Wednesday, October 16, 2024
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भूताशय दिखते ही मौत निश्चित थी। जौनसार के भूताशय का अभी भी आता है जिक्र।

भूताशय दिखते ही मौत निश्चित थी। जौनसार के भूताशय का अभी भी आता है जिक्र।

(मनोज इष्टवाल)

समय साक्ष्य एक ऐसा प्लेट फॉर्म बन गया है जहाँ अक्सर लोक सँस्कृति कर्मी व साहित्यकारों का जमावड़ा इकट्ठा हो ही जाता है। आज चाय की चुस्कियों के बीच जब जौनसार बावर क्षेत्र के लोक सँस्कृतिकर्मी नन्दलाल भारती मिले और विराट गढ़ पर चर्चा हुई तो उन्हें मेरे पुराने लेख मैफाउटा गांव की 400 साल पुस्तक जिसे स्थानीय भाषा में साँचा कहते हैं याद आ गयी। फिर वे बोले कभी आपने भूताशय के बारे में सुना?


सच तो यह है कि मेरे कई बर्षों के शोध में यह शब्द इससे पहले कहीं नहीं सुना था। उन्होंने अपनी बगल में बैठे जौनसार के ही समाजसेवी इंद्र सिंह नेगी की तरफ देखते हुए कहा- नेगी जी , आप मैं या हमारी उम्र के सब लोग यह भूताशय के बारे में तो जानते ही हैं लेकिन अब कहाँ चले गए वे!
इंद्र नेगी बोले- हां ये सच है भारती जी, तब एक अनाऊणा था -“आपडे गांव के भूताशय आपुक देख्वी ना।” (अपने गांव के भूताशय अपने आप दिखाई नहीं देते)! नन्द लाल भारती बोले- ये भूताशय अक्सर दूसरे गांव वाले देखा करते थे। और यह गांव वाले समझ जाया करते थे कि किस दिशा या किस गांव में मौत होने वाली है। ये भूताशय अक्सर एक से अनेक जो जाते थे। एक रांका (उजाला) होते होते वह अनेकों में बढ़ जाया करते थे। और पूरी बारात का रूप ले लेते थे। आज पता नहीं ये सब अब कहाँ गायब हो गए।
हमारे यहां यही सब होता था जहां जौनसार में इसे भूताशय कहा गया है वहीं इसे हमारे गढ़वाल में इसे ट्वाला कहा करते थे । ये अक्सर हमारे गांव के पार

दूसरी सरहद पर बसे पाली गांव से केबर्ष गांव जाने वाले रास्ते से निचली साइड जहां से छोंक्यू भ्याळ नामक जगह शुरू होती है व एक रास्ते नीचे उतरता हुआ खरगढ़ नदी पर बने शमशान कुंवळई उतरता है वहां अक्सर दिखाई देते थे। या फिर नंदा धार व असवालस्यूँ क्षेत्र के कई गांवों के आस पास ये दिखाई देते थे। ये गांव की सरहद से दूर होते थे। और सच भी है कि जिस गांव में इन भूतों की बारात जाती थी वह उस गांव को नहीं दिखते थे क्योंकि ये उसकी सरहद में ऐसी जगह इकट्ठा होते थे जहाँ से गांव की नजर न पड़े। इस पर बूढ़े बुजुर्गों का यह मत होता था कि अल्पायु में मरे बचे जहां दफन होते थे वही बाद में ट्वाला बन जाते हैं। उनकी आत्मा तब तब जागृत होती है जब जब कोई औरत मरने वाली हो क्योंकि ये जितने भी बच्चे होते थे माँ की कोख से जन्म लेने के बाद ही मरते थे ऐसे में यह समझा जाता था कि माँ के ममतत्व का अंश उनकी मृतात्मा के साथ चला जाता है और जब कोई माँ स्वर्ग सिधारने वाली होती थी तब ये अपने लोक में उनकी अगुवाई की बारात निकालते हैं। यह मेरे बचपन ने भी देखा है अब के बचपन में यह देखना सम्भव नहीं है क्योंकि अब सब वैज्ञानिक युग की औलादें हैं और कई इसे कॉर्बन उत्सर्गिक मानते हैं लेकिन वे यह बताने में कतराते हैं कि आखिर इनकी बारात के बाद ही कोई मौत क्यों होती है। उनका तर्क होता है यह तो स्वाभाविक रूप से कोई घटना होती होगी इसलिए उसे इस से जोड़ दिया गया है जबकि बूढ़े बुजुर्ग कहा करते थे कि आज ट्वाला दिख रहे हैं तो समझों फलां गांव में कोई अनिष्ट होने वाला है। यह तय है कि किसी की मौत निश्चित है।

भले ही अब यह सब बर्षों से कहीं देखने को नहीं मिलते जिस से यह आभास होता है कि अब वह तिलिस्मी दुनिया धीरे धीरे समाप्त हो गयी है। जब भूत प्रेत गायब हो गए तो स्वाभाविक है कि देवताओं ने भी जगह छोड़ दी है।

ट्वाला या भूताशय के बारे में अगर वर्तमान के युवावर्ग को अनुभव लेना पड़े तो उन्हें बता दूँ उनकी बारात ठेठ वैसे ही निकलती है जैसे चूल्हे में रखे गर्म तवे के निचले भाग में कभी कभी एक छोटी सी चिंगारी फूटती है और वह धीरे धीरे एक से अनेकों में तब्दील होकर एक लाइन सी बना देते हैं। ट्वाला का प्रकाश पुंज भी ऐसे ही फैलता था दूर से पहले वह सिर्फ रोशनी का एक पुंज दिखता था धीरे धीरे वह बढ़ता हुआ अनेकों में तब्दील हो जाया करता था।
बहरहाल अब न डर रहा न कुछ पुरानी वस्तुवें । शायद वर्तमान जनरेशन इसी लिए यह सब ढकोसला समझती है। लेकिन जौनसार में अभी भी कई ऐसे शमशानी विद्या के ज्ञाता हैं जो मृत आत्मा को बुलाकर पुछवा लेते हैं कि उसकी मौत स्वाभाविक हुई है या नहीं। इसे मशाणीया विधा कहते हैं। भूताशय ही अब खोये नहीं बल्कि कई और तिलिस्मी लोक अब लुप्त हो गए हैं।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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