Saturday, July 27, 2024
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भारती की “कहे-अनकहे रंग जीवन के” जिसने जैसा समझा.. वैसे ही जिया। काव्य नहीं बल्कि दिल से निकले उदगारों की श्रृंखला।

भारती की “कहे-अनकहे रंग जीवन के” जिसने जैसा समझा.. वैसे ही जिया। काव्य नहीं बल्कि दिल से निकले उदगारों की श्रृंखला।

(मनोज इष्टवाल)

यूँ तो मूर्धन्य कवि, लेखक व साहित्यकार पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी द्वारा कवि व काव्य पर एक लम्बा व्याख्यान इसी बात को लेकर दिया गया था कि हम कवि एवं कविता या काव्य संरचना की पांत में वर्तमान में कहाँ खड़े हैं? उनके संबोधन के बाद कुछ कहने को बचता नहीं है लेकिन फिर भी एक समीक्षक के तौर पर मेरा मानना है कि अपनी काव्य पोटली “कहे-अनकहे रंग जीवन के” में कवि भारती आनंद ‘अनंता‘ ने सिटकनी लगे वे दरवाजे जरूर खटखटाये हैं जिनमें खामोशी तो थी लेकिन धडकनें व साँसे झरोंकों से खुली आँखों से दरवाजे की खटखटाने की आवाज सुन ही नहीं बल्कि देख भी रही थी। भारती का यह प्रथम काव्य संग्रह प्रथम दृष्टा कवितायें कम बल्कि मन के उन उदगारों को कागज़ में उतारता नजर आया जिन पर समय की धूल की मोटी परतें जम चुकी थी। तभी तो “कहे-अनकहे रंग जीवन के” के भारती खुले मन से कह गई कि “जिसने जैसे समझा, वैसे ही जिया….।”

कवियत्री भारती आनन्द ‘अनन्ता’ के पहला काव्य संकलन “कहे-अनकहे रंग जीवन के”का लोकार्पण पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी, प्रसिद्ध साहित्यकार महाबीर रवांल्टा पद्मश्री प्रेमचंद शर्मा, डा० स्वराज विद्वान पूर्व सदस्य अनु० जा० आयोग भारत सरकार, सुप्रसिद्ध कवियत्री एवं लेखिका एवं कार्यक्रम की उदघोषिका श्रीमति बीना बेंजवाल ने दून पुस्तकालय के सभागार में संयुक्त रूप से किया है। इस दौरान पद्मश्री जगूड़ी ने कहा कि यह इक्कसवीं सदी की कवियत्री का पहला कविता संकलन है जिसमें आज की महिलाओं की स्वच्छन्दता का वर्णन किया है। कविताओं में पुरानी तुकबन्दी की को नये रूप में प्रस्तुत किया गया है। कविता की हर एक पंक्ति कुछ कहती है। उन्होंने कहा कि महिला की स्वतन्त्रता पर और कई कविताएं पाठकों के बीच में हैं, मगर भारती आनन्द अनन्ता ने स्वतन्त्रता की परिभाषा को कविता के रूप में प्रस्तुत किया है।

लोकार्पण समारोह में मुख्य वक्ता वरिष्ठ साहित्यकार महाबीर रवांल्टा ने कहा कि भारती की कविता जहां महिला प्रतिनिधि के रूप में प्रखरता से सामने आई है, वहीं वह समाज में महिला की भूमिका का सुन्दर वर्णन किया गया है। कविता संकलन की शीर्षक कविता ‘जीवन है क्या? एक जलता दीया। जिसने जैसा समझा, वैसे ही जिया’। बहुत ही सरल ढंग से सहज शब्द विन्यास से मानव प्रवृति की बात प्रस्तुत की गई है। आम पाठको के लिए लिखी गई कविताएं निश्चित समाज के काम आयेगी।

यही नहीं सभी 82 कविताएं कुछ न कुछ न कह रही है, चिन्तन के लिए बाध्य कर रही है। स्वतन्त्रता और परतन्त्रता को भारती ने अपनी कविताओं में प्रबलता से उठाया है। लोकार्पण कार्यक्रम के दौरान रिव्यू अधिकारी रंजना एवं अशिका और आकांक्षा ने ‘कहे अनकहे रंग जीवन के’ कविता संग्रह की कुछ कविताओं का पाठ भी किया है।

