क्या हम जानते हैं कि गढ़-कुमाऊँ में बोली जाने वाली कितनी बोलियाँ व भाषाएँ हैं?
(मनोज इष्टवाल)
यूँ तो उत्तराखंड के गढ़-कुमाऊँ में हिंदी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाएँ प्रमुखता से बोली जाती हैं लेकिन क्या हम जानते हैं कि गढ़-कुमाऊं को अभी तक लोकभाषा का दर्जा क्यों नहीं मिला जबकि गढ़ राजकाल में यह हमारी लोक भाषा के रूप में पूरे भारत बर्ष में मान्य थी। दरअसल गढ़-कुमाऊँ के हर क्षेत्र में बोली जाने वाली गढ़वाली या कुमाऊनी अपने अपने क्षेत्र में जाकर अपने शब्द बदल देती है जिसके फलस्वरूप गढ़वाल व कुमाऊं में 10 तरह की बोली प्रचलित हैं।
गढ़वाल की लोक बोली जिसे गढ़ राजवंश की लोकभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ वह श्रीनगरी गढ़वाली बोली कहलाई, जो श्रीनगर, देवलगढ़ व पौड़ी क्षेत्र में बोली जाती है इसे सबसे मीठी व मधुर माना जाता रहा है। इसे गढ़राज वंशकाल अर्थात 1803 तक गढ़वाली राजभाषा का दर्जा प्राप्त था व यही भाषा वर्तमान में गढ़वाली बोली के रूप में प्रचलन में है। इसके बाद दूसरी उप बोली के रूप में नागपुरिया बोली गढ़वाल में प्रचलित है जो चमोली जनपद के नागपुर में बोली जाती है। तीसरी उपबोली दसौल्य या दसौली बोली हुई जो नागपुर से लगी चमोली गढ़वाल की ही एक पट्टी है। चौथी उपबोली राठी हुई जिसका क्षेत्र दूधातोली, बिनसर और थैलिसैण है। पांचवें नम्बर पर उप बोली बधाणी है जो पिंडर व नंदाकिनी के आस-पास बधाण पट्टी कहलाती है। छटे नम्बर पर उप बोली लोहब्या आती है जो राठ से संलग्न बिनसर व गैरसैण में बोली जाती है। सातवें नम्बर पर सलाणी उप बोली आती है जो मैदान व पहाड़ का मिलान करती हुई बोली जाती है इसे बावर क्षेत्र में कठमाली भी कहा जाता है। आठवें नम्बर पर गंगपरिया बोली आती है जो टिहरी गढ़वाल में उपबोली के नाम से प्रचलित है एवं अंतिम उप बोली मांझ कुमैय्या कहलाती है इस बोली में गढ़वाल व कुमाऊ दोनों क्षेत्र की बोलियाँ शामिल हैं।
इसके अलावा उप बोलियों जौनसारी, रवांळटी, पर्वती, जौनपुरी, भोटिया, रंs, बंगाणी, बावरी, इत्यादि लगभग दर्जन भर और उप बोलियाँ हैं जो हर क्षेत्र में अपनी बोली बदल देती हैं जिन्हें बोली में शामिल नहीं किया गया।
वहीँ कुमाऊ में अस्कोटी बोली पिथौरागढ़ के सीरा क्षेत्र के आस-पास उप बोली जाती है। इस पर सीराली, नेपाली और जोहरी उप बोलियों का अधिक प्रभाव है। दूसरे नम्बर पर सीराली उप बोली आती है जो पिथौरागढ़ के अस्कोट के पश्चिम और गंगोली के पूर्व के क्षेत्र में बोली जाती है। तीसरी उप बोली सोर्याली कहलाती है जो पिथौरागढ़ जनपद के पूर्व में काली नदी, दक्षिण में सरयू, पश्चिम में पूर्वी रामगंगा और उत्तर में सीरा क्षेत्र में बोली जाती है। इसे पूर्वी कुमाऊं की सबसे प्रचलित बोली भी कहा जाता है। चौथे नम्बर पर कुमैया बोली आती है जो काली कुमाऊ क्षेत्र की मानी जाती है जिसे कुमैय्या या कुमाई भी कहा जाता है यह बोली पश्चिम क्षेत्र में देवीधुरा, उत्तर क्षेत्र में पनार व सरयू पूर्व में काली नदी आर पार, दक्षिण में टनकपुर लोहाघाट व चम्पावत तक बोली जाती है। यह मध्ययुगीन काल या कुमाऊं के चंद राजवंश की राजभाषा का दर्जा प्राप्त मानी जाती है। पांचवे नम्बर पर गंगोली उप बोली गंगोलीहाट के आस-पास पश्चिम में दानपुर, दक्षिण में सरयू, उत्तर में रामगंगा, पूर्व में सोर घाटी तक फैली है। छटे नम्बर पर हम दनपुरिया उप बोली रख सकते हैं जो बागेश्वर ज़िले के दानपुर परगने की बोली कहलाती है। इसके उत्तर में जोहारी, पश्चिम में गढ़वाली, पूर्व में सोर्याली तथा दक्षिण में खसपर्जिया उप बोली के क्षेत्र पड़ते हैं। सातवें नम्बर पर खसपर्जिया उप बोली है जिस पर कुमाऊ के खस जाती का प्रभुत्व रहा है यह बारामंडल परगने की खसिया बोली भी कही जाती है। आठवें नम्बर पर हम चोगर्खिया उपबोली शामिल कर सकते हैं जो काली कुमाऊ के उत्तर पश्चिम से लेकर पश्चिम में बारामंडल परगने व उत्तर में गंगोली क्षेत्र तक बोली जाती है। नवीं उप बोली के रूप में पछाई आती है जो पाली पछाऊँ, फल्दाकोट, द्वाराहाट, मासी, चौखुटिया इत्यादि की प्रमुख बोली रही है इस पर गढ़वाली बोली का ज्यादा प्रभाव रहा है। अगर यह कहा जाय कि गढ़ कुमाऊं सीमावर्ती क्षेत्र में यह बोली दोनों तरफ बोली व समझी जा सकती है तो कोई दोराय नहीं है। अंतिम उप बोली के रूप में रौ आती है इसे रौ-चौभेंसी भी कहा जाता है जो पूर्वी नैनीताल के रौ और चौभेंसी क्षेत्र में बोली जाती है।
इसके अलावा मैदानी व पहाड़ी क्षेत्र में अल्मोडिया, बाउरी, तथा पिथौरागढ़ के मुनस्यारी, धारचुला इत्यादि क्षेत्रों में बोली जाने वाली रजबारी, भूटिया, नेपाली इत्यादि कई अन्य बोलियाँ हैं लेकिन इन्हें बोली का दर्जा क्यों नहीं मिला यह हैरत की बात है। अगर श्रीनगरी गढ़वाली बोली और अल्मोडिया कुम्मया बोली जो कभी अपने अपने राजवंश की राजभाषा थी व वर्तमान में बोली के रूप में प्रचलित है, को छोड़ दिया जाय तो सम्पूर्ण गढ़वाल कुमाऊं के पर्वतीय जनपदों में हार नदी घाटी सभ्यता के आधार पर गढ़वाली व कुमाउनी बोली बदलती रही जो उपबोली के रूप में आज भी प्रचलित है। मेरा मानना है कि गढ़वाली व कुमाऊनी राजवंश की प्रचलित बोली को ही भाषा के रूप में स्थापित कर प्रदेश सरकार को आठवी अनुसूची में शामिल करने की बात रखनी चाहिए ताकि हम भाषा विमुक्त न रहें।