Saturday, December 21, 2024
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भंधौ असवाल व पंवारी वीणा की सन्तति हैं तच्छवाड़ी असवाल! तामाडौंड युद्ध पराजय/विजय रही मुख्य वजह!

*भंधौ असवाल व पंवारी वीणा की सन्तति हैं तच्छवाड़ी असवाल! तामाडौंड युद्ध पराजय/विजय रही मुख्य वजह!
*एक ऐसा इतिहास जो भूतकाल के गर्भ में समाया अपने होने का आभास कराता है!
(मनोज इष्टवाल)
बर्ष 1995 सन1997 का वह दौर भला मैं कैसे भूल सकता हूँ जब मेरे जहन में यह कीड़ा कुलबुलाया था कि क्यों न असवाल जाति का इतिहास संजोया जाय! मैं अधो गढ़वाल अधो असवाल का पीछा करता हुआ पौड़ी गढ़वाल स्थित असवाल जाति वंशजों के लगभग सभी गाँव चाहे वह पीड़ा-कन्दोली हो या सीला भरस्वार! या फिर बडोली-रणचूला हो या फिर खेड़ा-भुवन! असवालस्यूं तो इसमें बेहद गौण हुआ क्योंकि यह तो मेरे सबसे नजदीकी गाँव थे जिनमें नगर गाँव का गरीब नाथ मन्दिर, सरासू गाँव व अमोठा की नाथ समाधियाँ, मिर्चोड़ा गाँव का दंगुडू सेठ, कुलासू-महाब गढ़, भैरों गढ़ी का सेनापति भंधो असवाल हो या फिर सिमार व तच्छवाड़ गाँव के असवाल!
(84 गाँव के थोकदार भजन सिंह असवाल द्वारा सन 1500 ई. में बसाया गया असवालस्यूं नगर गाँव)
किस्से बहुत हैं और शोध उस से भी ज्यादा महत्वपूर्ण ! तच्छवाड़ गाँव जोकि पाटिसैण बाजार से मात्र पांच या सात किमी. सडक मार्ग व दो या ढाई किमी. पैदल मार्ग पर स्थित है वहां के असवालों पर व सिमार के असवालों पर तत्कालीन समय में अन्य असवालों की भिन्न-भिन्न राय थी! फिलहाल इतिहास के पन्नों में दर्ज “अधो असवाल, अधो गढ़वाल” में कब नागवंशी नागपुर गढ़ का थोकदार असलपाल चौहान असिवाल बना और कब असवाल बन गया यह लंबा प्रकरण व शोध है! क्योंकि कई इतिहासकारों ने इन्हें असि= तलवार से जोड़ा तो कई ने इन्हें अश्व+वाल कहकर घोड़ों का पालनहार बताया ! जैसे कि सिपाही नेगियों को राजा के सिपाही के नाम से पुकारा गया ! यह शायद इतिहास का वह सबसे अपभ्रंशकाल रहा क्योंकि बिना लिखत सुनी सुनाई बातों का यह इतिहास जितने मुंह उतनी बातें लिखता रहा!
वह 25 जुलाई 1995 की शाम थी जब मैं नगर गाँव में इतिहास के संदर्भों को टटोलता हुआ ग्रामीणों से बैठक कर लौट रहा था! यहाँ के तत्कालीन ग्राम प्रधान जो जाति के चौहान थे ने ग्रामीणों से 722 रूपये जमा करवाकर मेरे अग्रिम यात्रा का बंदोबस्त करने की शुभकामनाओं सहित मुझे दिए ! मैं उनका कृतज्ञ हुआ और अभी कदम पंचायती चौक से पीपल डाली की तरफ बढाए ही थे कि बांई ओर छज्जानुमा फटालदार मकान के कोने पर दोनों हाथ कान पर लगाए उमस भरी गर्मी को कम करती हवाओं के झोंको का आनन्द लेती एक महिला हृदय के आवेग में जो गीत गा रही थी उन्होंने मेरे कदम थाम लिए! बुजुर्ग महिला सिर में सफेद ठान्टू बांधे चित्तमग्न थी उनके कानों के छोरों पर लटकते सफेद बाल हवा में उड़ते हुए चांदी के से दिखाई दे रहे थे! उनके बोल आज भी मुझे याद हैं क्योंकि उन्हीं गीतों में समाहित चौकिसेरा व सीला गाँव तक मेरे क़दमों ने अस्वालों का पीछा किया! गीत के बोल थे:-
(फ़ाइल फोटो)
हे पंवारी वीणा तम्बू वाडू! व्हे चौकी का सेरा तम्बू वाडू!
