फ़िल्म समीक्षा….शम्भू प्रसाद की “पोथली” और अंकिता भंडारी की माँ।
(मनोज इष्टवाल)
बमुश्किल 10 या 15 मिनट गुजरे होंगे फ़िल्म शुरू हुए। दृश्य पटल देख मन द्रवित पहले ही था कि अचानक लगा जैसे पिक्चर हाल की पिछली दिवार सुबक रही हो, कानों को विश्वास नहीं हुआ तो पाया वह आवाज सुबकाई छोड़ रुलाई में बदल चुकी थी। हाल में अंधेरा था फिर भी मुझे पौड़ी का पत्रकार मित्र आशुतोष नेगी किसी को खड़े होकर ढाँढस देता दिखाई दिया। होंठ बुदबुदाए अरे ये तो रवि ममगाई की धर्मपत्नी हैं जिन्होंने इस फ़िल्म की पटकथा लिखी। आँखें मसली तो देखा वो स्वयं उनकी बगल में बैठी दुबली पतली काया की एक महिला को ढाँढस बंधा रही थी। मैं दो रो आगे बैठा था इसलिए आसानी से पहचान गया कि यह शंभू प्रसाद की “पोथली” नहीं बल्कि अंकिता भंडारी की माँ सोनी देवी हैं व उनकी बगल में शंभू प्रसाद नहीं बल्कि अंकिता भंडारी के पिता वीरेंद्र भंडारी बैठे हैं।
26 जून 2023 को अचानक मन हुआ कि रवि कब से लगे हुए हैं कि एक बार मैं फ़िल्म देखने आऊं फिर गजेंद्र रमोला का फोन भी आया कि इष्टवाल जी आपको पोथली अवश्य देखनी चाहिए। बस मन हुआ और जा पहुंचा पीवीआर centrio मॉल “पोथली” देखने..। हाल में तब सीटें पूरी नहीं भरी थी व पिक्चर शुरू होने में थोड़ा वक्त था। मेरे बिल्कुल सामने के रो में एक महिला आ बैठी शायद वह मुझे पहचानती थी, उन्होंने नमस्कार किया तो मैंने नमस्कार का प्रत्युत्तर नमस्कार में दिया। लेकिन ऊपर लिखें घटनाक्रम से उन्हें भी उत्सुकता जगी और आवाज देकर मुझसे पूछ बैठी – भाई साहब, कौन हैं वो..? और क्यों इतना रो रही हैं। मैं बोला – शायद अंकिता भंडारी की माँ हैं। अब तक मैं आवाज देनी वाली महिला को पहचान चुका था कि वह सोनिया आनंद हैं, एक अच्छी गायिका, समाज सेविका व कांग्रेसी नेत्री..।
सच कहूं तो मैं जब भी गढ़वाली फ़िल्म देखने जाता हूँ उसमें कमियाँ ढूंढकर सुधार की गुंजाइश तलाशता हूँ ताकि कम बजट में आने वाले समय में मैं अगर फ़िल्म बनाऊं तो उन बातों को नजरअंदाज न करूँ।
यह मेरे लिए अचंभित कर देने वाली बात थी कि इस फ़िल्म की पटकथा लेखिका एक महिला थी। सुप्रसिद्ध अभिनेत्री फ़िल्म प्रोडयूसर व डायरेक्टर उर्मि नेगी व सुशीला रावत के बाद मेरी नजर में यह तीसरी महिला थी जिन्होंने गढ़वाली फ़िल्म की पटकथा लिखी है। दृश्य पटल पर प्रोडयूसर डायरेक्टर व अभिनेता के रूप में जब हमजोली मित्र रवि ममगाई का नाम देखा तो आवाक रह गया। होंठ हँसते हुए बुदबुदाए – रवि ने कैमरे के अलावा ये क्या शौक पाल लिया। छोटी कद काठी, दुबली पतली काया… ऊपर से नीचे तक देखो तो कहीं अभिनेता के लक्षण नहीं… फिर भी? मन ही मन बोला – चलो देखते हैं।
2003 की तस्वीर ताजा हो आई जब राजपुर रोड के एक कॉम्प्लेक्स में मेरा सजीला ऑफिस होता था जिसमें हमारे तीन प्रोडक्शन हाउस थे जिनमें चक्रधर फ़िल्म, वीआईपी प्रोडक्शन व इष्टवाल सीरीज… रवि वहीं तब अपनी एक नई नवेली प्रोडक्शन कम्पनी चलाते थे। खैर फ़िल्म शुरू हुई। पता चलता है कि गाँव के पास ही जंगल में तीन शहरियों के क़त्ल हुए हैं, वह भी कुल्हाड़ी और थमाली से बेहद निर्ममता के साथ। और हत्यारा पुलिस के पास स्वयं अपने हत्या में प्रयुक्त हत्यारों के साथ हाजिर होता है जिसका नाम शंभू प्रसाद है।
बेहद साधारण सा दीन हीन दिखने वाला ग्रामीण आखिर शहर के करोड़पति खनन माफिया के एकलौते बेटे का क़त्ल क्यों करता होगा यह अदालत में जिरह का बिषय था। सच कहूं अगर फ़िल्म में सबसे कमजोर पक्ष कोई लगा तो वह अदालत का प्रथम दृट्या सीन की जिरह लगी क्योंकि हम यहाँ हत्या के केस पर आईपीसी की धाराओं का उल्लेख करते हुई नहीं दिखे। खैर शंभू प्रसाद नामक अभिनेता को तब मैं पहचान पाया जब उन्होंने बोलना शुरू किया। ये रवि ममगाई थे, जिन्हें मैं दृश्य पटल में देख रहा था। मर्डर मिस्ट्री पर ध्यान जाते ही मेरी समझ आ गया कि कैसे और क्यों ऐसी पटकथा श्रीमति रूचि ममगाई के हृदय पटल में उभरी होगी।
