भरमै ना जाई बिरसू..! क्या है महासू देवता के डोरिया का रहस्य ?
(मनोज इष्टवाल)
भरमै ना जाई बिरसू.. भरमै ना जाई बिरसू रे..! फूलो ले फुलडू रे ….फूलो ले जाईये, भरमै ना जाई बिरसू..! ये पंक्तियाँ महासू के डोरिया अर्थात अन्न नापने के पाथे से सम्बन्धित हैं। बहुत दर्द के साथ ये पंक्तियाँ उस पीड़ा को साकार करती हैं जिसमें उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र के बावर में अवस्थित महासू मंदिर टोंस अर्थात तमसा नदी के किनारे बसा हुआ है। बिरसू नामक व्यक्ति जोकि मंगटाऊ गाँव का बासिन्दा था। वह महासू देवता की अर्थव्यवस्था हेतु गाँव-गाँव जाकर डोरिया नामक चांदी मढ़े पाथे से फसल पकने के बाद महासू का चढावा हर खत्त (पट्टी) में जाकर मानता था, लेकिन इस बार उसके साथ एक ऐसी अप्रिय घटना घटित हुई कि उसके तमसा नदी पार करते समय या कोई अन्य गाड़- गदेरा पार करते समय पैर फिसल जाने से डोरिया बह गया। उसे भरम खत्त से इस बार लेकर आना था।
डोरिया बहते देख बिरसू हकबका गया वह उसे थामने के चक्कर में नदी की धाराओं के साथ उलझता हुआ आगे निकलता चला गया। वह जितनी बार कोशिश करता उतनी बार डोरिया उसके हाथ से छिटक जाता। कहा जाता है कि महासू देवता को जब इस घटना का ज्ञान होता है तब वह अपने कैयलू और कफला वीरों को उनफ़ती तमसा नदी में भेजते हैं, जो नाग रूप धारण कर तेजी से तैरते हुए बिरसू तक पहुंचते हैं। ऐसा ही कुछ इस गीत की ये पंक्तियाँ बोलती नजर आती हैं:-“कायलू मेरे कफला मेरा तीखडा जाया, सोठा-तामी जाणी दिया बिरसु ओडूवे लाया” भरमै ना जाई बिरसू.. भरमै ना जाई बिरसू रे..!”
जौनसार बावर के सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व संस्कृति संवाहक नन्द लाल भारती जानकारी देते हुए बताते हैं कि यह डोरिया तमसा बहकर यमुना नदी से होता हुआ दिल्ली तक पहुँच गया था। जिसे यमुना नदी तट से बाहर निकालकर किसी मछुवारे ने तत्कालीन राजा के पास पहुंचा दिया व राजाज्ञा से उस डोरिया को राजा ने नमक भण्डार में नमक निकालने के इस्तेमाल में लाना शुरू कर दिया। महासू देवता ने अपनी योगमाया से जब यह सब देखा तो उन्होंने राजा को सपने में जाकर दर्शन दिए व बताया कि यह मेरा डोरिया है, इसे किसी भी सूरत में मुझ तक वापस कर वरना दंड का भागीदार बनेगा। राजा ने जब राज हठ से इसे स्वप्न समझ कर भुला दिया तब राजा को दोष चढ़ने लगा अतएव उन्होंने डोरिया को वापस लौटाने के लिए उसमें महासू का कर शामिल कर अपने दूत रवाना किये। जो यमुना नदी के किनारे-किनारे कई बीहड़ जंगल मैदान पहाड़ियां पार कर आखिर महासू धाम पहुँच गए व डोरिया को मंदिर में पुरोहितों के हवाले किया। तब से लेकर वर्तमान तक भी दिल्ली से कर स्वरुप हर बर्ष महासू देवता के धाम भेंट स्वरुप नमक व धूप पहुँचती है। आज भी राष्ट्रपति निवास से हर बर्ष ठडियार पोस्ट ऑफिस में नमक व धूप ऐन ऐसे समय पहुँचता है जब साल पूरा होने को होता है।
सोठा-तामी जाणी दिया बिरसु ओडूवे लाया…! ये शब्द मुझे कुरेदते से नजर आते हैं। सोठा अर्थात महासू का बज्र दंड और तामी यानि ताम्बे का …! हो न हो तब डोरिया ताम्बे से निर्मित रहा हो। और वर्तमान में उस पर चांदी चढ़ा दी गयी हो। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि दिल्ली दरबार ने उसे चांदी से मढकर वापस भेजा हो।
बहरहाल मुझे लगता है कि अभी भी डोरिया पर काफी रिसर्च की आवश्यकता है। डोरिया का जिक्र गढवाल के राजा द्वारा भरम क्षेत्र विजित करने से लेकर हाटकोटि तक विजय के जिक्र में कहीं आया है। सोलहवीं सदी के फिर से वे पन्ने खँगालने होंगे।