एक छोटे से झगड़े की वजह से आया बिनसर द्यूल्ड गॉव में…गवाह है आज भी बिन्सर की छड़ी…!
(मनोज इष्टवाल 21 जुलाई 2015)
किंवदंतियों को आधार मानते हुए मैंने सन 1989 में एक लेख किसी पत्रिका में ड्यूल्ड के बिन्सर देवता पर छापा था..। उस दौर में मैं अपने वंशजों की खोज में शोध कार्य हेतु दर-दर भटक रहा था, और मीलों पैदल सफ़र कर जब ड्यूल्ड गॉव पहुंचा तब वहां के एक वयोवृद्ध व्यक्ति जो इस मंदिर में पुजारी थे बिन्सर के चौथान या कुमाऊ-दुशांत से ड्यूल्ड आने की जो कथा सुनी उससे मैं विस्मित रह गया।
उन्होंने मुझे बताया कि इष्टवाल जाति के शिल्पियों ने चौन्दकोट गढ़ की स्थापना करते वक्त मान दीवा, व काली का स्मरण किया। एकेश्वर महादेव की स्थापना पातळ गॉव में होने के कारण तब यह दिक्कत आई कि कौन से महादेव का स्मरण कर गढ़ की संरचना की जाय। आखिर युक्ति काम आई और सराईखेत के ऊपर व ढौंडियालस्यूं के शीर्ष पर बसे गवनी गढ़ जिसे गोर्ला रावतों ने विजित कर लिया था के गढ़पति ने बिन्सर का सुमिरन किया। कहते हैं बिनसर ने उन्हें आदेश दिया कि अगर यहाँ पहुंचकर आपके शिल्पी रातों रात मेरे थान की माटी ले जाकर किले में स्थापित करेंगे तो आप अजय हो जायेंगे।
गढ़पति ने इष्टवाल वंशज जाईमा और शकुनी शिल्पियों से सलाह मशविरा लिया। इष्टवाल वंशजों ने महादेव के पुजारी रहे पौराणिक भड (भट्ट बंधुओं) से आग्रह किया कि पूजा विधि का ज्ञान सिर्फ आपको है अत: आप भी साथ चलें। घोड़ों पर काठी कस दी गई और शांय प्रहर को मीलों चलकर आखिर शिल्पियों सहित गढ़पति गवनी गढ़ पहुंचे। द
दूसरे दिन योजना अनुरूप प्रात: बिनसर की पूजा स्तुति करने के पश्चात सूरज ढलते ही मंदिर के गर्भ गृह से माटी उठायी गई। जिसे उठाते देख मंदिर पुरोहितों ने विरोध जताया। बात बढ़ी और हालत तलवार खींचने तक आ गई।
गढ़पति को भी झुकना पडा आखिर पुरोहितों का मामला था। इस दौरान जाईमा इष्टवाल ने महादेव पुरोहित ड्यूल्ड भट्ट को आँखों के इशारे से अपनी लाठी की ओर देखने का संकेत किया जिसे कोई और संकेत समझ ड्युली नामक पुरोहित ने चुपके से बिन्सर की चांदी की छड़ी चुरा ली जबकि विरोध में उतरे पूरे पुरोहित समाज का ध्यान सिर्फ शिल्पियों और गढ़पति पर था। थक हारकर सबको बिना गर्भगृह की माटी के ही लौटना पड़ा।
जैसे ही वे ढलान उतरे जाईमा पंडित ने अपनी बांस की लाठी जिसका निचला हिस्सा जो फटा हुआ था उससे मिट्टी निकालकर गढ़पति व अपने भाई शकुनी को दिखाकर चौंका दिया। अब बारी ड्युली पंडत की थी.. । उसने अपने पिछले हिस्से में छुपाई चांदी की लाठी दिखाकर जाईमा को बताया कि मैं आपका इशारा समझ गया था।
यह सब देख सभी भयातुर हो गए, समस्या यह थी कि अगर छडी वापस लेकर जाते हैं तो विवाद बढेगा और अगर ले जाते हैं तो बिन्सर के रुष्ट होने के पूरे संकेत हैं। आखिर तय हुआ कि रातों-रात इसे गढ़ी पहुंचाया जाय। जैसे ही सुबह प्रहर शुरू हुआ बिनसर की चांदी की छड एक इंच भी नहीं सरकाई जा सकी। कहते हैं ड्युली द्वारा लगाई गई छड जहाँ रुकी वहीँ बिन्सर मंदिर की स्थापना हुई और ड्युली के नाम से यहाँ ड्यूल्ड गॉव बसाया गया। कालांतर में बिनसर की पूजा में इष्टवाल व रावत जाति का होना भी बताया जाता रहा है जो समय काल परिस्थितियों के चलते लगभग समाप्त हो गई परंपरा है।
वहीँ बिन्सर की छड की ढूंढ कई सालों तक होती रही लेकिन उसका पता न लगने पर बिन्सर महादेव के पुरोहितों ने गवनी गढ़ के अधिपत्ति गोर्ला थोकदार को अभिशाप दे दिया कि तेरी बसाई यह नगरी यह गढ़ तहस-नहस हो, और जिन पानी के तालाबों पर तुझे घमंड है वह दलदल बन जाएँ तेरे गढ़ में जंगली जानवर रहे मानव मात्र के दर्शन न हों। काली माँ का प्रकोप फैले।
हुआ भी वही गवनी जंगल में तब्दील हो गया..। वहां के राजपूत रावत कहाँ गए पता नहीं.। हाँ काली माँ का जरुर आज भी उस क्षेत्र में बिशाल मेला लगता है। ड्यूल्ड में आज भी वह छड है कि नहीं कहा नहीं जा सकता लेकिन तब मैंने वह देखी थी। यह पूरा वृत्तांत किंवदन्तियों पर आधारित जानकारी जुटा कर लिखा गया है, इसलिए यह कहना ठीक नहीं रहेगा कि यही सत्य है क्योंकि अभी इस पर व्यापक शोध की आवश्यकता है।