……..दादू बै पोतळी देखिनी, लेंद मिन रेशमी रुमाल ! सुर और शब्द की अनूठी जुगलबंदी।
(मनोज इष्टवाल)
कालजयी रचनाकार व गायक आखिर नरेंद्र सिंह नेगी ही क्यों? यह प्रश्न हर उस गीत समीक्षक/समालोचक/आलोचक के मनमस्तिष्क में अवश्य गूँजता होगा जो उत्तराखंड के लोकगायक व गीतकारों पर अपनी विचारधारा प्रकट कर उसे स्याही में डूबी कलम से कागज में उतारता होगा। रचनाओं को जीवन देना ठीक वैसे ही है जैसे एक शिल्पी पत्थर को मूर्ति में तब्दील करता है, एक राजमिश्री पत्थर पर काष्ठ कला व लकड़ी पर पाषाण कला उदृत कर अपनी छेनी हथौड़ी से उसमें आत्मा डालता है। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने जब सुप्रसिद्ध कवि/गीतकार कन्हैयालाल डंडरियाल की इस रचना को गीत में ढालकर इसमें आत्मा फूंकी होगी तो स्वाभाविक है इसमें लय, ताल, छंद व संगीत के कई मर्म एक साथ उनकी स्वरलहरी के साथ गूंजे होंगे। कितनी बार कलम शब्दों को संगीत के मीटर पर लाने को उठी होगी व कितनी बार वह तपस्या टूटी होगी जिसमें स्वर और लय का मिजान शब्दों में प्राण फूंकने का काम करते हैं। तभी तो इसे दो पुरोधाओं ( लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी व रचनाकार स्व. कन्हैयालाल डंडरियाल) सुर और शब्द की जुगलबंदी कहा जा सकता है।
ये देखिये:-
अल्हड़ता और उभरती जवानी के उभरते प्रेम के लिए इससे बेहतर रचना व शब्द संरचना मुझे आज तक नहीं दिखी..!
“अंज्वाळ” एक पतली सी गढ़वाली रचनाओं की किताब और उसमें छुपे कई ऐसे ही बेहद मर्म जोकि आपकी रगों में छोटी-छोटी चींटियों सी चहलकदमी कर एक अहसास जगा देती हैं। ये रचनाधर्मिता उस मूर्धन्य कवि की हैं जिनका बचपन मवालस्यूं (चौन्दकोट) के उन खेत खलिहानों में बेहद चंचलता और चपलता से गुजरा, जहां की माटी के लोग उन्हें बचपन में कृष्णकन्हैया कहकर सम्बोधित करते थे। शैतान इतने की आकाश पर सुराग कर दें और तो और भगवान के बम्ब पर चूटी काटने की काबिलियत रखते थे। ऐसे थे अपने पौड़ी गढ़वाल, विकास खण्ड एकेश्वर पट्टी- मवालस्यूँ, नैली गॉव के इस गीत के रचियता कन्हैया लाल डंडरियाल। जिन्होंने अपनी युवावस्था दिल्ली की सड़कों पर नंगे पैर काटी और जीवंत पर्यंत ऐसी ही साधना में लिप्त रहे। उनके एक एक शब्द इतने कीमती नजर आते हैं मानों इस धरा में इस से कीमती कुछ हो ही नहीं सकता।
अंज्वाळ नामक इस पुस्तक में लिखे इस कवितामयी गीत के शब्द संसार को जब सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने श्रृंगारित किया उसकी मांग सजाई तो इसकी कीमत इस धरा की माटी के चहेतों के लिए अनमोल हो गयी।
वर्तमान के गढ़वाली भाषी हम लोगों में से ज्यादातर शायद इन शब्दों के गूढार्थ नहीं जानते होंगे, वर्तमान के युवा तो शायद ही बता पाए कि उन्होंने ऐसा क्या लिखा जिसे कालजयी रचनाकार व लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने ठीक उतनी ही उंचाई दी जितनी गीत की मर्यादा है-
“दादू मिल रौन्सल्यूं का बीच, बैठिकी बाँसुळी बजैनी,
दादू मिन चैढीकि चुळन्ख्युं, चळकदा ह्युंचल़ा देखिनी.”