अब मेरे दिलोदिमाग में अंकिता भंडारी मर्डर केस ने उथल-पुथल मचा दी क्योंकि फ़िल्म की नायिका “पोथली” की शक्ल सूरत बहुत हद तक अंकिता भंडारी से मिलती जुलती दिखाई दे रही थी व खनन माफिया की शक्ल “सो काल्ड विलेन” सी लग रही थी। बहरहाल अंकिता भंडारी मर्डर केस अभी न्यायालय में लंबित है व उस पर लगातार सुनवाई चल रही हैं। अंकिता के माता -पिता भी देहरादून शायद केस के सिलसिले में जल्दी इन्साफ की गुहार को लेकर ही आये थे।
सच कहूं जब रवि ममगाई के अभिनय व डायलॉग डिलीवरी ने मुझे शून्य कर दिया क्योंकि हम जाने क्यों अक्सर अपने नजदीकियों को कमतर आंकते हैं लेकिन वाह रवि आपने सचमुच डायलॉग्स के साथ व अपने किरदार के साथ पूरा -पूरा न्याय किया। इंदु भट्ट प्रधान के अभिनय में जितने समय भी रही उन्होंने एक सुलझी अदाकारा की तरह अपने आप को रखा।
पोथली के किरदार में सचमुच ऐसे ही किरदार की हमें आवश्यकता भी फ़िल्म के हिसाब से होनी चाहिये थी। भोली व मासूम…। शहरी जिंदगी के उतार चढ़ाव से दूर सीधी व सपाट मुख छवि..। पोथली जितनी देर भी दृश्य पटल पर रही वह पहाड़ी हृदयों से जरूर जुडी रही। पूरी फ़िल्म में आँसू भी थे तो राहत के चंद पल भी। एक पहाड़ी गरीब माँ बाप का इकलौती औलाद प्रेम स्नेह भी तो एक प्रधानी व उसके पति का वही लाड दुलार भी….।
यह फ़िल्म गढ़वाली समाज को चेतना देती हुई सी प्रतीत हुई कि अब विलेज़ टूरिज्म व उत्तराखंड में टूरिज्म के बढ़ावे के साथ हमें इस बात का भी ध्यान रखना पड़ेगा कि जो अमीरजादे शहरी संस्कृति में पले बढ़े हुए उनके संस्कारों में (हर एक नहीं) व हमारे पहाड़ के संस्कारों में जमीन आसमान का अंतर है अत : हमें भी कहीं अपनी बेटियों की कीमत अंकिता भंडारी व पोथली की तरह न चुकानी पड़े। व एक साधारण से बाप जो अपने लिए दो जून की रोटी तलाश कर अपनी छोटी सी दुनिया में खुश है उसे ऐसे कदम उठाने को मजबूर न होना पड़े जो शम्भू प्रसाद ने उठाये।
अमित वी कपूर के संगीत से सजे गीतों के साथ सुप्रसिद्ध लोकगायिका मीना राणा व जितेंद्र पंवार ने पूरा इन्साफ किया है।
बहरहाल मैं या आप अगर फ़िल्म के तकनीकी पक्ष को अगर हिंदी फिल्मों की तरह देखकर उसकी समीक्षा लिखेंगे तो यह सचमुच हमारी बेवकूफी होगी क्योंकि ऐसे में हम पोथली जैसी शानदार फ़िल्म व उसकी पटकथा के साथ इन्साफ नहीं कर पाएंगे।
सचमुच यह फ़िल्म भावविभोर इसलिए भी कर गई कि यह दृश्य पटल पर दर्शकों को सुबकाती रही व इंटरबल में अंकिता भंडारी की माँ। मर्द तो जैसे तैसे अपने आप को संभाल ही लेता है लेकिन भावुक महिलाएं अपने आँसू कहाँ रोक पाती हैं। अंकिता भंडारी की माँ को ढाँढस बंधाने इंटरबल में उनके पास पहुंची सोनिया आनंद व दर्शक दीर्घा में बैठी ज्यादात्तर माँओं की आँखों के आँसू भी भला कैसे रुकते। माँ की स्वीली पीड़ तो माँ बनकर ही पता चलता है ना। अब चाहे वह पोथली की माँ हो अंकिता की माँ हो या हम सबकी माँ!
आज लोकार्पण के त्रिभुवन चौहान व पर्वत वाणी के पोल खोल बहुगुणा को भी थैंक्स कहने का मन है। वह इसलिए कि हम में से अधिकत्तर जो पत्रकारिता में डिग्री डिप्लोमा लेकर सिर्फ़ पत्रकार बने लेकिन लोकतंत्र की प्रथम सीढी जन सहभागिता अर्थात सामाजिक व जनसरोकारों की पत्रकारिता को ही भूल गये, हमें त्रिभुवन व बहुगुणा से सीखना चाहिए कि कैसे जन साधारण के हृदय में पत्रकार की छवि गाढ़ी जाती है व किस तरह दूर से ही आम जन मानस कह उठता है.. ये हैं समाज में लोकतंत्र के असली चेहरे। आपको पुन: धन्यवाद और शाबाश…. रवि ममगाई… आपने कर दिखाया।