ऊ भानदयो अस्वाला- तम्बू वाडू, मालू माकू माला तम्बू वाडू!
बैर्युं को काला तम्बू वाडू, जैकी भुजा बबलांदी तम्बू वाडू!
जाका जोंगा होला भारी तम्बू वाडू, सूरत होली न्यारी तम्बू वाडू!!
जैन व्हे सराईखेता तम्बू वाडू, खुनी घट रिन्गैनी तम्बू वाडू!
जू पौंची ग्ये कुमाऊं तम्बू वाडू! जैन पाळी यालि वैमो तम्बू वाडू!
व्हेकि आंखी रतन्याली तम्बू वाडू, फीलि फतन्याली तम्बू वाडू!
व्हेन देखि कुमय्याँ वीणा तम्बू वाडू, व्हेन हाथ खिंची याली तम्बू वाडू!
व्ह छई हिरणी सी प्यारी तम्बू वाडू, केला सी गेलकी तम्बू वाडू!
नौणी सी गुंदकी तम्बू वाडू! रुंवा सी हंपळई तम्बू वाडू !
बांदू माकी बांदा तम्बू वाडू, चांदू माकी चांदा तम्बू वाडू!
छई कुमयाँ पंवारैकी बेटी तम्बू वाडू, जू छाया बैरी कैदी तम्बू वाडू!
हे पंवारी वीणा तम्बू वाडू, व्हे चौकी का सेरा तम्बू वाडू!
फत्वा सीला कु असवाल तम्बू वाडू, भारी चा निगुरु तम्बू वाडू !
व्हेन तलवार खिंच्याल तम्बू वाडू, व्हेन बाटू रोकी याल तम्बू वाडू!
वू भानदयो असवाल तम्बू वाडू, जैन त्वेसे माया लाया तम्बू वाडू!
जैकी छाती का बाळ बबरैनी तम्बू वाडू, होलू मालू माकू माल तम्बू वाडू!
आंख्युं खून उतरी ग्याया तम्बू वाडू, व्हेन वू फत्वा असवाल तम्बू वाडू!
बल पोट मारी द्याया तम्बू वाडू, बल त्यारा भ्वार पन्वारी तम्बू वाडू!
भारी दुश्मनी ह्व़े ग्याया तम्बू वाडू! बैठक बैठी ग्याया तम्बू वाडू!
भानदयो न तेरो वामो पाल्याला तम्बू वाडू…वू सब्युं भूली ग्याया तम्बू वाडू!
व्हेन नगर छोड़ी याला तम्बू वाडू, वू तच्छवडी व्हेग्याया तम्बू वाडू!
हे पंवारी वीणा…………………………………………………………………!!
काश…यह इतिहास इसी गीत तक सीमित हो जाता! लेकिन कालांतर में ऐसा नहीं हुआ तामाडौंड युद्ध में गढ़वाली सेना के पराजय का बदला लेने पहुंची सवा लाख सलाणीयों की सेना का जिक्र करते हुए राजा प्रदीप शाह के राजदरवारी कवि रामनगर मर्चुला सराईखेत क्षेत्र से किये गए आक्रमण का बर्णन करते हुए लिखते हैं कि :-
सवा लाख संग फ़ौज सलाणी, लोधी और बघाली आये!
तडा-तोमड़ा संग महि लाये! बाकी सब गढ़ के संग लागे
खसिया बामन चले जो आगे!
