बिसूड़ी ताल- जहाँ मरने के बाद नहला देने से छोटे बच्चे बन जाते हैं देवात्मा !
(मनोज इष्टवाल)
यकीनन उत्तराखंड का हिमालयी भू-भाग जहाँ साहसिक, रोमांचिक यात्राओं के लिए विश्व प्रसिद्ध है वहीँ इसके हर पर्वत पहाड़ पर देव-दानव वास रहा है। आज हम एक ऐसे ट्रेक पर “मुसाफिर नामा” (दोस्तों का ग्रुप) के सहयोगियों के साथ निकल रहे हैं जिन्होंने उत्तराखंड की कई चोटियों को फतह करने व हिमालयी भू-भाग को समझने के लिए एक मुहीम के तौर पर ट्रेक शुरू किया है।
सोशल साईट पर ही कुछ मित्रों में बात हुई और 29 सितम्बर को ये मुसाफिर अपने गणतब्य के लिए निकल पड़े। 30 सितम्बर 2017 को दिल्ली से अमित तिवारी, संजीव त्यागी व शशि चडड़ा जबकि उत्तराखंड शशि नेगी अलग अलग दिशाओं से अपने गंतब्य के लिए रवाना हुए जिन्हें उखीमठ में इकठ्ठा होना था। वहां रांसी गाँव के रविन्द्र भट्ट व उन्हीं के गाँव के 4 पोर्टर बेसब्री से इन्हीं लोगों का इन्तजार कर रहे थे। यानि हम चार के अलावा पांच और सदस्य टीम में यहाँ से शामिल हो गये थे। इस टीम में एक निराले सदस्य शशि चड्डा हैं जो कहीं भी सफर करें अपनी बाइक से ही करते हैं। उन्हें अपनी बाइक से इतना प्यार है कि गजरौला से उखीमठ की दूरी भी उन्होंने बाइक से ही पूरी की।
दोपहर 12 बजे सब उखीमठ में इकठ्ठा हुए जहाँ से दोपहर का भोजन खाकर सारी गाँव के लिए निकले। सारी गाँव से 2 बजे मुसाफिर नामा के सभी सदस्य लगभग 2.50किमी. पैदल यात्रा तय करते हुए शांय 4:15 बजे देवरिया ताल पहुंचे जहाँ इन्होंने रात्री बिश्राम करना इसलिए भी उचित समझा क्योंकि यहाँ से इन्हें अब पहाड़ दर पहाड़ फतह करने थे। सभी लम्बी यात्रा कर यहाँ पहुंचे थे इसलिए सब आज रात पसरकर सोना चाहते थे।
देवरिया ताल के आस-पास ठंड ने अपनी झुरझुरी शुरुआत कर ही दी थी. सुबह( 1 अक्टूबर 2017 ) जब उठे तो घना कोहरा छाया हुआ था, मौसम खराब था और देवरिया ताल के आस-पास भीड़ बहुत थी। हमने अपने अपने रुक्सेक बांधे जरुरी सामान अपने पास लिए बाकी पोर्टर के जिम्मे कर लगभग 9 बजे पहाड़ चढ़ने के लिए तैयार हुए। देवरिया ताल से 4 किमी. दूरी पर झंडीधार पहुंचना हमारा लक्ष्य था। मौसम की गमगीनी देखते हुए लग रहा था कि बारिश हो सकती है लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं हम हंसी ठिठोली करते करते झंडीधार कब पहुँच गए पता तक नहीं चला। झंडीधार से एक रास्ता रेणुका बुग्याल के लिए जबकि दूसरा रास्ता चोपता के लिए निकलता है लेकिन बिंदु भट्ट व हमारे साथ चल रहे पोर्टरों ने हमें यहाँ से बांयी ओर बह रहे गदेरे की तरफ का रूट चुनने की सलाह दी।
यहीं से आगे चलकर एक रास्ता चित्रगुफा के लिए जाता है लेकिन देवरिया ताल से लगभग 14 किमी. दूरी तय करते हुए थकान से चूर-चूर हम लोगों ने 2 अक्टूबर को नदी किनारे ही कैंप लगाने की सोची। यह स्थान समुद्र तल से लगभग 2700 मीटर की उंचाई पर स्थित है। यहाँ से पालसी लोग (भेडाल/ भेड़ चुगाने वाले) शायद कुछ घंटे पहले ही अपने दूसरे पड़ाव के लिए निकले थे क्योंकि यहाँ अभी भी भेड़ बकरियों का ताजा मल, चूल्हे की बुझी आग व गर्म राख मौजूद थी। यकीनन इतना चलने से थकान बहुत थी और अन्धेरा घिरने लगा था। उपयुक्त स्थान देखते हुए हमने अपने अपने टेंट लगाने शुरू कर दिए जबकि पोर्टर खाना बनाने के लिए लकडियाँ इत्यादि इकट्ठा करने में जुट गए। सच पूछिए 14 किमी. लम्बी यात्रा यकीनन एक दिन में तय कर पाना ज़रा कठिन सा काम है फिर भी हमारी टीम पूरे जोश से अपनी मुहीम के साथ आगे बढ़ रही थी। रात्री पहर में हम कब सोये यह थकान ने महसूस होने ही नहीं दिया
