उत्तराखंड के लिए बड़ा पर्यावरणीय खतरा। 1923 से 2023 तक 100 बर्ष के इतिहास में आया मौसम में बड़ा परिवर्तन!
(मनोज इष्टवाल)
आंग्ल कैलेंडर के हिसाब से जहाँ उत्तराखंड ही नहीं अपितु समस्त विश्व ने अपना नवबर्ष घोषित कर दिया है वहीँ अभी भी हिन्दू देशों के हिसाब से नेपाल व उत्तराखंड ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत बर्ष का नया संवतसर अभी शुरू नहीं हुआ है लेकिन आंग्ल बर्ष की समाप्ति के साथ जिस तरह का सूखा मौसम पूरे साल भर में मौसम परिवर्तन के अनुसार बर्ष 2023 दिखा वह चिंता का बिषय है क्योंकि विगत बर्ष में बेमौसम बरसात बढ़ी है आपदाओं ने पूरे प्रदेश में कहर बरपाया जोकि राज्य निर्माण के बाद से इन 23 सालों में हम विकास के साथ-साथ बिनाश लीला भी लगातार देखते आ रहे हैं। यह सचमुच घातक इसलिए भी है क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में आइये मौसम परिवर्तन ने विश्व के भूगर्भ वैज्ञानिकों व मौसम वैज्ञानिकों को चिंताओं में डाल दिया है।
अगर इस परिपेक्ष्य में हम उत्तराखंड राज्य की बात करें तो ऐसा सूखी शीत ऋतु लगभग 50 बर्षों के इतिहास में कम ही दिखने को मिली है। अब अगर ब्रिटिश कालीन गढ़वाल-कुमाऊं की बात करें तो 1815 से 1947 तक के 132 साल के इतिहास में जितनी भी रिपोर्ट्स मौसम से संबंधित हैं उन्हें अंग्रेजी लेखक जिनमें ट्रेल, गार्डनर, बैटन, बेकेट, एटकिनसन, पौ, शैरिंग, क्लो, इबेटसन, स्टोवेल, यो ‘मेस्टन, वेबर, घोडेन, ग्रिशवाश, मिडिल मिस, ग्रियर्सन, पिलग्रिम, मौन्टेनियर, कोरबेट, फूरर इत्यादि प्रमुख हैं, के ग्रन्थों और लेखों में तथा मध्यहिमालय के शिखरों पर प्रारोहण करने वाले शिप्टन प्रादि के यात्रा-वर्णनों में उपत्यका के भूगोल, भूतत्व, इतिहास, सामाजिक और प्राधिक जीवन,भाषा आदि के सम्बन्ध में अनेक रोचक और महत्वपूर्ण सूचनाएँ संग्रहित हैं जिनमें उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन काल में पर्यावरण व मौसम परिवर्तन कई शोध व शोध-पत्र इन लेखकोंब्रिटेन द्वारा भेजी गयी रिपोर्ट्स का अंग हैं या फिर विभिन्न पुस्तकों के माध्यम से संग्रहित है।
ज्ञात हो कि ब्रिटिश शासन काल में सन 1889 में कुमाऊ में एक कमिश्नरी अल्मोड़ा में बनाई गयी थी जिसमें जिसमें गढ़वाल के कुछ हिस्से शामिल किये गये थे। वैसे कुमाऊं को 1839 में गढ़वाल व कुमाऊं दो जिलों में बाँट दिया गया था। 1839 में गढ़वाल मंडल सहायक आयुक्त अर्थात अस्सिस्टेंट कमिश्नर के अधीन था लेकिन बर्ष 1967 में इसे कुमाऊं से अलग कर पूर्ण कमिश्नरी घोषित कर दिया गया। व 1969 में गढ़वाल मंडल का पौड़ी मुख्यालय बनकर तैयार हुआ।
ब्रिटिश लेखकों के शोध पत्रों व पुस्तकों का अगर अध्ययन किया जाय तो इनके सर्वेक्षण व पुस्तकों में कुछ इस तरह इंगित किया गया है कि इस प्रदेश के निवासी वर्ष को तीन ऋतुओं में बांटते हैं। रूड़ी या ख़रसाऊ, फाल्गुन से ज्येष्ठ तक, बस्काल या चौमासा आषाढ़ से असूज तक तथा ह्यूंद शीतकाल कार्तिक से माघ तक।
रूड़ी के पूर्वार्द्ध, वैशाख में, उच्च शिखरों के निकटवर्ती प्रदेश में अल्पकालिक ‘चलबसन्त’ तूफान आाते हैं, जिनमें अत्यधिक वज्र – गर्जन और बिजली की चमक होती है। जिस कारण वर्षा और ओलों से कभी- कभी खेती को बड़ी हानि पहुंचती है। उपत्यका के निचले भागों में बैशाख-ज्येष्ठ में औडल तूफान आते हैं। रात को आकाश अचानक बादलों से घिर जाता है। बिजली चमकती है, आंधी-तूफ़ान आता है और थोड़ी-सी वर्षा हो जाती है। इनसे आम के फलों और वृक्षों की शाखाओं को बहुत हानि पहुंचती है।
