस्तान और घने जंगलों में वास करती हैं। इसके बारे में मान्यता थी कि यह विशेष रूप से युवतियों को अपनी चपेट में लेती थी। यदि समय पर किसी अनुभवी डंगरिये की सहायता न मिले तो यह आत्मा पीड़ित को अपने साथ ले जाती थी। हमने अपनी युवावस्था में कई ऐसी प्रेत पश्वा को डांगरिये, जागरिया व धामी की जागरों में नाचते खेलते देखा है व इन्हे पान का बीड़ा, जली सिगरेट, बीडी व चौमुखी चिराग व इनके घोड़ों के दिए दाना के रूप में गेंहूँ चढाते देखा है। ये जिस पर प्रसन्न होते हैं बदले में बहुत कुछ दे भी जाते हैं। इनकी पूजा विधि भी अजब-गजब होती है। इन्हें प्रसन्न करने या आमंत्रित करने के लिए डंगरिये/धामी कुछ इस तरह का आवाहन करते हैं :-
सल्लाम वालेकुम, सल्लाम आलेकुम
त्यारा वे गौड़ गाजिना, सल्लाम वालेकुम
म्यारा मियां रतना गाज़ी, सल्लाम वालेकुम
तेरी वो बीवी फातिमा, सल्लाम वालेकुम
इनमें मसाण व खबीश को बेहद डरावना और खतरनाक भूत माना जाता था। यह घने जंगलों और अंधेरी गुफाओं में निवास करता था। यह चरवाहों की आवाज में बात करके लोगों को भ्रमित करता और अपनी भयानक रूपाकृति से उन्हें भयभीत करता था। इनका आवाहन भी कुछ इसी तरह किया जाता है व उसका निवारण शांत किया जाता है :-
“कौन देश जायी जटा फिकराई’,
सौमण लुवा सांगुल कसि की पंग मुड़ी बंधाऊं
आऊ रे मेरा मैमन्द वीर,
वेग मन्त्र वेग ताऊ गांजतो आऊ गांजतो जाऊ
चढ़तो आऊ पढ़तो जा किलकतो आऊ किलकतो जाऊ
इस पिण्डा की सुपति विथा की सोत्र मार देखद आंखी मार
बोलादो विथा को जिभ्या मार, कणादी, विथा की हाथ मार
चलदी विथा का पग मार, मार मार मैमन्दावीर मार
बाटा का छांदा बाणा, अवाट का ओंजा का बाण उखेल
धरती आगास फेरन्ता चले, अयाणा चले सपना चले
मार मार करन्तो वीर मैंमन्दा, चले वीर मैंमन्दा”
छल और उनका निवारण
स्थानीय बोली में प्रेतात्माओं को “छ्यौ” या “छल” कहा जाता था। इनसे बचने के लिए डंगरियों द्वारा विशेष “बभूति” लगाई जाती थी। शक्तिशाली छल जैसे मसाण के लिए खिचड़ी या पशु बलि चढ़ाकर पूजा की जाती थी। अगतिक प्रेतात्माओं को तृप्त करने के लिए उनकी इच्छानुसार धार्मिक क्रियाएं संपन्न की जाती थीं। दाग, छल, कपट, रोग, दोष इत्यादि का निवारण करने के लिए न सिर्फ डांगरिये बल्कि पंडित व अन्य तंत्र मन्त्र जानकार भी इस तरह मंत्र अभिमंत्रित करते हैं :-
“ओं नमो बभूत माता बभूत पिता बभूत तीन लोक तारणी,
ओं नमो बभूत माता बभूत पिता सर्व दोष की निवारणी
ईश्वर औंणी गोणाली छांणी अनन्त सिंधौं ने मस्तक चढ़वाणी
चढ़े बभूत निपड़े हाऊ रच्छा करे आतम विस्वामीगुरु गोरखनाथ
जरे-जरे धरे तरी फले धरती माता गायत्री चरे गायत्री माता गोबर करे
सुषे-मुषे अग्नि मुख जले स्या बभूत नौं नाथपुर्षु चढ़े या बभूत हँसदा कमलू कू चढ़े
तिरा तेरा बभूत तीन लोक कू चढ़े चतुर्थी बभूत चार वेद कू चढ़े
पंच में बभूत पंच दैवकू चढ़े हंसन देषे तुमारे नांऊ आप गुरु दाता तारो..
प्रस्तुत मंत्रोचार में रोग ग्रसित व्यक्ति के उपचार के लिए विभिन्न देवों की मनौती की गई है। गीत इस प्रकार है:-
रच्छा करी बटुक नाथ भैंरो’ चौड़िया नारसिंग,
वीर नैरतिया नारसिंग ढ़ौंढ़िया नारसिंग,
चौरंगी नारसिंग फोर मंत्र ईश्वरो वाच।
ओम नमो आदेश, गुरु को आदेश
प्रथम सुमिरो नादउद भैंरों
द्वितीय सुमिरोब्रह्मा भैरों
तृतीय सुमिरो मछेन्द्रनाथ भैरों
चतुर्थ समिरो चौरंगीनाथ
मुन्ड को मुंडारो उखेल’ गति को जुवर उखेल,
पीठी को सलको उखेल, बार विथा छत्तीस बलई तू उखेल रे बाबा”
भूत-प्रेत के प्रभाव की विशेष अवस्था में जब कि ग्रसित प्रलाप करने लगता है अथवा बेहोश हो जाता है, तब कुछ इस प्रकार  मनौती की जाती है। मनौती का एक गीत प्रस्तुत है:-
‘ॐ नमो रे बाबा गुरु को आदेश,
जल मसांण जल मसांण को भयो
थल मसांण थल मसांण को भयो
वायु मसांण वायु मसांण को भयो
वर्ण मसांण वर्ण मसांण को भयो
बह तरि मसांण बहतरि मसांण को भयो
चौड़िया मसांण चौड़िया मसांण को भयो सुनवाई मसांण……”
(तन्त्र-मन्त्रों द्वारा एक दूसरे का अनिष्ट करने की प्रथा मिलती है। प्रस्तुत गीत में ऐसे ही अनिष्टकारी प्रभाव से बचने के लिए बलिष्ट मैमर वीर का आह्वान किया गया है। बहरहाल इस सब का वृत्तांत बहुत बड़ा है जिस पर लेख लिखने के लिए चार वेद, नौ पुराण के साथ साथ ढोल सागर व कई तंत्र साधकों व लेखकों की पुस्तकों के संदर्भ तलाशने पड़े)
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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