पौड़ी की कुली एजेंसी से संचालित होती थी गढ़वाल मंडल की सभी कुली एजेंसियां।
(मनोज इष्टवाल)
आज कोई विश्वास नहीं करेगा कि एजेंसी नाम से विख्यात पौड़ी का एजेंसी चौक कभी गढ़वाल के ग्रामीण समाज का कुली बेगार प्रथा का मुख्य केंद्र हुआ करता था। मात्र 10 बर्ष के गोरखा काल में गढ़वाली प्रजा की इतनी दुर्दशा हो गई थी कि पौड़ी गढ़वाल के कई गाँव के गाँव खाली होने लगे। जो कुली बेगार प्रथा के काम न आता उसे, उसके बच्चे, बीबी को गोरखे हरिद्वार मंडी में बेच दिया करते। यह दौर गोरखाओं का क्रूर शासन काल माना जाता था।
फिर वह दौर आया जब गोर्खाओं को परास्त कर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने राजा श्रीनगर से आधा राज्य माँगा। 21 अप्रैल 1815 को अंग्रेजों ने गढ़वाल क्षेत्र के पूर्वी, गढ़वाल का आधा हिस्सा, जो कि अलकनंदा और मंदाकिनी नदी के पूर्व में स्थित है, ‘ब्रिटिश गढ़वाल‘ और देहरादून के दून के रूप में जाना जाता है, पर अपना शासन स्थापित करने का निर्णय लिया और इस सबका केंद्र बनाने के लिए उन्होंने गढ़वाल राज्य की राजधानी श्रीनगर में अपनी बसासत शुरू की । अंग्रेजों को न श्रीनगर की भीषण गर्मी पसंद आई, न बरसात और न ही ठंड। उन्होंने चोपड़ा के पास स्थित पौड़ी गाँव को अल्मोड़ा के बाद दूसरा कमीशनरी हेड क्वार्टर बनाने की कवायद शुरू कर दी।
प्रारंभ में कुमाऊं और गढ़वाल के आयुक्त का मुख्यालय नैनीताल में ही था, लेकिन बाद में गढ़वाल अलग हो गया और 1839-40 में सहायक आयुक्त के अंतर्गत पौड़ी जिले के रूप में स्थापित हुआ और उसका मुख्यालय पौड़ी में गठित किया गया। पौड़ी के प्रथम जिलाधिकारी वी ए स्टोवेल के 1अक्टूबर 1908 में यहां पदभार ग्रहण किया था।
पौड़ी नाम के गांव के पास एक कस्बा है। यह जिला गढ़वाल का सुंदर मुकाम है। यह समुद्र तट से साढ़े चार हजार फीट (4500 फिट) की ऊंचाई पर स्थित है। यहां की जलवायु अति उत्तम है और यहां से हिमालय पर्वत का दृश्य बड़ा ही सुनदर दिखाई देता है। ब्रिटिश राज होने के थोड़े ही बर्ष के बाद यह स्थान बसाया गया था। यहां अधिकांश बस्ती सरकारी कर्मचारियों की हुआ करती थी। पहले यहाँ सरकारी कर्मी ही निवास करते थे लेकिन धीरे – धीरे सरकारी कर्मचारियों ने स्वतंत्र भारत के दौर में यहाँ ज़मीन खरीदकर अपनी बसासत शुरु कर दी।
यहां जिलाधिपति (डिप्टी कमिश्नर) और हाकिम परगना की कचहरियां, खजाना, तहसील, थाना, जेलखाना, मुहाफिजखाना, डाकखाना, तारघर इत्यादि सब सरकारी दफ्तर हैं, जिन्हें पूर्व में इन्हीं नामों से पुकारा जाता था। जिले का सिविल सर्जन, इञ्जिनियर और जंगलात के डिविजनल फारेस्ट ऑफिसर और उनके दफ्तर भी यहीं हैं। इसके अलावा पौड़ी की शुरूआती बसासत में यहाँ डिस्ट्रक्ट बोर्ड का दफ्तर और उसका एक डाक बंगला, धर्मशाला और एक औषधालय भी हुआ करता था। सबसे अहम् बात यह है कि यहाँ एक दफ्तर कुली एजेंसी के नाम पर भी हुआ करता था। वर्तमान में एजेंसी नामक पौड़ी का एक बाजार क्षेत्र तो है लेकिन कुली एजेंसी का दफ्तर कहाँ रहा होगा पता नहीं चल पाया।
