Sunday, September 8, 2024
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छ्वापा की कुखडी मरुलू ..यखी रा बुबा जवें राs.. लोक का लोकसमाज में सांस्कृतिक मिश्रण

(मनोज इष्टवाल)
यह मेरे हिसाब से उस काल का लोकगीत रहा होगा जब लोकसमाज व लोक संस्कृति की खट्टास-मिट्ठास खट्टे-मीठे माल्टे-संतरों व बड़े नीम्बू जिन्हें पहाड़ी परिवेश में कहीं चूक तो कहीं लिम्बा नाम से पुकारा जाता है व ज्यादात्तर जगह उसे गल-गल नाम से जाना जाता है. उत्तराखंड के पहाड़ी जनपदों में शिवालिक की निम्न पहाड़ियों से लेकर उतुंग हिमालयी शिखरों तक इनके मिश्रण की एक खट्टाई बनाई जाती है जिसमें सरसों का तेल नमक, हरे धनिया की पत्तियाँ, मूली, मूली की कोमल पत्तियाँ चीनी व घर का पिसा लोण (ऐसा नमक जिसमें मिर्ची, भुनी सरसों, लहसुन की फली, डली वाला नमक व अन्य कई तरह की जड़ियां मिलाई जाती हैं) मिलाया जाता है व इसके खट्टे-मीठे टेस्ट का स्वाद लेकर ज्यादात्तर गाँव की माँ- बहनें खूब टपकारा लेती हैं. ठीक उसी तरह यह गीत लोक में अनवरत पिछली सदी से इस सदी तक अपना जायका कायम रखे हुए है.
लोक में प्रचलित ऐसे तमाम गीतों को अपनी लोकधुन में सजाने के सल्ली लोकगायक स्व. चन्द्र सिंह राही का जबाब नहीं था. इस लोकगीत की विधा को जैसा का तैसा प्रस्तुत करने का सऊर भी उन्ही के पास था, यह लोकगीत न सिर्फ आज से 40 से 70 बर्ष पूर्व तक गाँव की बैंड पार्टी (मिर्चोड़ा गाँव के बैंड) के गायन में, बद्दी समाज के लोकगायन व लोकनृत्यों में, व शादी-बिबाह, मुंडन संस्कार के दौरान रात्री मनोरंजन करने बुलाये जाने वाली जोकरिंग पार्टी में पौड़ी गढ़वाल के  चौंदकोट बछेली गाँव निवासी राम प्रकाश बगछट, असवालस्यूं सौंडुल गाँव का अर्जुन हत्तगोला व कफोलस्यूं धारकोट का आनंद लाल इत्यादि प्रसिद्द थे व इनके मध्य यह गीत बहुत प्रचलित होता था. इसके पैजामे में ऐसा इलास्टिक लगा होता था कि ये लोग अपने कई रंगों से निर्मित इस पैजामा के अंदर नाचते गाते अपनी गर्दन खोंप देते थे व लोग खूब तालियाँ बजाते थे.
बरसों बाद लगभग आज से 06 बर्ष पूर्व इसी गीत को लेकर स्व. चन्द्र सिंह राही के पुत्र सुप्रसिद्ध संगीतकार राकेश राही ने इसमें पाश्चात्य संगीत के कुछ बाजे डाले लेकिन रिद्म को ठेठ पहाड़ का प्रतिनिधित्व करने वाली ही रखा. यह गीत 06 बर्ष बाद अब फिर से सबके लिए कर्णप्रिय बन गया है. दरअसल उत्तराखंडी संगीत में हो रहे लगातार प्रयोगों से लोक समाज उकता सा गया है. ऐसे में हो ये रहा है कि हमारे जड़ों से जुडी लोक परम्पराओं के गीत व उनकी लोक धुनें कानों में रूणाट व ह्रदय में गाजू उत्पन्न कर देते हैं. इस गीत ने भी कुछ ऐसा ही किया. आप भी सुनिएगा-
https://youtu.be/xmKWVfmh_Sc?si=111imwt8Y1t5h6Fr
लोकगायक  स्व. चंद्र सिंह राही जी ने तत्कालीन लोक के मर्म को जिस तरह संपादित किया है उसने वृत्ति व फिर्ति के लोक में प्रचलित इस गीत में चार चाँद लगा दिए। छवापा की कुखडी मरलू यखी रा बुबा जवैs रे… मुखड़ा बिशुद्ध रूप से लोक में प्रचलित गीत रहा है। इसकी शब्दावली में दो बार अमेंडमेन्ट हुआ है। पहले राही जी ने किया और अब राकेश भारद्वाज ‘राही’ की बेहतरीन कम्पॉजिशन में दिखने को मिल रही है। यकीनन पहाडी रसोई को जिस तरह सजाया गया है, वे शब्द अतुलनीय हैं। ससुराल आये जवाई के प्रति प्रेम की प्रकाष्ठा देखिये। महिला मुख (सासू के शब्द) से निकले शब्द उस परिभाषा को इतना ब्यापक कर देते हैं जिसकी तुलना करना संभव नहीं है। माँ (मूलत: ये शब्द फिर्ती पेशे के लोग जब गाया करते थे) के मुख से बेटी जब ससुराल से मायके आती है व उसका पति उसके साथ आता है। दो एक दिन बाद जब बेटी का पति अर्थात जवाई जब वापस लौटने की बात करता है, तो माँ सोचती है कि कम संसाधनों में मैं ऐसा आखिर क्या करूँ कि जवाई राजा आज भी रुक जाए। जब कोई विकल्प नहीं दीखता तो उसे वह मुर्गी याद आ जाती है जो अंड़ों को सेंकने के लिए भूखी प्यासी बैठी इस इन्तजार में बैठी है कि इनसे चूजे निकलेंगे व उसका परिवार बढेगा। दूसरी ओर माँ सोच रही है। मेरा जवाई खुश रहेगा तो बेटी ससुराल में खुश रहेगी। इसलिए अगर मुर्गी का बलिदान देना भी पड़े तो कोई बात नहीं।
राकेश जी तरह संगीत के साथ अपने प्रयोग करते हैं व जी जान लगा देते हैं उस से यही लगता है कि उनकी संगीत साधना दिनों दिन ऊँचाइयाँ छू रही है। इस गीत के संगीत में उन्होंने पाश्चात्य संगीत के प्रयोग के साथ लोक संगीत को जरा भी विरक्त नहीं होने दिया। यह अद्भुत है।
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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