गोरखा शासनकाल में गढ़वालियों से वसूला जाता था “पुंगाडी कर”..! और अब बोलते हैं ..ऐ डोटी कितनी खाई रोटी?
(मनोज इष्टवाल)
सच कहूँ तो गुलामी कोई भी हो गुलामी ही होती है। अब वह चाहे मुग़लकाल रहा हो या गोरखा व ब्रिटिश काल..! हर काल में उत्तराखंड ने बेहद कष्ट ही सहे। वर्तमान में भले ही बहुत सारे कर हट गए होण लेकिन देश व राज्य को चलाने के लिए “कर” जिसे हम टैक्स कहते हैं वह आज भी हमसे विभिन्न माध्यमों से लिया ही जाता है लेकिन इस कर व्यवस्था में वे सब लोग छूट जाते हैं जो गरीबी रेखा से नीचे के हैं, लेकिन स्सच यह भी है कि ऐसे जाने कितने फर्जी राशन कार्ड आजतक बनते रहे हैं जो सर्व सम्पन्न होते हुए भी गरीबी रेखा के नीचे अपने को दर्शाते हैं व सरकारी तंत्र को लूटने में ठीक वही भूमिका निभा रहे हैं जो कभी कमीन-सयाने या थोकदार निभाते थे। वे रौबदाब से यह सब करते हैं और ये भ्रष्ट तंत्र के भ्रष्टकर्मियों के साथ मिलकर।
जनवरी 1804 से लेकर 1815 तक गोरखा शासन के क्रूर काल को भला कौन भुला पाया होगा। एक समय था जब गोरखा का डोटी साम्राज्य पूरे उत्तराखंड हि नहीं बल्कि हिमाचल व पंजाब के कई क्षेत्रों तक था और फिर एक समय यह भी आया कि वही नेपाल का डोटी क्षेत्र इतना उपेक्षित हो गया कि उन्हें उत्तराखंड में उन्हीं लोगों की ध्याड़ी मजूरी करके पेट पालना पड़ा जिन्हें उन्होंने गुलाम ही नहीं बनाया बल्कि हरिद्वार चंडीघाट में पांच से दस रूपये कीमत पर खूब बेचा भी। फिर वह समय भी देखा जब किसी भी गोरखा नेपाली को लोग कहते फिरते थे- ऐ डोटी कितनी खाई रोटी..? इसीलिए तो कहा जाता है कि वक्त बदलते देर नहीं लगती। आज भारत देश का अभिन्न अंग उत्तराखंड कई मायनों में सम्पूर्ण नेपाल से अर्थव्यवस्था की दृष्टि से सर्व सम्पन्न है जबकि इसी नेपाल की राजसत्ता ने कभी उत्तराखंड पर सलामी कर, घी कर, मिझारी कर, सौन्या फाल्गुन कर, अधन्नी दफ्तरी कर, मौ कर, तिमासी कर, टांडकर, सायर कर और तो और पुंगाडी कर भी थोप दिए। कर इतने कि आदमी जी भी न सके और मर भी न सके। कर नहीं चुकता किया तो फिर बच्चे व जवान लड़की लड़कों को राणीहाटों के माध्यम से औने पौने दामों पर बेचकर चंडी घाट में ठीक ठाक दामों पर बेचकर कर वसूला जाता था। पहाड़ छोड़कर भागना भी मुश्किल था क्योंकि मैदान के लिए भावर क्षेत्र के रास्ते जिन्हें भावर के घाटे कहा जाता था, उनमें बिलासनी (बिदासणी), भूरीघाट, पालपुर, बाबली-कांगड़ा (बल्ली-कांडे), सिगड्डी, खोहद्वार (कोटद्वार), चौकी घाटा, दून जिले के कांसरौ, मोहंड और तिमली नीतिघाटी में तपोवन व गंगापार में बाडाहाट में गोरखा सैनिकों की चेकपोस्ट हुआ करती थी। ऐसे में जनता के पास एक ही उपाय था कि या तो वह पहाड़ खोदें खेत बनाये, जड़ी-बूटी खाएं या फिर भूखे मर जाएँ। आखिर भूख की आग ने पहाड़ खोदने शुरू किये फसल उगी तो उस पर सन 1812 में लगा दिया गया पुंगाडी कर ! आइये जानते हैं यह पुंगाडी कर बला क्या है?
