Monday, February 3, 2025
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भैरों गढ़ी………..! 16वीं सदी से गुणा बाबा तक..! दिल्ली के पुराने किले से यहां आए कालीनाथ भैरों।

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 20 मार्च 2020)

हिमालयन दिग्दर्शन यात्रा 2020। ढाकर शोध यात्रा प्रसंग-6

मेरी पहली यात्रा 1989-90 में भैरों गढ़ी इसलिए हुई थी कि मुझे सच में अपने गांव के महात्मा जी अर्थात गुणा बाबा की खुद लगी थी। गुणा बाबा बर्षों हमारे गांव की मढ़ी में रहने के बाद अचानक कुछ बर्ष पूर्व ही भैरों गढ़ी चले आये थे। तब केतु खाल में मात्र तीन या चार दुकानें थी और उसका तब व्यवसायीकरण भी नहीं हुआ था।

भैरों गढ़ी तब विशाल मंदिर समूह के रूप में विराजमान नहीं था बल्कि एक धर्मशाला व एक मंदिर व धुनि ही यहां दिखने को मिलती थी। गुणा बाबा तब मुझे बाहर ही मिल गए थे। चरण छूते ही बोले- ऐ ग्ये तू। जा वीं फटाल फरकैकी औ। (जा उस स्लेटी पत्थर को उल्टा के आ)। मैंने बिना कुछ कहे फटाल पलटी तो देखा महात्मा जी ने उस पर पूरा बर्णन लिखा हुआ था कि मेरा कब-कब उनसे मिलने का मन हुआ था और आज भी पहले मन बना फिर अनिश्चित हुआ और आखिर आ ही गया।

गुणा बाबा अंक ज्योतिष के प्रकांड विद्वान माने जाते थे। सच कहूं तो उनसे मिलकर ऐसा लगा मानो बर्षों की खुद मिट गई हो। लौटते हुये मेरे साथ कोटद्वार के भाटिया व्यवसायी थे तब उनकी नई-नई शादी हुई थी व ये लोग बाबा भैरों के अनन्य भक्त थे। मुझे अच्छे से याद है कि लौटते समय हमने केतु खाल में चाय बन्द व उबले अंडे खाये थे। तब एक अंडा जो भाटिया जी के पास गया तो उसकी दो फाक करते ही अंडे के अंदर डबल गिरी निकली। मैंने बोला- दोनों आधा-आधा बांटकर खा लीजिये हो सकता है बाबा का कोई सन्देश छुपा हो।

बीच में दुबारा किस सन-संवत में आया याद नहीं लेकिन यह भैरो गढ़ी की मेरी तीसरी यात्रा थी। इस यात्रा की बिशेषता यह रही कि इस बार मुझे असवाल गढपतियों के दो दो किलों में थरपे गए दो -दो देवों के दर्शन हुए। पहले महाब गढ़ में आदिदेव महादेव व दूसरे भैरों गढ़ी के कालीनाथ भैरों के।

हिमालय दिग्दर्शन यात्रा 2020 । ढाकर शोध यात्रा के सदस्य भैरों गढ़ी में।

इस बार की यात्रा का सबसे बड़ा शुकुन यह था कि हमारे साथ इन दो गढ़ियों के गढपतियों के वंशज ठाकुर रतन असवाल हमारी हिमालय दिग्दर्शन ढाकर यात्रा की अगुवाई कर रहे थे।

32 बर्षों में यहां कई महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिले। सबसे पहले तो केतुखाल में दर्जनों दुकानें हो गयी हैं जिसका सीधा सा अर्थ हुआ कि भैरों बाबा की नेमत से दर्जनों घरों के चूल्हे जल रहे हैं। नम्बर दो पहले केतुखाल जिसे वर्तमान में भैरों गढ़ी बोलते हैं सीधी चढ़ाई वाली पगडंडी मन्दिर तक पहुंचती थी। जिनके खेत इस पगडंडी से लगे थे उन खेतों की मालिकान महिलाएं खेतों में चलने पर गालियां दिया करती थी। अब इन 32 सालों में यह विकास हुआ है कि मंदिर तक सीधी नहीं बल्कि सरल सर्पाकार छ: फूटा सीमेंट मार्ग बन गया है जिसमें चलने में आसानी होती है। पहले जैसे दम नहीं फूलता। दूसरा रास्ते में लगभग 300मीटर टिन की छत्त दो जगह लगी है। एक मंदिर के पास व दूसरी केतुखाल (वर्तमान नाम कीर्ति खाल)..!

