Saturday, December 21, 2024
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ईगास बग्वाल (बडी दीपावली)! भैलो रे भैलो, खेला रे भैलो, बग्वाल की राति खेला भैलो…।

ग्राउंड जीरो से संजय चौहान!
घरों के आंगन, खेत खलिहानों में भैलो खेलने का अनूठा त्यौहार ईगास बग्वाल आधुनिकता की चकाचौंध में कहीं खो सा गया है..
भैलो रे भैलो, खेला रे भैलो
बग्वाल की राति खेला भैलो
बग्वाल की राति लछमी को बास
जगमग भैलो की हर जगा सुवास
स्वाला पकोड़ों की हुई च रस्याल
सबकु ऐन इनी रंगमती बग्वाल
नाच रे नाचा खेला रे भैलो
अगनी की पूजा, मन करा उजालो
भैलो रे भैलो।

उत्तराखंड के गढवाल मंडल में दीपावली के ठीक ग्यारह दिन बाद एक और दीपावली मनाई जाती है जिसे ईगास बग्वाल कहा जाता है। इस दिन पूर्व की दो बग्वालों की तरह पकवान बनाए जाते हैं, गोवंश को पींडा ( पौस्टिक आहार ) दिया जाता है, बर्त खींची जाती है तथा विशेष रूप से भेलो खेला जाता है।

गढ़वाल में ईगास बग्वाल!

बड़ी बग्वाल की तरह इस दिन भी दिए जलाते हैं, पकवान बनाए जाते हैं। यह ऐसा समय होता है जब पहाड़ धन-धान्य और घी-दूध से परिपूर्ण होता है। बाड़े-सग्वाड़ों में तरह-तरह की सब्जियां होती हैं। इस दिन को घर के कोठारों को नए अनाजों से भरने का शुभ दिन भी माना जाता है। इस अवसर पर नई ठेकी और पर्या के शुभारम्भ की प्रथा भी है। इकास बग्वाल के दिन रक्षा-बन्धन के धागों को हाथ से तोड़कर गाय की पूंछ पर बांधने का भी चलन था। इस अवसर पर गोवंश को पींडा (पौष्टिक आहार) खिलाते, बैलों के सींगों पर तेल लगाने, गले में माला पहनाने उनकी पूजा करते हैं। इस बारे में किंवदन्ती प्रचलित है कि ब्रह्मा ने जब संसार की रचना की तो मनुष्य ने पूछा कि मैं धरती पर कैसे रहूंगा? तो ब्रह्मा ने शेर को बुलाया और हल जोतने को कहा। शेर ने मना कर दिया। इसी प्रकार कई जानवरों पूछा तो सबने मना किया। अंत में बैल तैयार हुआ। तब ब्रह्मा ने बैल को वरदान दिया कि लोग तुझे दावत देंगे, तेरी तेल मालिश होगी और तुझे पूजेंगे।

पींडे के साथ एक पत्ते में हलुवा, पूरी, पकोड़ी भी गोशाला ले जाते हैं। इसे ग्वाल ढिंडी कहा जाता है। जब गाय-बैल पींडा खा लेते हैं तब उनको चराने वाले अथवा गाय-बैलों की सेवा करने वाले बच्चे को पुरस्कार स्वरूप उस ग्वालढिंडी को दिया जाता है।

— बर्त परम्परा!

बग्वाल के अवसर पर गढ़वाल में बर्त खींचने की परम्परा भी है। ईगास बग्वाल के अवसर पर भी बर्त खींचा जाता है। बर्त का अर्थ है मोटी रस्सी। यह बर्त बाबला, बबेड़ू या उलेंडू घास से बनाया जाता है। लोकपरम्पराओं को शास्त्रीय मान्यता देने के लिए उन्हें वैदिक-पौराणिक आख्यानों से जोड़ने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। बर्त खींचने को भी समुद्र मंथन की क्रिया और बर्त को बासुकि नाग से जोड़ा जाता है।

— भैलो खेलने का रिवाज !

ईगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का विशिष्ठ रिवाज है। यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है। इसे दली या छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है।

परम्परानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं। जंगल से दली, छिल्ला, सुरमाड़ी, मालू अथवा दूसरी बेलें, जो कि भैलो को बांधने के काम आती है, इन सभी चीजों को गांव के पंचायती चौक में एकत्र करते हैं। सुरमाड़ी, मालू की बेलां अथवा बाबला, स्येलू से बनी रस्सियों से दली और छिलो को बांध कर भैला बनाया जाता है। जनसमूह सार्वजनिक स्थान या पास के समतल खेतां में एकत्रित होकर ढोल-दमाऊं के साथ नाचते और भैला खेलते हैं। भैलो खेलते हुए अनेक मुद्राएं बनाई जाती हैं, नृत्य किया जाता है और तरह-तरह के करतब दिखाये जाते हैं। इसे भैलो नृत्य कहा जाता है। भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परम्परा भी है। यह सिर्फ हास्य विनोद के लिए किया जाता है। जैसे अगल-बगल या सामने के गांव वालों को रावण की सेना और खुद को राम की सेना मानते हुए चुटकियां ली जाती हैं, कई मनोरंजक तुक बंदियां की जाती हैं। जैसे- फलां गौं वाला रावण कि सेना, हम छना राम की सेना। निकटवर्ती गांवों के लोगों को गीतों के माध्यम से छेड़ा जाता है। नए-नए त्वरित गीत तैयार होते हैं।

— भैलो गीत!

भैलो के कुछ पारम्परिक गीत इस प्रकार है…
सुख करी भैलो, धर्म को द्वारी, भैलो
धर्म की खोली, भैलो जै-जस करी
सूना का संगाड़ भैलो, रूपा को द्वार दे भैलो
खरक दे गौड़ी-भैंस्यों को, भैलो, खोड़ दे बाखर्यों को, भैलो
हर्रों-तर्यों करी, भैलो।

इस अवसर पर कई प्रकार की लोककलाओं की प्रस्तुतियां भी होती हैं। क्षेत्रों और गांवों के अनुसार इसमें विविधता होती है। सामान्य रूप से लोकनृत्य, मंडाण, चांचड़ी-थड़्या लगाते, गीत गाते, दीप जलाते और आतिशबाजी करते हैं। कई क्षे़त्रों में उत्सव स्थल पर कद्दू, काखड़ी मुंगरी को एकत्र करने की परम्परा भी है। फिर एक व्यक्ति पर भीम अवतरित होता है। वो इसे ग्रहण करता है। कुछ क्षेत्रों में बग्ड्वाल-पाण्डव नृत्य की लघु प्रस्तुतियां भी आयोजित होती हैं।

— कब मनाई जाती है ईगास बग्वाल!

गढ़वाल में चार बग्वाल होती है, पहली बग्वाल कर्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को। दूसरी अमावश्या को पूरे देश की तरह गढ़वाल में भी अपनी आंचलिक विशिष्टताओं के साथ मनाई जाती है। तीसरी बग्वाल बड़ी बग्वाल के ठीक 11 दिन बाद आने वाली, कर्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है। गढ़वाली में एकादशी को ईगास कहते हैं। इसलिए इसे ईगास बग्वाल के नाम से जाना जाता है। चौथी बग्वाल आती है दूसरी बग्वाल या बड़ी बग्वाल के ठीक एक महीने बाद मार्गशीष माह की अमावस्या तिथि को। इसे रिख बग्वाल कहते हैं। यह गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में मनाई जाती है।

—क्यों मनाई जाती है ईगास बग्वाल!