3 अक्टूबर आज हमें यकीनन बेहद कठोर परिश्रम के साथ आगे बढना था क्योंकि हमारा अगला लक्ष्य यहाँ से मात्र 11किमी. दूरी पर स्थित थौली बुग्याल था जिसके लिए हमें खड़ी व कठिन चढ़ाई चढ़नी थी। यह चढ़ाई यकीनन जानलेवा थी क्योंकि इस पर कहीं कहीं ऑक्सीजन की कमी भी महसूस होती दिखाई दी। इसकी उंचाई लगभग 3400 मीटर है . रास्ते में गुरल, थरल, गरुड इत्यादि वन्य जीव दीखते तो प्राण में प्राण आते। कलकत्ति धार पार करना तो माना दुरूह कार्य हो. जंगल का रास्ता और वह भी रास्ते का ठीक ठीक अनुमान लगाना ज़रा कठिन काम लग रहा था। टीम लीडर अमित तिवारी एक अच्छे ट्रेकर्स की तरह सबका उत्साह बढ़ा रहे थे। एक स्थान ऐसा भी आया जब टीम के एक सदस्य ने कहा आप चलो मैं यहीं रुकता हूँ! लेकिन तब थौली बुग्याल बिलकुल पास था और सुबह 10 बजे के चले हम लोग लगभग 5:30 घंटे में थौली बुग्याल पहुँच पाए जिसका अर्थ यह हुआ कि हम बमुश्किल दो किमी प्रति घंटे की स्पीड से इस 8 किमी. की चढ़ाई तय कर पाए। सबने थौली बुग्याल पहुंचकर रात्री बिश्राम का मन बनाया। यहाँ से गगन चूमती हिमालयी शिखरें लालयित कर देने वाली थी मानो हाथ बढ़ाकर छू लें किसी के कैमरे पर अंगुलियाँ क्लिक की आवाज करती तो किसी के मोबाइल पर…! यकीनन यहाँ पहुँचने के बाद सर्द हवाओं के झोंकों व शुद्ध वातावरण ने जल्दी भी थकान गायब कर दी थी। पसीने से भीगे कपडे बदलने भी जरुरी थे इसलिए सभी टेंट ब्यवस्थित होने का इन्तजार कर रहे थे।
शशि नेगी बताती हैं कि 4 अक्टूबर को हम सुबह 9:30 बजे थौली बुग्याल से बिसूडी ताल के लिए निकल पड़े, जिसकी उंचाई समुद्र तल से लगभग 3900 मीटर है. यहाँ से चढ़ाई काफी मुश्किल थी। पोर्टर भले ही इसे मात्र 2 से 3 किमी दूर बता रहे थे लेकिन मेरे अनुमान से यहाँ से बिसुड़ी ताल लगभग 5 किमी. रहा होगा।
डांडीधार बुग्याल से अब हलकी चढ़ाई थी बस अब यकीन होने लगा था कि हम ये पहुंचे, लेकिन समय अपनी गति से आगे बढ़ता हुआ हमारे क़दमों से तेज चल रहा था। आखिर मौसम ने करवट बदली व जैसे ही हम बिसूडी ताल के करीब पहुंचे बादलों ने ताल को अपने आगोश में समा लिया मानों कह रहा हो इतनी भी क्या जल्दी है आराम से बिश्राम करो और फोटो सुबह लेना। हम यहाँ लगभग 12:30 बजे दोपहर पहुँच गए थे लेकिन बिसूडी ताल पर बादलों की चादर ऐसे छाई मानों नई नवेली दुल्हन ने घूँघट कर लिया हो। यहीं रास्ते में पालसियों यानि भेड़ पालकों का घर भी हमें मिला। रात को खिचडी, ओट्स व मैगी खाकर हम अपने अपने तम्बुओं में दुबक गए क्योंकि ठंड अधिक थी। बोन फायर करने का विचार मन में जितनी तेजी से आया उतनी ही तेजी से चला भी गया।