भैरों गढ़ी से केतुखाल/कीर्तिखाल तक पसरे बंजर खेत।

विकास के नाम पर एक काम बखूबी हुआ है कि जिन खेतों में लबालब अन्न उगा करता था अब वे बंजर पड़े हैं व उनके मालिकान महिला पुरुष इस क्षेत्र से ही नदारद नजर आते हैं। दिल को सचमुच पीड़ा पहुंची कि इस सुव्यवस्थित स्थान में ये बंजर किसी विधवा की मांग की तरह सूने नजर आ रहे हैं।
एक और बड़ा परिवर्तन दिखा। पहला यह कि मंदिर ने निचले हिस्से में मन्दिर से करीब 200-250 मीटर दूरी पर तीन मन्दिर और पैदा हो गए। एक भैरब चरण पादुका, एक बजरंग बली हनुमान व तीसरा दुर्गा देवी मंदिर…!

टीस पहुंचाने वाले बिषय भी कई हैं लेकिन मन प्रसन्न हुआ कि जिनकी मन्नतें यहां पूरी हुई उनकी चढ़ाई घण्टियाँ मन्दिर के नजदीक सीढ़ियों के ऊपर बनी आयरन सेड सपोर्ट पर टँगी हैं। ऐसे में मुझे घोड़ाखाल गोलज्यू मन्दिर याद आ गया जहां ऐसा ही कुछ दृश्य है लेकिन अंतर इतना है कि वहां के भक्तगण बड़े दिलवाले दिखे व यहां के भक्तगण कमजोर दिल के। क्योंकि वहां की सीढ़ियों से गुजरती यूँ तो हजारों घण्टियाँ, घांड की लड़ियाँ मन्दिर तक पहुंची हुई हैं लेकिन यहां टँगी घण्टियों का अगर माप लिया जाय तो यहां की सभी घण्टियाँ वहां के एक घांड के बराबर नहीं है। ईश्वर मुझे रीस न लगाएं लेकिन मेरी प्रार्थना भक्तगणों से है कि जितने उदार दिल से भैरों गढ़ी का लँगूरी भैरों या कालीनाथ भैरों आपकी मन्नतें पूरी करता है उतनी ही शिद्दत से अगर आप दिल खोलकर अपनी मनोकामनाए पूर्ण होने पर अपने खुले दिल के परिचय जैसे घांड़ चढाते तो बाबा खुश होकर आपको आशीर्वाद में कई नेमतें देते।

भैरों गढ़ी स्थित गुणा बाबा की प्राण-प्रतिष्ठा।

मन्दिर प्रांगण में पहुंचकर में भौंचक रह गया। वह पुराना सेनिरिओ अब कहीं नहीं बचा था। भैरों बाबा के जिस भक्त ने भी यह मंदिर डिज़ाइन किया उसे दिल से दुआएं निकली। मैंने मंदिर प्रांगण में टहलकर पूरा निरीक्षण किया। मेरे शोध में गढ़ी की वो पुरानी दीवारें जिंदा हो गयी थी जो मैंने 32 बर्ष पूर्व अपने अल्हड़ काल में देखी थी। सच कहूं तो मेरा मकसद पत्थर पर गुद्दे वे आखर देखने का था जो तब मुझसे पढ़े नहीं गए। मेरा मकसद वह ताम्रपत्र था जो गुणा बाबा ने शायद मुझे दिखाया था। मेरा मकसद वह पांडुलिपि की पोटली देखने का भी था जिसमें कई राज्ञाएं थी, लेकिन दुर्भाग्य देखिए मन्दिर कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण वर्तमान शासनादेश के कारण बन्द था। न मुझे गढ़ी के खंडहर अवशेषों की दीवार मिली न वह स्थान जो महात्मा जी (गुणा बाबा) ने मुझे दिखाया था और बताया था कि यहां से सुरंगे नीचे नारद गंगा को जाती थी व एक सुरंग राजा के वैद धरणीधर डोबरियाल के गांव राजखील जिसे अपभ्रंश भाषा में राछकिल के नाम से भी पुकारा जाता है।