यह युद्ध तामाडौंड युद्ध (1754) में गढ़वाली सेना की पराजय के बाद अस्वालों के नेतृत्व में 1770 में लड़ा गया था जिसमें रिंगोडा, गोरला, रिखोला, सहित ब्राह्मण भी सम्मिलित हुए ! इस युद्ध में सलाणी सेना ने अपने पराक्रम से जहाँ कुमाऊँ के चंद वंशी राजा कल्याण चंद के पुत्र राजा दीप चंद की शाही सेना को बुरी तरह रौंदा वहीँ वहां के ठकुराई पंवारवंशी कई थोकदारों को बंदी बनाकर साथ लाये! चौकिसेरा (सैंधीखाल) जोकि दुगड्डा-सेंधिखाल- डोंटियाल- रथुवाढाब-रामनगर पर अवस्थित है, कैम्प के दौरान जब कुमाउनी थोकदार की खूबसूरती पुत्री वीणा पंवारी पर वीर भड भंधो असवाल की नजर पड़ी तो वह उस पर आसक्त हो गया! उस काल में युद्ध ज्यादा औरतों के लिए भी लडे जाते थे ! कहते हैं कि वीणा पंवारी अप्रितम खूबसूरत थी व उसके यौवन के चर्चे दूर दूर तक के रजवाड़ों में मशहूर थे! कोई पंवारी को कुम्मया थोकदार की पत्नी कहता है तो कोई पुत्री! यह सब किंवदन्तियों पर आश्रित कहानियां हैं! लेकिन पौराणिक गीतों में कई ऐसे इतिहास समाहित रहे जिन्हें ढूंढा गया या तलाशा गया तो वह सही निकले! चौकिसेरा में वीणा व भंधो का नैनमटका हुआ तो यह बात सीला गाँव के तत्कालीन थोकदार फत्वा असवाल को नागवार गुजरी! और वह इस प्रेम कहानी का अंत करने वीणा का सर धड़ से अलग करने दौड़ पडा लेकिन बीच में ही भंधो ने आकर उसी का सर कलम कर दिया! कहते हैं इसके बाद रार इतनी बढ़ी कि सीला-भरस्वार के अस्वालों ने नगर या असवालस्यूं के अपने सारे नाते-रिश्ते व पारिवारिक सम्बन्ध खत्म कर दिए! नगर वापसी के बाद असवाल पंचायत ने तय किया कि वे किसी भी सूरत में पंवारी वीणा को कुल वधु नहीं मानेंगे क्योंकि वह गुलाम थोकदार की बेटी है ! कहते हैं वीणा गर्भवती हो गयी थी अत: उसने यह बात सार्वजनिक की कि उसके पेट में भंधो का वंश पल रहा है तब जाकर उसे छोड़ा गया असवाल वंशजों ने इसे असवाल वंश के लिए शर्म जैसी बात माना!
कहा जाता है कि उस काल में लाज शर्म ही औरत का गहना होता था लेकिन यह मामला वीर भड भंधो असवाल से जुड़ा हुआ था इसलिए किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वीणा को क़त्ल किया जा सके इसलिए उसे गाँव छोड़ने के लिए कहा गया! भंधो असवाल वीणा पंवारी के साथ तच्छवाड़ जोकि नगर गाँव के बिलकुल सामने नयार पार है आ बसा और उसी से पैदा सन्तति आज भी तच्छवाड़ी असवाल हैं! वहीँ सीला के अस्वालों ने बर्षों बाद फत्वा असवाल की मौत का बदला लिया और कुलासू या नगर के किसी असवाल का दुगड्डा ढाकर में बेवजह मुंडन संस्कार कर दिया! कहते हैं उस दौर में यह बेहद शर्मनाक माना जाता था ! अपने गाँव जाने की जगह यह असवाल आकर गुराडस्यूं सिमार गाँव बस गया! इतने हल्के से मतभेदों के बावजूद भी इन ठकुराई गाँव के असवालों ने इसे अपनी आन-बान-शान का प्रश्न बनाए रखा और आपस में घुले मिले नहीं ! अत: मेरा मानना है कि वंश परम्परा के ऐसे वृक्ष में अति नहीं आनी चाहिए ! पुराने लोग पढ़े लिखे समाज के नहीं बल्कि तलवार व अहम् के भूखे थे ! यह सब लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य यह है कि वह दूषित अध्याय समाप्त हो जाना चाहिए जो दूषित न होते हुए भी दूषित बना दिए गए थे!भंधौ असवाल ने नगर छोड़ दिया साथ ही भैरव/लंगूर गढ़ भी और आकर महाब गढ़ बस गया! यहाँ उदयपुर अजमेर के छोटे बड़े थोकदारों को हस्तगत कर उसने बडोली, रणचूला, खेड़ा इत्यादि में अपने वंशजों की बसासत की! कहते तो ये भी हैं कि महाबगढ़ के साथ उसने रणचूला गढ़ भी अधिपत्य में ले लिया! रणचूला के असवाल उसकी ही सन्तति कहलाये व आज भी उनका ठाकुरी मिजान नहीं बदला!  
(यह सब जानकारियाँ मेरे द्वारा आज से लगभग 22-23 बर्ष पूर्व जुटाई गयी थी जिन्हें लिखने का बस अवसर तलाश रहा था! उम्मीद है कि आप सभी ऐसी ऐतिहासिक घटनाएँ जो इतिहास में नहीं बल्कि लोकगीतों में एक सदी से दूसरी सदी तक जीवित हैं में अपना अस्तित्व तलाशते हुए अपने को गौरान्वित महसूस करेंगे!)
Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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