सुप्रसिद्ध इतिहासविद्ध डॉ. शिव प्रसाद डबराल “चारण” अपनी पुस्तक “गोरख्याणी” में लिखते हैं कि गोरखाली राज्यकाल में पहले चली आती हुई कर प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। “पुंगाड़ी” अर्थात् पुंगड़ी (खेत) पर लगाए गए (भूमिकर) की राशि को अत्यधिक बढ़ा दिया गया। बहादुर भण्डारी तथा दशरथ खत्री द्वारा की गई भूव्यवस्था में कृषि भूमि को उर्वरता के आधार पर कृषि भूमि को अबल, दोम (दोयम), सोम, चाहर पौर सुखवासी इन पांच वर्गों में विभक्त किया गया था, तथा प्रत्येक ग्राम की कृषि भूमि पर उर्वरता के उक्त वर्गीकरण के माधार पर ‘पुंगाडी’ (भूमिकर) निर्धारित किया गया था। विभिन्न ग्रामों के राजस्व के जो फर्द प्राप्त हुए हैं, उनमें भूमि को माप ( नालियों में रकबा ) अंकित न होने से यह पता लगाना कठिन है कि विभिन्न वर्ग भूमि पर यह कर किस दर से लगाया गया था। मेडबन्दों भूव्यवस्था में प्रत्येक ग्राम लिए ‘पुंगाड़ी‘ की जो राशि निर्धारित को गई थी, उसे विभिन्न जिमींदारों ( कृषकों ) में बांटकर उनसे उक्त कर को वसूल करने का कार्य कमीण-सयानों को सौंपा गया था। कमीण-सवानों को अपने अधीनस्य ग्रामों के प्रत्येक परिवार की भूमि की वास्तविक माप विदित थी। उसी आाधार पर वे विभिन्न परिवारों द्वारा देवकर को फांट तैय्यार करते थे। प्रत्येक परिवार के कर्ता को भी अपनी भूमि की माप विदित थी। इसलिए कमीण-सयानों ने अपने फर्द-फांट में विभिन्न परिवारों की भूमि की माप लिखने की प्रावश्यकता नहीं समझी। सं० 1866 (1812) में ढांगु गर्खा के सरदार ने उक्त गर्खा को डबरालस्यूँ पट्टी के ग्रामों के लिए 703॥- सात सौ तीन रुपए नौ आने पुंगाड़ी ( भूमिकर ) निर्धारित किया था। जिसमें ढ़ांगू के कमीण ने गलीगांउ के लिए निर्धारित छ: रुपए चौदह आने और कुतणीगांव के लिए निर्धारित चार रुपए आठ आने को विभिन्न परिवारों में इस प्रकार बांटा था :-
गलीगाऊँ 1 घर |
रुपय्या |
कुतणीगांव 1 घर |
रुपय्या |
गंगू सयानो अबल |
३ |
हीमा सयानो अबल |
२II |
खीमा सेम |
III |
बुधी सेम |
III |
सेकर सुखवांसी |
= |
जोत्रू चाहर |
II |
धनी चाहर |
II |
बंचु औजी अबल |
II |
नाथ को घर अबल |
१I |
भजड सेम |
I |
नाथ को सेम |
III |
———— |
—- |
चनु चाहर |
I |
———— |
—– |
तुल्या डोम अबल औजी ढोल बजाने वाला |
I |
——— |
—— |
कुल योग |
६III= |
कुल योग |
४II |
श्री रामः १ संवत् १८६६ का साल ढ़ांगु गरख्या डबरालस्यूँ की असुल जमा रुपय्या – 703॥-