कहे-अनकहे रंग जीवन के भारती आनन्द ‘अनन्ता’ का पहला कविता संग्रह है। इस संग्रह में 82कविताएं संकलित हैं। “कहे-अनकहे रंग जीवन के” कविता संकलन की भूमिका में सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने भूमिका में लिखा है कि अनुभव प्रायः सबके पास होते हैं, पर उसकी अभिव्यक्ति सबके पास नहीं होती। यह अलग ढंग से होती है। यह अलग होने का संघर्ष ही कविता को मौन कथन में बदल देता है।

वहीं अगली भूमिका में वरिष्ठ साहित्कार महाबीर रवांल्टा लिखते हैं कि पहाड़ में अपनी थाती-माटी के प्रति गहरे जुड़ाव के कारण भारती अपनी स्मृतियों में विचरण करती हैं। उनकी कविताओं में पलायन का दर्द भी दिखाई देता है। लेखिका भारती का कहना है कि अपने मन के भावों को कविता के रूप में लिख पाना माउंट एवरेस्ट को पार करने जैसा था। चूंकि पुस्तकों के प्रति बचपन से ही लगाव रहा है। तभी लेखन के बीज रोपित हुए है। किंतु कागज पर उन्हें उतारना इतना आसान नहीं था। स्त्री होने और घर की जिम्मेदारियों व जीवन को निभाने के बीच कितना कुछ खो देते हैं। हम स्वयं नहीं जान पाते। बस इसी इसी खोये हुए को समेटने का एक सूक्ष्म प्रयास है यह काव्य-संग्रह।

पुस्तक समीक्षा।

समय साक्ष्य प्रकाशन से प्रकशित 121 पृष्ठ की इस पुस्तक में कुल मिलाकर 82 कविताओं का संकलन है। जिसमें ‘प्रार्थना‘ से लेकर ‘प्रहरी सीमा के’ अर्थात आदि से अंत तक की आवोहवा में एक जिद, जद्दोजहद व मन आत्मा में उमड़ते घुमड़ते प्रश्नों के सार में एक ऐसी अतृप्त तलाश छुपी थी जो प्रश्न उठाते ही उसका स्वयं हल ढूंढ़ने के लिए बेताब थी। सच कहूं काव्य में इतने सरल शब्द व शब्दावली है कि आपको कभी कभी लगेगा कि यह कहानियों की ऐसी विवरणिका है जो आपके आगे प्रश्न तो रखती है लेकिन फिर खुद ही खुद से संतुष्ट दिखाई देती है। आप खुद ही पढ़कर देखिये काव्य संकलन की शीर्षक बनी 11वीँ कविता ” कहे-अनकहे रंग जीवन के”…। जिसमें कवि प्रश्न उठाती हैं – “जीवन है क्या? एक जलता दीया। जिसने जैसा समझा, वैसा ही जिया।”
सच कहूं तो मेरे हिसाब से ये चार पंक्तियाँ खुद में ही सम्पूर्ण कविता है। इसकी 48 अन्य पंक्तियाँ यही सब तो कह रही हैं जो भारती सिर्फ़ चार पंक्तियों में कह गई। 14वीँ कविता में श्रृंगार व प्रेम का अद्भुत मिश्रण दिखने को मिलता है। ऐसे लगता है जैसे इस कविता की रचना कवि ने मस्तिष्क की सोच से परे उन्मुक्त हृदय से की हो जिसमें प्रेम का अथाह समुद्र हिलोरे मार रहा हो। काव्य हृदय की अगर गुप्तचरी करने को कहें तो यह भारती आनंद का अनंत प्रेम नहीं अपितु अनंता प्रेम है। देखिये तो कैसे बहुत सरल शब्दों में भारती लिख देती हैं कि :-

प्रेम’ एक अथाह अनंत। शब्दों को खूबसूरती देखिये कहे कुल मिलाकर चार शब्द और उनके आगे लगा दिया पूर्ण विराम…। मानों मन हँसते हुए आँखों में सारा प्रेम रस लाकर तृप्त हो गया हो और होंठ बमुश्किल फड़फड़ाकर कह दिए हों…प्रेम’ एक अथाह अनंत। वह आगे लिखती हैं:-
प्रेम’ एक अथाह अनंत।
फूलों से, भंवरों का,
सूरज से, किरणों का।
सागर से,नदियों का,
प्रेम, अथाह अनंत।
चाँद से, चांदनी का,
गगन से पंछियों का।
जल से, मछलियों का,
प्रेम, अथाह अनंत।
मयखाने से, मय का,
बर्षा से पपीहे का।
प्रिय से, पिय का,
प्रेम अथाह अनंत।
सच कहें तो इतने सरल शब्दों में रूपकता की विशालता में तब हिचकिचाहट सी दिखती है जब हर दूसरी पंक्ति पर पूर्ण विराम दिखने को मिलता है। मुझे लगता है कि यह पूर्ण विराम हर बार प्रेम, अथाह अनंत। के बाद ही आना चाहिए था ताकि कविता के मूल मर्म में रूपक, श्रृंगार व प्रेम रस.. प्रेम से गुजरकर उसके चरम अनंत तक की कल्पना को सार्थक कर दे।