वैशाख से ही निचली घाटियों में तापमान बढ़ने लगता है। आम जन छाया में चलना पसन्द करते हैं। ज्येष्ठ में निचली घाटियों में. विशेषकर, भाबर में असह्य तापमान हो जाता है जो ११० फा० तक पहुंचताहै। नदी-नाले सूख जाते हैं , और पशु-पक्षी व्याकुल होने लगते हैं। भाबर से बहुत-से व्यक्ति अपने परिवार और पशुओं को लेकर अपने पहाड़ी गांवों में चले आते हैं। ग्रीष्मांत में धूल के तूफान चलने लगते हैं।
पठार और ऊंची घाटियों में ज्येष्ठ से सुहावनी ऋतु आरम्भ होती है। उत्तराखण्ड के तीर्थों की यात्रा वैशाख-ज्येष्ठ से चलती है। पठारों पर अधिकतम तापमान ६०-७० फा० और बुग्यालों में दिन में ६० फा० तक रहता है। इससे शरीर में बहुत उत्साह और स्फूर्ति बनी रहती है। इन दिनों महाहिमालय की नदियों में हिम पिघलने से बाढ़ आती हैं ।
आषाढ़ के आरम्भ में वर्षा ऋतु आरम्भ होती है। बम्बई (मुंबई) से मानसून को पहुंचने में प्रायः 15 दिन लग जाते हैं। किन्तु पिडार से उत्तर की ओर ज्येष्ठ में यदाकदा स्थानीय वर्षा होने लगती है। निचली पहाड़ियों की अपेक्षा भाबर में वर्षा देर से होती है। आरम्भिक वर्षा से भूमि का बहुत कटाव होता है और सड़कें मलवे से ढ़क जाती हैं। पर्वतपात तथा नदियों की बाढ़ों से अनेक खेत नष्ट हो जाते हैं तथा मनुष्य और पशु बह जाते हैं।
श्रावण या भाद्रपद में कुछ दिन के लिए वर्षा बन्द होकर जब तेज धूप पड़तीहै, तो निचली घाटियों में मलेरिया फैलता है। असोज में वर्षा समाप्त हो जाती है ।निचली घाटियों की अपेक्षा ऊंची पहाड़ियों पर अधिक बर्षा होती है और ४००० फीट की ऊंचाई तक बढ़ती चली है। इससे अधिक ऊँचाई पर वर्षा घटने लगती है।
भाबर और निचले पहाड़ी प्रदेश में वार्षिक बर्षा 40 इंच ने 70 इंच तक होती है, जिसका लगभग 80 प्रतिशत बरसात के बरसता है। 2500 फीट से 5000 फिट तक ऊँचे पठारों के निचले भागों में 80 इंच से लेकर ऊंचे भागों में 120 इंच तक वर्षा होती है, जिसका लगभग 80 प्रतिशत बरसात में बरसता है। 5000 से 10000 फीट तक ऊंचे पठारों पर 40 इंच से 80 इंच तक बर्षा होती है, जिसका लगभग 15 प्रतिशत शीतकाल में वर्षों और हिम से प्राप्त होता है ।
महाहिमालय की 10000 फीट से ऊंची भीतरी घाटियों में 40 इंच से 80 इंच तक वर्षा होती है, जिसका कम से कम 30 प्रतिशत शीतकाल में हिम के रूप में गिरता है और 50 प्रतिशत बरसात में वर्षा के रूप में। महाहिमालय के पार की घाटियों में 10 इंच से कम वर्षों होती है, जिसका 50 प्रतिशत से अधिक शीतकाल में हिमरूप में गिरता है।
कातिक, मार्गशीर्ष आनन्ददायक महीने हैं। दिन में चमकीली, सुखदायक धूप पड़ती है, रात को चांदनी छिटकती है और अधिक शीत नहीं पड़ती। पौष से शीत पड़ने लगती है। पौष, माघ में पठारों, पर शीतल चुभने वाली वायु ही हिमपात होने लगता है और चैत तक होता रहता है। ऊँचे स्थानों पर कार्तिक से आग सेंकने की आवश्यकता पड़ती है। यहाँ का जनमानस दिन में धूप सेंकने के लिए लालायित रहते हैं और दिन भर बाहर में काम करते हैं।
दिवाली तक शीत अत्यधिक बढ़ जाने से बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी के मन्दिरों के कपाट बन्द हो जाते हैं। इन पुरियों के निवासी तथा नीती- माणा और नेलंग के भोटांतिक अपने परिवार और पशुओं को लेकर अपने शीतकालीन आवासों के लिए चलप ड़ते हैं।
शीतकाल में लघुहिमालय से पठारों पर भी कुछ हिमपात होता है। जब महाहिमालय में हिम के प्रचण्ड तूफान चलते हैं तो निम्न व मध्यम हिमालयी क्षेत्र जैसे पौड़ी, बुआखाल, लैन्सडोन, सिलोगी, गूमखाल, चरेख, दीपाडांडा धोर नरेन्द्रनगर, नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत में भी कुछ हिमपात हो जाता है ।