भैरों गढ़ी की कुछ ही दूरी पर अवस्थित लँगूर गढ़ी।

मैं यकीनन बहुत मायूस हुआ लेकिन अपनी मायूसी के बारे में बताता भी तो किसे? यह हिमालय दिग्दर्शन की ढाकर यात्रा का अंतिम चरण था व सब लोग जल्दी में अपने अगले पड़ाव की ओर बढ़ने की कवायद में थे। न अब राजी माई जी थी न शिबगिरी माई और नही गुणा बाबा महात्मा जी। बाबा की बुलन्द आवाज आज भी मेरे कानों में गूंजती है। मुझे अच्छे से याद है कि जब बाबा हमारे गांव धारकोट की मढ़ी में रहते थे तब हमारे बड़े भाई गिरीश चन्द्र इष्टवाल की अध्यापक के रूप में इंटर कालेज जखेटी में पोस्टिंग हुई थी तब बाबा ने भाई साहब को खुशी-खुशी आदेश दिया था कि एक माह की दयू-बाती (दिया-बाती) का खर्चा तेरा। जिसे भाई साहब ने सहर्ष स्वीकार किया था व हर माह जब तक जखेटी स्कूल में रहे तब तक 50 रुपया दिया-बाती का मंदिर में चढावा देते रहे। तब शायद मैं 6वीं कक्षा में अध्ययनरत था व भाई साहब को 375 रुपये वेतन मिलता था।

गुणा बाबा हमने कभी नहीं बोला। हमेशा वे पूरे गांव समाज के बीच महात्मा जी के आदर्श उचाव से पुकारे जाते रहे। गरीब परिवारों की शादी ब्याह में सहयोग, दीन हीन के लिए हर समय खड़ा होना उनके महान आदर्शों को दर्शाता था। आज जब शीशे के ग्लास में मन्दिर प्रांगण में सजी उनकी मूर्ति देखी तो घुटने मुड़ते चले गए व उन्हें सच्ची श्रद्धा से नमन करते हुए मन से इस क्षेत्र व मन्दिर समिति को धन्यवाद दिया कि उन्होंने गुणा बाबा को इस लोक में स्थान दिया।

भैरों गढ़ी से 200-250 मीटर दूरी पर बने भैरों चरण पादुका व देवीमन्दिर।

अब आते हैं भैरों गढ़ी के स्थापत्य इतिहास पर….! कुछ लोग इसे लगभग 5000 बर्ष पुराना स्थान बताते हैं लेकिन लँगूरी भैरों की जागरों का या कालीनाथ भैरों की जागरों का हम पीछा करें तो यह रामा बकरोटी की गाय, कुल्हाड़ी व धरणीधर डोबरियाल के स्वप्न की बात में केंद्रित होकर आगे बढ़ती है। साथ ही एक लोहार व राजी माई का किस्सागोई भी इस के इतिहास में आता है। बाबा गुणानन्द अर्थात महात्मा जी से मैने तब उत्सुकता से पूछा था जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था कि महात्मा जी आप जोगी क्यों बने? क्या आपका कोई नहीं था। तब शायद अबोध बचपन था। वे मुस्कराए कि यह हमारी मस्तक रेखा या हस्त रेखा में लिखा होता है। काली कुमाऊं से जब हमारे पुरखे आकर राजखील बसे तब उन्होंने सर्व प्रथम बाबा भैरों का स्थल ही अपना डेरा बनाया जिसे चिपलडूंगी कहा जाता है। वैसे जोगी जुगटाओं का कोई घर पर नहीं होता। उसकी एक खारे की झोली, एक सतमुखी चिमटा, उर्ध्वमुखी शंख व धुनि के अलावा कुछ नहीं होता। अब तू पूछ रहा है मैं बता दूं कि मेरे जन्मदाताओं का गांव चिपलडूंगी ही है। जहां रहने के पश्चात धरणीधर नामक वैद को राजा श्रीनगर ने राजखील की सन्नत लिखकर दी व डोबरियालों का वहीं से पूरे गढ़वाल में विस्तार फैला। मैंने पूछा था- तो डोबरियाल काली कुमाऊँ में जोगी थे? उन्होंने डांटते हुए कहा था ऐसा नहीं बोलते। जोगी ईश्वर ने मस्तक रेखा व हस्तरेखा देखकर बनाये हैं। जोगी बनना मतलब सारी गृहस्थी की लोभ माया त्यागना हुआ!

डोबरियालों का गांव गहड़ जो कोटद्वार पौड़ी मार्ग पर बसा है।

यह बात मुझे अब तक अक्षरत: याद है, ठीक उसी तरह जैसे कक्षा तीन की पुस्तक जब हाथ में आई थी तो उसके शीर्षकों को मैंने रट रखा था- काठ का घोड़ा, पहला इंजन, नाई और लकड़हारा, बढ़े चलो….! और ठीक ये बात भी मेरे मस्तक में महात्मा जोगियों के लिए ऐसे ही घुटी हुई थी जैसे हम कक्षा-1, कक्षा-2 में पाटी (तख्ती) पर घुटया लगाते थे या फिर बोल्खा में पानी कम होने पर बांस की कलम घुमाकर कहते थे- मकड़ा दिदा मूत-मूत…!