शशि बताती हैं कि अगली सुबह (5 अक्टूबर) मेरी जल्दी नींद खुली, मैं जैसे ही अपने तम्बू से बाहर निकली तो भौंचकी रह गई क्योंकि पिछली शाम लग रहा था कि इतनी चढ़ाई बेकार चढ़ी लेकिन सुबह जब मौसम के खुलने के बाद नजर दौड़ाई तो सामने खडा हिमालय अभिवादन कर रहा था वहीँ एक ओर पूरी तुंगनाथ वैली तो दूसरी ओर मदमहेश्वर वैली ने मन्त्र मुग्ध कर दिया। मैं बिना किसी को बताये चुपचाप आगे निकल गयी और फोटो खींचने में इतनी मशगूल हो गयी कि समय का पता भी नहीं चला। यहाँ किसी बड़ी चिड़िया का ताजा-ताजा किसी जानवर ने आहार किया था लेकिन यह देर से समझ आया कि आस-पास स्नो लेपर्ड भी हो सकता है। इसलिए वह फ़ौरन अपने कैम्प की ओर लौट गयी।
कैम्प लौटी तो पाया नाश्ता तैयार है और टेंट बंधने शुरू हो गए थे। मैंने भी देर करनी उचित नहीं समझा सामान बाँधा नाश्ता किया व बिसुड़ी बुग्याल को प्रणाम किया और कदम वापसी को बढ़ चले। इस बार हमारा लौटने का रूट अलग था। हम बिसूडी ताल से डांडीधार होते हुए थौली बुग्याल पहुंचे जहाँ से हमने टिगरी बुग्याल की चढ़ाई नापी। टिगरी बुग्याल के बाद जबरदस्त उतराई वाली ढलान थी जहाँ कदम बेहद सम्भालकर रखने पड रहे थे। और तो और आगे चलकर हम रास्ता भूल गए। हमारे गाइड रविन्द्र भी बुरी तरह कन्फ्यूज थे। हाई अल्टीटयूट पर यकीनन कई जगह दिमाग काम करना बंद कर देता है व मानसिक दशा भी कई बार ऐसी हो जाती है। लगातार चढ़ाई चढ़ते संजीव त्यागी आखिर बोल ही पड़े। आप जाओ मैं तो यही रुकुंगा।
आखिर हमने निर्णय लिया कि चढ़ाई की जगह समांतर चलते हुए नया रास्ता बनाए ताकि चढ़ाई भी कम हो और थकान भी न लगे। यकीनन ऐसे स्थानों पर आने के बाद पानी की कीमत पता चलती है। मुंह सूख रहे थे फिर भी पानी हम बूँद के हिसाब से ही गटक रहे थे। यहाँ से हम बरुवा गाँव पहुंचे जहाँ आज बुग्यालों से भेड़ों व भैंसों के गाँव लौटने पर उत्सव होने वाला था। बुरुवा अपने आप में काफी बड़ा गाँव है।
बिसुडी ताल के बारे में अवधारणा।
यहाँ के ही स्थानीय लोगों से जानकारी मिली कि बिसूडी ताल में छोटे बच्चों की मौत के बाद उन्हें नहलाने से यह माना जाता है कि वे साक्षात देवता बन गए हैं। इसके पीछे क्या लॉजिक हो सकता है यह तो नहीं मालुम लेकिन यहाँ आम लोगों की अवधारणा को भी गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह भाग यकीनन देवतुल्य भू-भाग ही है इसमें कोई दोराय नहीं। स्थानीय लोगों की अगर दलील मान ली जाय तो यह भी सत्य ही प्रतीत होता है क्योंकि नौनिहाल में अबोध बालक देवतुल्य यों भी होता ही है। अगर यह अवधारणा ही है तब लोग मीलों पैदल चलकर मरे हुए बच्चे को इस तालाब में नहलाने के लिए क्यों लाते। बहरहाल अतुल्य हिमालय के इस शिवलोक में कुछ भी सम्भव है।
आखिर थके हारे हम 6 बजे शांय सड़क मार्ग पहुंचे जहाँ से टैक्सी पकड हम अपने मनतब्य यानि रांसी गाँव वापस लौटे। इस यात्रा ने यह तो साबित कर दिया कि हिमालय को जीतने के लिए हिमालय सा दिल चाहिए। लौटते समय हमें मात्र 20 किमी. का सफर तय करना पड़ा वहीँ हम आसमान से धड़ाम जमीन पर आ गिरे। कहाँ बिसुड़ी ताल की ऊंचाई 3900 मीटर और कहाँ सड़क 1500 मीटर!