शीतकाल में उपत्यका के निचले भागों में कुछ वर्षा हो जाती है लेकिन शीत अधिक नहीं पड़ती। जलवायु स्वास्थ्यवर्धक रहता है। इन दिनों लोग डटकर परिश्रम करते हैं। प्राचीन काल में सारी उपत्यका घने वनों से ढकी रही होगी। किन्तु सहस्राब्दियों से इस प्रदेश में आजीविका का मुख्य साधन कृषि और पशुचारण होने के कारण ज्यों-ज्यों जनसंख्या बढ़ती गई, वन सम्पदा नष्ट होती गई। अन्त में वन केवल ऐसी भूमि पर रह गए जो प्रत्यन्त ऊबड़-खाबड़ और चट्टानी होने के कारण कृषि योग्य न थी। अथवा जहां असह्य जलवायु, भीषण पशु, मच्छर और मलेरिया के कारण मनुष्य का बसना संभव न था।
संदर्भ : एटकिंसन – जिल्द १ , पृष्ठ २७५-७६ तथा बेकेट उ. मिनरालौजी पृष्ठ १७ , बेकेट उ. मिनरालौजी पृष्ठ -३०-३१-३२ , मिनरालौजी पृष्ठ ४ , ८, १३-१४, १६ , सप्रू- गढ़वाल पृष्ठ- १६ -१७ , ओडेन पृष्ठ ४-५ , राव पृष्ठ-११ -१२ , प्रसाद-टिहरी भू. पृष्ठ १, बेब र पृष्ठ ५७-५८, पंत पृष्ठ ३१, बेबर पृष्ठ २८-२९, एटकिंसन जिल्द १ पृष्ठ २५८, ओ ‘ मैस्टन पृष्ठ ८ व १०, बाल्टन पृष्ठ १५, एटकिंसन जिल्द १ पृष्ठ ८४९ ,राबर्टसन पृष्ठ -३।
यूँ तो ब्रिटिश शासन के दौरान भी यहाँ महामारी, हिमपात, बाढ़, भूचाल, और नरबक्षी बाघ जैसी आपदाएं दिखने को मिली हैं लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि ब्रिटिश-काल में उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा के रूप में गढ़वाल मंडल में सिर्फ दो बड़ी आपदाओं का जिक्र मिलता है जिसमें 26 अगस्त 1896 में बिरही गंगा की बाढ़ सम्पूर्ण गढ़ राज्य की राजधानी श्रीनगर व राजमहल लील गयी व श्रीनगर को दुबारा बसाने में ब्रिटिश सरकार को कई बर्ष लगे। दूसरी आपदा 10 अक्टूबर 1910 में आई जो अलकनंदा व भागीरथी तट पर बसने वाले सैकड़ों साधुओं को बहा ले गई। बर्ष 1923 से 1947 तक के ब्रिटिश राज्य में गढ़-कुमाऊं में ऐसी बड़ी आपदा का जिक्र नहीं मिलता जबकि उत्तराखंड राज्य निर्माण के 13वें बर्ष अर्थात 2013 की केदार नाथ आपदा के बाद हम हर बर्ष जनहानि, पशु हानि व भू हानि के रूप में लगातार देखते आ रहे हैं। ऐसे मौसम परिवर्तन के पीछे अगर देखा जाय तो प्रदेश एक अनियंत्रित विकास की दौड़ में विनाश की हर सीमा लांघता नजर आ रहा है। यह बेहद गंभीर है कि हम प्रकृति के मौसम परिवर्तन की चेतावनी व उसके मिजाज को नजरअंदाज करते जा रहे हैं। उत्तराखंड राज्य के 10 के 10 पहाड़ी जिले लगातार पलायन की जद में हैं फिर भी हमारे पास इसे रोकने के लिए ठोस नीति नहीं है या फिर हम व हमारी सरकारों का ध्यान इस ओर बिल्कुल नहीं है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हाल ही में उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में हुए ग्लोबल इन्वेस्टर समिट -2023 में जोर देकर कहा गया है कि यह दशक उत्तराखंड राज्य का दशक कहलायेगा, ऐसे में इस राज्य के नीति-नियंता अपनी कार्य योजनाओं को क्या अमली जामा पहनाएंगे यह कह पाना तो अभी जल्द बाजी होगी लेकिन यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि अगर अनियंत्रित विकास की अवधारणा पर हम गंभीर नहीं हुए तो यह प्रदेश आये समय में पर्यावरणीय चिंत्ता का सबब बन ने वाला है व इसके हिम शिखरों की गर्जनाओं में मौसम परिवर्तन के अलार्म के साथ आपदाओं का बिगुल हर बर्ष तेज और तेज होता जाएगा, इस बार से इंकार नहीं किया जा सकता।