गोर्खा शासन की अमलदारी में यहां (इस प्रान्त में) अन्य कई जुल्मों के साथ यहाँ मी प्रजा से जबरदस्ती कुली-बेगार लेने की भी एक प्रथा चल पड़ी थी। अङ्गरेजी सरकार का राज्य होने पर और जुल्म तो बन्द हो गये थे, लेकिन यह घृणित प्रथा चलती ही रही। प्रजा की ओर से सरकार की सेवा में कितने ही निवेदन पत्र इस प्रथा को रोकने के पेश होने पर भी सरकारी हाकिमों की ओर से यह उत्तर आता रहा कि बिना कुली बेगार के सरकारी काम चल ही नहीं सकता। लोग इस जुल्मी प्रथा से इतने तंग आ गये थे कि इससे बचने को उनसे जो कुछ भी मांगा जाता वे देने को तैयार रहते थे। यह देखकर गढ़वाली नेताओं ने लोगों से वार्षिक चन्दा लेकर ‘कुली एजेंसी नाम की एक संस्था स्थापित की और यह संस्था जिले के एक हिस्से में लोगों के बदले बेगार और वर्दायश देने लगी।
इसको ढांचागत खड़ा करने में उस दौर में दो लाख से अधिक रुपया खर्च हुआ। फिर भी कुली बेगार प्रथा पर कुछ बिशेष उपकार नहीं हुआ और तब भी बदस्तूर बर्दायश का कष्ट बना ही रहा। बेगार बर्दायश के लालची हाकिम एजेंसी पड़ाव से एक आध मील आगे पीछे डेरा डालकर लोगों का बर्दायस में तलब कर लिया करते थे।
सन् 1921 में जब देश में असहयोग आन्दोलन हो रहा था। कुमाऊं प्रान्त में लोगों ने वर्दायश से इंकार कर दिया। तब गवर्नमेंट भी प्रजा के इस दुःख को देख न सकी। उसने एकदम इस घृणित प्रथा का अंत कर दिया। और लोगों के चंदे से चलती हुई कुली एजेंसी नाम की संस्था को आप ले लिया। अब सरकार इस कुली एजेंसी को चलाने के लिये रुपया देने लगी थी जिसके कुली काम करने वाले ग्रामीणों के हिस्से में पैसा पाई आना शुरू होने लगा।
कोटद्वार से जोशीमठ् तक प्रत्येक मंजिल पर कुली एजेंसी की चौकियां हुआ करती थी जिनका हेड ऑफिस पौड़ी कुली एजेंसी हुआ करता था. जहां सरकारी कर्मचारियों के अतिरिक्त अन्य मुसाफिरों को भी पहिले से सूचना देने पर कुली खच्चर इत्यादि मिला करते थे, जिसके प्रबन्धन का अधिकार डिप्टी कमिश्नर को हुआ करता था। यदि किसी यात्री / मुसाफिर इस जिले में इस एजेंसी से कुली चाहिये तब उन्हें डिप्टी कमिश्नर साहब को को पत्र लिखना पड़ता था। उनकी स्वीकृति के पश्चात् ही उन्हें कुली उपलब्ध होता था। इससे बिचौलियों का दाना पानी जहाँ खत्म हुआ वहीं आम प्रजा ने गवर्नमेंट के इस कार्य प्रशंसा करनी शुरू कर दी थी। गढ़वाली जनता इससे बड़ी संतुष्ट हुई है।