बुग्याल संरक्षण: ढांडस बंधाता पंवाली का पशुचारण।
(वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगराण की कलम से)
दुफन्द से करीब साढ़े चार किलोमीटर की हल्की चढ़ाई के बाद ट्यूंली टॉप पार करते ही आप पंवाली कांठा बुग्याल में प्रवेश कर चुके हैं। दूर-दूर तक हरा मखमली कालीन बिछाए यह उपत्यका मानो आपकी ही प्रतीक्षा कर रही थी! आसमान और बिचरते बादलों की नजदीकियां यहां के नीरव और शीतल वातायन को और विस्मयी बना देती हैं। इस चिरशांति को यदि कोई भंग कर रहा है तो वह है, हरे पहाड़ी टीलों पर चरते पशुओं के गले पर बंधी घंटियों का मधुर संगीत। आप बुग्यालों में हों और चरते पशुओं की घंटियां न बज रही हों तो जान लीजिए आप सैर के सबसे सलौने अहसास से वंचित हैं। दूर-दूर तक चरते पशुओं की ये घंटियां किसी आकस्मिक खतरे की सूरत में चरवाहों के लिए अलार्म का भी काम करती हैं।
हालांकि इस बात की चर्चा अवश्य होनी चाहिए कि हिमालय और इसकी जैव विविधता के रखवारे इन बुग्यालों में पशुचारण का स्वरूप क्या हो ! क्या हम यहां बड़ी तादाद में हर तरह के पशुओं को चरने की आजादी दे दें ! यदि हम भेड़ बकरियों के अलावा बड़े पैमाने पर गाय-बैल-भैंस और घोड़े-खच्चर जैसे बड़े पशुओं को यहां विचरने की इजाजत देंगे तो बुग्यालों की हरितिमा कब तक अक्षुण्ण रह सकेगी! जानकार मानते हैं कि बड़े जानवरों के भारी-भरकम खुर बुग्यालों की संवेदनशील मिट्टी के क्षरण को भी बढ़ावा देते हैं। इस क्षेत्र में यह क्षरण बड़ी-बड़ी दरारों की शक्ल में दिखता भी है जिसे रोकने के लिए वन विभाग ने जगह-जगह खास तरह की नेटिंग (जालियां) की हुई है।
पंवाली की स्थिति इस लिहाज से ढाढस बंधाती है कि यहां स्थानीय पशुचारकों के मवेशी नियंत्रित संख्या में हैं और अनुपयोगी पशुओं की संख्या नाममात्र है। यहां स्थानीय गांवों के करीब 18 परिवार हैं। इनमें ज्यादातर की छानियां ट्यूंली टॉप से काफी पहले हैं। लिहाजा उनके जानवर मुख्य बुग्याल में नहीं जाते और आसपास की ढलानों पर ही चरते हैं। ये पशुचारक चैत्र आरंभ होते ही अपने-अपने मवेशियों के साथ यहां पहुंचते हैं और अश्विन तक यहीं ठिकाना बना लेते हैं। पशुओं के साथ सहजीवन की निमित्त उनकी परंपरागत छानियां इस दौरान पशुचारण से जुड़ी पारिवारिक और आर्थिक गतिविधि का भी केंद्र बन जाती हैं। ये लोग अक्टूबर के अंत तक अपना पशुधन लेकर नीचे उतरने लगेंगे। गांव के निकट भी इनके मरोड़े/चारागाह हैं, कुछ रोज वहां रुकेंगे और फिर दुग्ध उत्पादों की बिक्री और यात्रियों/ सैलानियों की आवभगत से हुई थोड़ी बहुत कमाई के साथ अपने परिवारों से जा मिलेंगे।
पंवाली में अपनी छानी को हरी रेशमी ‘मामजू’ घास से ढक रहे जयकिरण सिंह अपने मवेशियों के साथ वापस गांव लौटने से पहले अपनी छानी की सुरक्षा का हर प्रबंध कर लेना चाहते हैं, ताकि इस बीच यहां होने वाले आंधी-तूफान और हिमपात के प्रति बेफ़िक्र हो लिया जाए। जयकिरण ने बताया कि छानी की सुरक्षा के लिए छत को हर साल घास से छंवाना जरूरी है, पर यह काम बहुत मेहनत वाला है। घास और इसे मजबूती से टिकाने के लिए रिंगाल (बांस जैसी ही प्रजाति) की लंबी टहनियों बहुत दूर जंगल से लानी पड़ती है। अब इस परंपरागत पद्धति का लोप होता जा रहा है और लोग महंगे टिन-टिप्पड़ और पन्नी-तिरपाल इत्यादि के कम परिश्रमी विकल्प अपनाने लगे हैं।