दूसरी पंक्ति में वर्णित चुळन्ख्युं शब्द का भावार्थ शायद जल्दी से कोई निकाल पाए। वहीँ सम्पूर्ण पंक्तियों के भावार्थ पर अगर हम जाएँ और जिसने भी गॉव का जीवन जिया है तो यकीन मानिए वह अपने अतीत के उन सुनहरे पलों को संजोकर उदमत्त होकर अपने लडकपन की उस अल्हड़ता को याद अवश्य करेगा, जिसे उसने स्वयं जीया होगा। उन्होंने इस पूरे शब्द संसार को इतनी बखूबी प्रस्तुत किया है कि बचपन से जवानी की हर नौटंकियां हर अदाएं बेहद खूबसूरत शब्दों में ढालकर जनमानस को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि हर एक यह सोचने को मजबूर हो जाय कि यह गीत तो मुझ पर ही केन्द्रित है।
उन्होंने बचपन को जिस स्वरूप में परिभाषित किया उसकी कल्पना मात्र से शरीर के रोंवे खड़े हो जाते हैं। नेगी जी ने उनकी पंक्तियों में अपनी जिव्हा अमृत को कुछ यूँ छलकाया है-
दादू मेरी सौंजडया च काफू, दादू मेरी गैल्या च हिलांसी,
दादू मी बाजू को पियारो, दादू मी माँजी को लाडूलो।
छायू मेरा गौळआ कु हंसूळओ, दादू रे बौजी कु भिटूलो।
सचमुच इन शब्दों के सार की मार से जाने कितने रुंवासे दिल आज भी घायल होते होंगे, जो अपने बचपन को त्याग जवानी और बुढापे की सीढ़ियों की थकान मिटाने की कोशिश कर रहे होंगे। उन्होंने अपने प्रेम प्रसंग के शब्दों में प्रेयसी का जितना सुंदर और शिष्ट वर्णन किया है उसका हर कोई कायल हो सकता है। उन्होंने जवानी के उस हुश्न को जो इज्जत बक्शी है हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आप ही देखिये –
दादू रे उड़मिळआ बुरांशुन, लूछिन भौंरों की जिकुड़ी,
दादू बे किनग्वडो का बीच, देखि मिन हैन्सदी फ्योंलड़ी।
देखि मिन म्वारियुं को रुणाट, दादू रे कौथिगु का थाळ,
दादू बै पोतळई देखिनी, लेंद मिन रेशमी रुमाल ।
अब इन शब्दों में प्रेमी ह्रदय की रसिकता उदारता और व्यक्तित्व की झलक महसूस कीजिये, जैसे उड़मिळआ, रुणाट, जैसे शब्द जब परिभाषित होते हैं तो पूरा कायाकल्प ही कर देते हैं। मानों किसी खूबसूरत यौवना ने प्रेम के भवसागर में डुबकी लगाईं हो वहीँ अपनी नाकाम प्रेम की कशिश, लाचारी के लिवास को उन्होंने जब ओड़ा तो उसका भी अंदाज उतना ही भावपूर्व हृदय कचोटने वाला है-
दादू ऊ रूड़ी का कौथीग, स्यूँदसी सैणा माकि कूल,
दादू ऊ सौंजडयों की टोल, ली ग्याया तीमला कु फूल।
तीमला कु फूल कहते हैं जिसने देख लिया उस से बड़ा भाग्यवान कोई नहीं हो सकता। कल्पना देखिये वह कितनी रूपसी रही होगी जिसे यह इस गीत के रचनाकार स्व. कन्हैयालाल डंडरियाल ने अपनी कल्पनाओं की प्रेयसी बनाकर तिमला के फूल से अलंकृत किया और वह कितनी पीड़ा रही होगी जिसे उनके दोस्तों की टोली ही चुनकर ले गयी।
वहीँ उन्होंने प्रकृति को भी खूबसूरती में ढालते हुए जलधारा (मंगरी) को अपनी प्रेयसी की कानों की झुमकी में वर्णित कर कुछ इस तरह परिभाषित किया-
झुमकी सी तुड्तुडी मंगरी, मखमली हैरी सी अंगडी,
फुल्वारियुं हल्कदी धौंपेली, घुंघटी सी लौन्कदी कुयेडी।
मखमली हरे भरे बुग्यालों को अपनी रूपसी की अंगडी (अंग वस्त्र) व फूलों के बाग में फेफनों तक पहुंचे बालों की लटें (धौंपेली) परिभाषित कर उसके घुंघट को पहाड़ों में छा जाने वाले कुहासे की संज्ञा देकर गीतकार ने एक अलौकिक छवि प्रस्तुत की है।
ऐसे रचनाधर्मी स्व. कन्हैयालाल डंडरियाल व रचना को सतरंगी आवरण में प्रस्तुत कर उसे गीत को बोलों में अपने अमृत कंठ से गुंजायमान करने वाले सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी को शत शत नमन
सम्पूर्ण गीत का रस्वादन करने के लिए लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का यह गीत युट्यूब में सुन लीजिये .गीत के बोल हैं- दादू मेरी उलरिया जिकुड़ी, दादू मी पर्वतुं को वासी