सम्भवतः अब्बल उत्तम भूमि पर लगायागया कर एक रुपया प्रति बीसी ( बीस नाली ) था । ट्रेल ने गोरखाली भूव्यवस्था के अनुकरण पर अपनी पहली भूव्यवस्था में भूमिकर की यहां दर रखी थी। नाली दो सेर अन्न का नाम था। जिस भूमि में एक नाली बीज बोया जाता था उसकी माप एक नाली मानी जाती थी। बीस नाली बीज वाली भूमि एक बीसी कहलाती थी। परगना दप्तरी के कार्यालय में रखे गए फर्दों में विभिन्न ग्रामों की भूमि की माप, उनकी भूमि का वर्गीकरण, उन पर निर्धारित भूमि कर आदि राजस्व के सम्बन्ध में विस्तृत सूचनाएं थीं। किन्तु ब्रिटिश राज्यकाल में 1857 से पहले के देशी भाषाओं में लिखे गए रिकार्ड्स की सुरक्षा की व्यवस्था नहीं की गई। फलतः उसे प्राप्त करना अब दुस्साध्य हो गया है।
भूमिकर से निर्धारित आय –ट्रेल की धारणा है कि मेडबन्दी भूव्यवस्था में गढ़राज्य में ‘पुंगाड़ी ‘ की जो राशि निर्धारित की गई थी, यदि उसे वसूल करने की उचित व्यवस्था होती तो कृषकों के लिए उसे चुकाना कठिन न होता। 1812 में बहादुर भण्डारी द्वारा निर्धारित राजस्व की राशियां 1815 में गोरखाली शासन के अन्त तक चालू रहीं ।
राजस्व की राशियों के जो उपलब्ध है, उनमें से कुछ में तो पुंगाड़ी को अंकित किया गया है तथा कुछ में इस कर के साथ कुछ अन्य देयों को मिला दिया गया है। सारे राज्य के लिए निर्धारित पुगाड़ी की राशि लगभग डेढ़ लाख रुपए रही होगी, जिसका विवरण निम्नांकित है।
प्रदेश |
गोरखाली रुपए
|
गंगावार- वर्तमान जिला चमोली और पौड़ी गढ़वाल | ८२४०६ |
गंगापार- वर्तमान जिला उत्तरकाशी और टिहरी | लगभग ६०७५० |
दुन (दून)- जौनसार बावर को छोड़कर वर्तमान जिला देहरादून
|
लगभग ११४७२ |
कुल युग |
१५४६६२८ |
डॉ शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि “यदि पुंगाडी कर की यह राशि नियमित रूप से वसूल होती रहती तो इससे सेना की तीन बटालियनों को 15 कम्पनियों के सैनिकों का मौर उनके तीन कैप्टिन कमांडिंग का वेतन, जो लगभग डेढ लाख रुपया होता था, नियमित रूप से चुकाया जा सकता था।
यह लेख लिखने के पीछे मेरा यह मंतव्य कतई नहीं था कि हमने गोरखा शासनकाल में क्या कुछ झेला क्योंकि मैं जानता हूँ कि गढ़वाल के एक क्रूर शासक पराक्रम शाह के अन्दर भी वही गुण रहे जो मुगलों के खून में अक्सर देखने को मिलते हैं व जिसने साजिशन न सिर्फ अपने भाई राजा प्रधुम्न शाह को गद्दी से पदच्युत किया बल्कि रमा-धरणी की हत्या के साथ साथ जाने ब्रह्म हत्या व नारी लज्जा के कितने पाप किये थे, जो हमें बदले में अकाल व बाद में गोरखा शासन दे गया बल्कि मै यह जानने को हमेशा उत्सुक रहता था कि आखिर हम बचपन में “ऐ डोटी कितनी खाई रोटी” ? जैसे शब्द हर नेपाली को क्यों बोला करते थे व अक्सर कुछ चिढ क्यों जाया करते थे! आखिर आज बचपन में अपने बुजुर्गों से सुने किस्से कहानियों की हकीकत पुंगाडी कर के इस दर्दनाक लेख के पदार्पण ने पटाक्षेप कर ही दिया।