भारती के काव्य संग्रह की 20वीँ काव्य रचना अनचाहे रिश्ते बहुत कुछ कहने को आतुर है लेकिन फिर अचानक शब्द बिखरते नजर आते हैं, मानों कवि हृदय वह सच कहते कहते अपने शब्द लोक के आवरण से गले में ही ढका कर रख दिया हो देखिये :-
अनचाहे ही पनप जाते हैं,
कुछ पौधे रिश्तों के।
जिन्हें बोया नहीं जाता,
जिन्हें संजोया नहीं जाता।
फैलाते हैं अपनी शाखाएं,
होकर प्रसन्नचित्त।

इन 06 पंक्तियों में बाद की दो पंक्तियाँ तुकबंदी में लपेटी हुई सी लगती हैं
जो ऊपर की चार खूबसूरत पंक्तियों की हत्या सी करती नजर आती हैं। भले ही कवि या कवियत्री ने बाद में अपने शब्दों को बाँधने का पूरा जतन किया है, जिसमें वह सफल भी हुई।

25 वीँ कविता में वह बहुत खूबसूरती से मानो घटित अतीत से वर्तमान पर प्रहार कर रही हो। तभी तो कवियत्री लिखती हैं कि :-
कौन सुनेगा, यहाँ सबकी,
अपनी कहानी है।
अपने दर्द हैं,
अपनी परेशानी है।
इस पूरी कविता में ऐसा लगता है मानों यह हर व्यक्ति के हर हृदय की कथा-व्यथा सुनाकर आगे बढ़ती जा रही हो। वास्तव में मर्म को भेदते ये शब्द कुछ नया बेहतर करने को आतुर लगते हैं।
…..और अगर आपने दिल की पूरी बात कहनी है तो भारती की 30वीँ कविता जो चार पंक्तियों में सिमटकर सब कुछ कह जाती है, जरूर प्रशंसनीय लगेगी जैसे :-
खुशबु तेरी मुझे महका जाती है,
तेरी हर बात मुझे बहका जाती है।
सांस को बड़ी देर लगती है आने में,
हर सांस से पहले तेरी याद आ जाती है।

काव्य की खूबियाँ।

बहरहाल भारती इतना तो करके गई हैं कि अपने पहले ही काव्य संग्रह में अपनी हर कविता को जिसमें कुल मिलाकर 82 कवितायें हैं, पहले सरसरी नजर और बाद में टकटकी नजर से उन्हें पढ़ने को मजबूर कर देती हैं। और कुछ ऐसे क्षण भी आते हैं जब आपके होंठ खुद ही कह देते हैं.. वाह।

कमियां।

इस काव्य संकलन को पढ़ने के बाद एक मंझा हुआ कवि यही कहेगा कि भारती के आगामी काव्य संकलनो में वह छनकर बाहर अवश्य आएगा जो इन्हे कवि या कवियत्री के रूप में स्थापित करेगा। मुझे सम्पूर्ण काव्य संग्रह में न सिर्फ़ उक्ति वरन युक्ति, सूक्ति, मुक्ति, कथ्य, तथ्य में जबरदस्त संघर्ष दिखा। जो माना कह रहे हों कि काश… मैं भी जिन्दा होकर कह उठता… हेलो, मैं यहाँ हूँ। मुझे लगता है कि हमें कविता संरचना के बाद उसमें गूढ़ शब्दों की प्रमुखता भी तलाशनी होगी ताकि वह शब्द मुस्कराये व कहे, कौन हूँ मैं, जरा दिमाग पर जोर डाल… और नहीं मिलता तो डिक्शनरी खंगाल…।

भारती आनंद ‘अनंता’ की काव्य संरचना “कहे-अनकहे रंग जीवन के” नामक पुस्तक के शब्द सागर को जानने के लिए समय साक्ष्य प्रकाशन की यह पुस्तक खरीद कर संग्रहणीय है, क्योंकि इसमें कविलास भी है तो मधुमास भी…। आपकी रचनाधर्मिता को बहुत बहुत साधूवाद व शुभकामनायें।

 

 

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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