पशुओं के साथ छानियों का जीवन बहुत कठोर है। नमक-राशन से लेकर हुक्का-बीड़ी तक, हर चीज मीलों दूर से जुटानी पड़ती है। इसके अलावा यहां रहने के लिए मौसमी प्रतिकूलताओं से लड़ना आना चाहिए। फॉरेस्ट विभाग के कायदे-कानून यहां काफी सख्त हैं। छानी का विस्तार नहीं कर सकते, कुछ उगा नहीं सकते। वनोपज के इस्तेमाल पर रोक है। वन्यजीवों का शिकार तो गंभीर श्रेणी का अपराध है ही। छानियों में राशन इत्यादि पहुंचाने का एकमात्र साधन खच्चर हैं। निकटतम बाजार घुत्तू से खच्चर में सामान की ढुलाई का एक फेरा ही तीन से चार हजार रुपये का पड़ता है। हालांकि इस क्षेत्र में पंजा से पौबागी तक रोप-वे भी है। पशुचारक लक्ष्मण राणा ने बताया कि उन्होंने इस बार अपना राशन इसी ट्राली से मंगाया। हालांकि रोप-वे की अंतिमता से पंवाली की छानियां करीब सात-आठ किलोमीटर दूर हैं, लेकिन यदि इस सुविधा का सतत उपयोग किया जाए तो पंवाली और घुत्तू के बीच एक बेहतर डेयरी उद्योग पनप सकता है। वर्ष 2008-09 की इस परियोजना का मकसद ही इस क्षेत्र में दुग्ध एवं सब्जी विपणन को विस्तार देना था।
स्थानीय निवासी चाहते हैं कि घुत्तू से कैलबागी तक पहुंच चुकी मोटर रोड आगे बढ़े और पंवाली होकर त्रियुगीनारायण तीर्थ से जुड़े। हमारी पंवाली यात्रा के सूत्रधार पर्वतीय लोक विकास समिति, नई दिल्ली के संस्थापक अध्यक्ष सूर्य प्रकाश सेमवाल और इसी घाटी के वीर सिंह राणा भी मानते हैं कि संरक्षित पर्यावरण के साथ इस पैदल मार्ग को मोटर सड़क में बदलने के कई फायदे होंगे। इससे यह समूचा क्षेत्र विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकेगा। इससे चारधाम यात्रा को नया वैकल्पिक मार्ग मिलेगा और अलकनंदा घाटी पर तीर्थयात्रा का बोझ भी कम किया जा सकेगा। श्री सेमवाल ने बताया कि पैदल वाले जमाने में गंगोत्री-यमुनोत्री से केदारनाथ जाने के लिए श्रद्धालु इसी मार्ग का उपयोग करते थे। इसका प्रमाण पंवाली में डेढ़ सौ साल पुरानी बाबा कालीकमली धर्मशाला है जो जीर्ण-शीर्ण हालत में अब भी खड़ी है। हर साल यात्रा सीजन में करीब दस हजार यात्री इस मार्ग से आज भी केदारनाथ धाम जाते हैं। इनमें बड़ी संख्या कांवड़ियों की है।
श्री सेमवाल ने बताया कि इस इलाके में सक्रिय भिलंगना क्षेत्र विकास समिति, खतलिंग-देवलंग भिलंग समिति और व्यापार मण्डल घुत्तू के सहयोग से पर्वतीय लोक विकास समिति ने वर्ष 2015 से ‘खतलिंग हिमालय जागरण महायात्रा’ के पुनर्रारम्भ का बीड़ा उठाया। यात्रा अब तक खतलिंग, सहस्रताल और पंवाली क्षेत्र को कवर कर चुकी है। 80 के दशक में हिमालय गौरव इंद्रमणि बडोनी जी ने इस ऐतिहासिक महायात्रा की नींव डाली थी। दूरदर्शी बडोनी चाहते थे कि तिब्बत की सीमा से लगे सामरिक दृष्टि से संवेदनशील खतलिंग को अमरनाथ की तरह भगवान शिव के धाम के रूप में स्थापित किया जाए ताकि क्षेत्र के उपेक्षित गांव विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें। बडोनी जी की ही सोच का परिणाम है कि सालों-साल से अलग-थलग इस भिलंगना तीर्थ क्षेत्र का जनजातीय समाज (गंगी गांव) आज प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत मोटर मार्ग से जुड़ गया है और प्रगति की नई इबारत लिख रहा है।