भैरोंगढ़ी से नयार घाटी का बिहंगम दृश्य।

बुराँसी गांव के 84 बर्षीय अध्यापक विशेश्वर दत्त डोबरियाल भी डोबरियालों का आगमन। स्थल डोबरी काली-कुमाऊँ से राजखील आया बताते हैं। उनका कहना है कि रामा बकरोटी की यहां गाय-बकरियों की उस काल में गोठ हुआ करती थी। उसकी एक गाय के सुबह दूध से भरे थन शाम को घर लौटते समय खाली हो जाते थे। रामा बकरोड़ी गाय का पीछा करते हुए निरंखी धार में जा पहुंचा। जहां दूर तक कोई पेड़ नहीं था। गाय सबको सब जानवरों को छोड़ उस चीड़ के पेड़ के पास पहुंची व अपने थन से दूध बहाने लगी। रामा बकरोड़ी ने गुस्से में सोचा कि यही है सारी मुसीबत की जड़ और आव-देखा न ताव…। अपनी पांच छोप की कुल्हाड़ी से पेड़ पर प्रहार कर उसे काट डाला। पेड़ के कटने से उससे खून की धारा फ़ूट पड़ी। रामा बकरोड़ी का गुस्सा शांत हुआ तो उसे किसी अनर्थ की आशंका हुई व घुटने के बल आकर क्षमा मांगकर वहां से रफ्फूचक्कर हो गया।

गुणा बाबा की समाधि, शिबगिरी माई द्वारा बनवाई गई धर्मशाला, हवनकुंड।

यह कुलैs (चीड़ वृक्ष) का पेड़ अपनी पुकार लेकर पुराना किला दिल्ली स्थित कालीनाथ भैरों के पास पहुंचा और अपनी व्यथा सुनाई। बाबा भैरों ने कहा-जा तुझे अब तेरी पेड़ रूप आत्मा से तृप्ति मिली व तू यक्षणी के रूप में इस लोक से उस लोक तक विचरण करती रहेगी। अब तेरे बाद वह स्थान मेरा हुआ लेकिन तेरी वहां हमेशा पूजा होती रहेगी। तब तक जब तक सृष्टि है।

भैरव श्रीनगर दरबार पहुंचा जहां वह राज वैद धरणीधर के सपने में गए व अपने आगमन का कारण बताया। उसे कहा कि वह डोबरियालों की थाती व बकरोड़ी की माटी के रूप में वहां उनकी स्थापना करें व उनकी पूजा करें। धरणीधर ने ठीक वैसा ही किया। रामा बकरोड़ी ने जौंळ बकरियां चढा यक्षिणी व भैरव को प्रसाद दिया व उस पाप से उमुक्त हुआ जो उसके द्वारा गुस्से में किया गया कृत था।

भैरों गढ़ी का भैरव धावड़िया भैरों कहलाता है । यह भैरव जिस पर प्रसन्न हो जाता है तो उसको छप्पर फाड़ कर दे देता है और जिस पर रुष्ठ हो गया तो उसके मकान की फटालें तक नहीं रहने देता। यह दिशा -ध्याणियों (माँ-बहनों) का रक्षक माना जाता है। कालांतर में यहां धरणीधर डोबरियाल ने एक छोटा सा झोपड़ीनुमा मंदिर बनाकर बनाकर उसमें कलश स्थापना की व कलश से टपकता पानी उसी चीड़ वृक्ष के तने में गिरता रहता है लेकिन सैकड़ों बर्ष गुजर जाने के बाद भी आज तक वह तना सड़ा नहीं है।

बुराँसी गांव के 84 बर्षीय सेवानिवृत्त अध्यापक श्री विशेश्वर दत्त डोबरियाल के साथ।