इसके बारे में कई लोकविश्वास, मान्यताएं, किंवदंतिया प्रचलित है। एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए यहां पर ग्यारह दिन बाद यह दीवाली मनाई जाती है। रिख बग्वाल मनाए जाने के पीछे भी एक विश्वास यह भी प्रचजित है उन इलाकों में राम के अयोध्या लौटने की सूचना एक महीने बाद मिली थी। वहीं दूसरी मान्यता के अनुसार दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी। रिख बग्वाल के बारे में भी यही कहा जाता है कि सेना एक महीने बाद पहुंची और तब बग्वाल मनाई गई और इसके बाद यह परम्परा ही चल पड़ी। ऐसा भी कहा जाता है कि बड़ी दीवाली के अवसर पर किसी क्षेत्र का कोई व्यक्ति भैला बनाने के लिए लकड़ी लेने जंगल गया लेकिन उस दिन वापस नहीं आया इसलिए ग्रामीणों ने दीपावली नहीं मनाई। ग्यारह दिन बाद जब वो व्यक्ति वापस लौटा तो तब दीपावली मनाई और भैला खेला।

जबकि हिंदू परम्पराओं और विश्वासों की बात करें तो ईगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी कहा गया है। इसे ग्यारस का त्यौहार और देवउठनी ग्यारस या देवउठनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं। पौराणिक कथा है कि शंखासुर नाम का एक राक्षस था। उसका तीनो लोकों में आतंक था। देवतागण उसके भय से विष्णु के पास गए और राक्षस से मुक्ति पाने के लिए प्रार्थना की। विष्णु ने शंखासुर से युद्ध किया। युद्ध बड़े लम्बे समय तक चला। अंत में भगवान विष्णु ने शंखासुर को मार डाला। इस लम्बे युद्ध के बाद भगवान विष्णु काफी थक गए थे। क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु निंद्रा से जागे। देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की। इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया।

साभार!– डॉ. नंद किशोर हटवाल, लोकसंस्कृति कर्मी और वरिष्ठ साहित्यकार।

Nand Kishor Hatwal

इगास बग्वाल पर भैलो नृत्य वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पर आधारित महाकाव्य ‘हुतात्मा’ की एक बेहद खूबसूरत कविता..

शोभाराम शर्मा..

मखमली वन-पाँवड़ों पर पाँव रखकर पर्व-बेला।
लो अचानक आ गई थी द्वार पर खुद स्वर्ण बेला।।
थाल भर गो-ग्रास लेकर माँ खड़ी शुभ अर्चना सी।
तेल सींगों पर चुपड़ती प्रियतमा रच अल्पना सी।।
चन्द्र अक्षत्-धूप लेकर साथ उनका दे रहा।
किन्तु भीतर नृत्य भैलो उत्स उर्मिल बह रहा।।
लोक-मंगल-काम पूरित पर्व पावन था इगास।
वर्ष भर के बाद पुष्पित लोक-जीवन का हुलास।।
अग्नि-पथ पर सत्य शोधित आज आई थी बग्वाल।
राम-रावण युद्ध का सन्देश लाई थी हिमाल।।
साँझ को मंडाण में जब आ जुड़े सब वृद्ध-बाल।
ढोल पर दी थाप पहली आग जलती थी धुयाँल।।
डोरियों से बाँध भैले बीच रखकर कुछ पयाल।
भूमिया-आह्वान पीछे अग्नि-पूजा की सुकाल।।
घुप अँधेरा था चतुर्दिक मध्य धू-धू अग्नि-ज्वाल।
हाथ भैलों पर पड़े तो, बज उठी लय-बद्ध ताल।।
वृद्ध-वनिता-बालकों के मुख छलकता स्वर्ण-हास।
कौन भारी भैल अपने हाथ लेगा भर हुलास।।
चन्द्र ने बढ़ धर उठाया, पुष्ट हाथों पर उछाल।
आग छूते बन गया लो भैल भारी पिण्ड-ज्वाल।।
बल उठे फिर भैल सारे हाथ-हाथों पर मशाल।
उस अँधेरी रात में थी रोशनी वह क्या कमाल।।
दैंत्य जैसे पर्वतों के बीच झिममिल अग्नि-फूल।
भरभराते भैल खिलते चिनगियों का बुन दुकूल।।
चन्द्र आगे था सभी से पाँव उठते बद्ध-ताल।।
भैल हाथों में झुलाते नाचते आपाद भाल।
शीश ऊपर से अचानक बीच टाँगों के निकाल।
दाहिने फिर झूल बायें बढ़ चले वे डग उछाल।।
गाँव के हर ओर फैले चीर सारा अँधकार।
आग का वह खेल अद्भुत भैल-भैलो की पुकार।
परिक्रमा कर नृत्य-मण्डल बढ़ चला फिर एक ओर।
चीड़ का वन सामने था ध्वांत एकाकार घोर।।
वक्र-रेखा सा सरकता बढ़ रहा था अग्नि-नाग।
कुंडली सा मार बैठा फिर उगलता अग्नि-झाग।।
वृत्त बीचों-बीच तरुवर चीड़ के थे कुछ विशाल।
लाल लपटों से घिरे वे अग्निमय था श्वेत राल।।
हरहराती आग फैली वन्य धरती को समेट।
दृश्य लंका-वन दहन का, भैल-बालिधि की चपेट।।
रिस रहा था स्वर्ण लीसा हर तरफ थी आग-आग।
दैंत्य जैसे काँपते तरु बच न पाते भाग-भाग।।
स्वर चटकते पत्थरों का जल रहा था जीर्ण झाड़।
विघ्न आसुर कंटकों को लील बैठी बह्नि-बाढ़।।
राख से नव कोपलों का हो उदय हे अग्निदेव !
क्रूर तामस योनियों से मुक्त रखना अग्निदेव !!
राम का रामत्व जग में जगमगाए अग्निदेव।
अंध अघ दस-कन्ध तम पर सत्य दीपित अग्निदेव !!
शैत्यमूलक व्याधियों से तुम बचाना अग्निदेव !
ग्राम अग-जग जीव जड़ पर हाथ रखना अग्निदेव !!
लौटकर मंडाण में फिर भक्त नर्तक नृत्य-लीन।
क्षीण भैलों से बना फिर प्रज्वलित वर भैल पीन।।
चन्द्र ने सोत्साह सिर पर धर घुमाया खेल-खेल।
लौटकर फिर चक्र वर्तुल सा बनाया ताप झेल।।
लाँघते थे अन्य नर्तक वृत में आमोद लीन।
वाद्य-मंगल बज रहे थे ताक्-तक्-तक् धीन-धीन।।
भैल बुझने को हुआ तो गैड़-कर्षण का विनोद।
देव-दानव मध्य मंथन स्वांग सागर रत्न-शोध।।
दृष्टि जाती थी जहाँ तक दून पर्वत दूर-दूर।
सत्य की शुभ बह्नि जलती अंध तम को घूर-घूर।।
अग्नि-क्रीड़ा का महोत्सव विश्व-मंगल का प्रतीक।
अब समापन ओर था सब पाप-तम का प्रत्यनीक।।

वीरान होते गांव और आधुनिकता की चकाचौंध में कहीं खो सा गया है मेरे पहाड़ का भैलो परम्परा का अनूठा त्यौहार ईगास बग्वाल। समय आ गया है कि हमें अपने पारम्परिक त्यौहारों के संरक्षण और संवर्धन हेतु आगे आना होगा। अन्यथा हम अपनी इस अनमोल सांस्कृतिक विरासत को को खो देंगे। इनको सहेजने की नितांत आवश्यकता है। ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम कुछ दे सकें। क्योंकि यही तीज त्यौहार हमारी धरोहर और पहचान है। कोरोना काल में अबकी ईगास बग्वाल को हर्षोल्लास से मनाये..

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