वयोबृद्ध विशेश्वर दत्त डोबरियाल उदाहरण देते हुए कहते हैं कि नैनी गांव के एक परिवार जब राजखील से केतुखाल को जा रहा था तब प्रसंगवश किसी पारिवारिक सदस्य ने कह दिया होगा कि बस दो कदम पर भैरव नाथ का मंदिर है, चलो दर्शन कर आते हैं। वह व्यक्ति अहम के साथ बोला कि कौन सा भैरों कहाँ का भैरव । कुछ नहीं होता सब मनगढ़ंत बातें हैं। कहते हैं कि उसका इतना कहना है कि नाग-नागिन के जोड़े ने उन्हें घेर लिया। उनकी चीख पुकार सुन खेतों में काम कर रहे लोग दौड़े और बोला-जरूर तुमने कुछ अनर्थ किया होगा। जाओ मन्दिर में भेंट चढा आओ। वो व्यक्ति बोला कि मैं जिधर घूम रहा हूँ उधर ही नाग-नागिन हैं। तब एक अदृश्य आवाज ने उससे कहा- तू मन्दिर के रास्ते मूढ़ वहां तुझे कुछ नहीं दिखेगा। वह परिवार मन्दिर के रास्ते मन्दिर पहुंचा व सवा रुपया दंड स्वरूप रखकर फिर विदा हुए।

विशेश्वर दत्त डोबरियाल जी दूसरा किस्सा सुनाते हैं कि 1947-48 की बात है। बकरोटी/बकरोड़ी गांव का एक लोहार मन्दिर में रह रही राजी माई को दरांती-कुदाल देने आया। राजी माई ने बदले में उसे उसकी ध्याडी दी और विदा कर दिया। कुछ देर बाद लोहार के चिल्लाने की आवाज आई तो माई आ पहुंची। देखा सर्पो ने लोहार को घेरा हुआ है। माई ने उसका नाम पुकारते हुए कहा- क्या हुआ बिगरु..? तू कहीं मन्दिर के अंदर तो नहीं गया। लेकिन बिगरु मुकर गया। माई ने बोला-जब तक तू सच नहीं बोलेगा तब तक ये सर्प हटेंगे नहीं! तब बिगरु ने राजी माई से कहा कि उसके दिमाग में यह फितूर आ गया था कि हम ही लोगों के लिये मन्दिर में प्रवेश वर्जित क्यों है। इसलिए वह अंदर गया। माई ने कहा गौबन्ध होकर सवा रुपया तुझे दंड भरना पड़ेगा। बिगरु लोहार ने यही किया तब जाकर उसे सर्पों ने वहां से जाने दिया।

ऐसी ही कई कहानियां भैरों गढ़ के कालीनाथ/लँगूरी भैरों के बारे में प्रचलित हैं। भैरव के यहां दो थान हैं। एक जगह वह लँगूरी कहलाया तो वहां उसकी हनुमान के रूप में पूजा होने लगी। दूसरी जगह कालीनाथ तो उनकी यहां भैरों के रूप में पूजा होने लगी। शायद यही कारण है कि इसकी चरण पादुका, हनुमान मंदिर व कालीमंदिर अब उस स्थान पर अवस्थित किये गए हैं जहां चमत्कार हुए व जो मन्दिर से लगभग 200-250 मीटर नीचे केतुखाल जाने के रास्ते में अवस्थित हैं।

यह पश्चिमी गढ़वाल का सिद्ध पीठ माना जाता है व इस का आगमन 5000 बर्ष पूर्व अर्थात दिल्ली स्थित पांडव किले (पुराने किला) से माना जाता है। ज्ञात हो कि यह किला वर्तमान में प्रगति मैदान में अवस्थित है। व वहीं भैरव मंदिर किले के बाहर नोएडा जाने वाले सड़क मार्ग के किनारे है।

मेरे पिछले अंक में आप पढ़ ही चुके थे कि इसका इतिहास क्या है फिर भी आपको संक्षिप्त में जानकारी दे दूं कि इसकी स्थापना 16 वीं सदी में 1520 के बाद मानी जाती है व यह किला (गढ़) तब नगर गांव असवालस्यूँ के थोकदार रणपाल असवाल के अधीन रहा। गोरखा राज से पूर्व यह असवालस्यूँ के मिरचौडा गांव निवासी भोप असवाल/भूप्पू असवाल को हस्तगत था जिसकी सन्नत व पाँवड़े आज भी जिंदा हैं। 20 मार्च 2020 को आज मिरचौडा के ही ठाकुर रतन सिंह असवाल के साथ यहां पहुंचकर अपनी हिमालय दिग्दर्शन यात्रा 2020 की ढाकर यात्रा की कड़ी में अपने ट्रेवलाग से जोड़ते हुए मुझे खुशी है कि मेरी यह तीसरी यात्रा शोध यात्रा के रूप में उस डार्क टूरिज्म के के लिए मील का पत्थर साबित होगी जो अभी तक ठीक उसी फटाल की तरह थी जो गुणा बाबा ने पलटने को कही थी। मुझे लगता है आज गुणा बाबा ने खुद यह फटाल मुझसे पलटवाई है।
जय भैरों नाथ।

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