Saturday, July 27, 2024
Homeलोक कला-संस्कृतिमहाब गढ़ का भागदेव असवाल व भैरों गढ़ के भूप्पू असवाल हुए...

महाब गढ़ का भागदेव असवाल व भैरों गढ़ के भूप्पू असवाल हुए अंतिम गढ़पति। तो क्या भागद्यो असवाल महाब गढ़ के पुजारी थे?

महाब गढ़ का भागदेव असवाल व भैरों गढ़ के भूप्पू असवाल हुए अंतिम गढ़पति। तो क्या भागद्यो असवाल महाब गढ़ के पुजारी थे?

(मनोज इष्टवाल)

दैवयोग देखिये जिन सूरमाओं ने सदियों तक उत्तराखंड राजवंश की लोकलाज व राज्य विस्तार में अपनी पीढ़ियां खफा दी, उन्हें ही राजतन्त्र, राजवंश व राज लेखकों का दंश सदियों बाद भी झेलना पड़ा। कई इतिहासकार घर बैठे ही अपनी पुस्तकों को वैसे ही हवाहवाई बना देते हैं जैसे मुस्लिम विद्वान कुरआन के बारे में दावा करते हैं कि वह आसमानी किताब है। इन विद्वानों ने संदर्भ तो उठाये लेकिन बिना ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जाने ही किताबों के पन्ने भर दिए। जैसे धारानगरी पूर्व में रणथंबभोर से नागपुर गढ़ी के गढ़पति कहलाने वाले सूर्यवंशी क्षत्रीय असलपाल चव्हाण (संवत 888 ई.) के वंशजों के बारे में एक साहित्यकार/इतिहासकार लिख देते हैं कि असवाल 1500 ई. में टिहरी से आकर ग्राम सीला असवालस्यूँ बसे थे व कश्यपगोत्री कहलाये। अब असवालस्यूँ में सीला गाँव किसी पुराने से पुराने रिकॉर्ड में भी दर्ज नहीं है, वहीं सीला गाँव के नाम पर पूरी पट्टी सीला है, जो लैंसडौन के नज़दीक है। असवालस्यूँ  के असवाल ही कभी भी टिहरी से आकर यहाँ नहीं बसे। इतिहासकार शायद यह भी नहीं जानते कि टिहरी की बसासत 1820 की है जबकि तब तक असवालों को गढ़वाल में बसे एक हजार साल हो चुके थे। हाँ गोत्र में जरूर असवालों में असमंजस बना हुआ है, ज्यादात्तर अपने को भारद्वाज बताते हैं और कुछ कश्यप गोत्री।

उपरोक्त बड़ी चर्चा का बिषय है इसलिए असवालों को अपनी वंश परम्पराओं व अपने 84 गाँव की जागीर में असवालस्यूँ के नगर की बसासत, आपसी अहम् भाई बंटवारे के बाद कई गाँवों की बसासत इत्यादि शामिल होने के साथ साथ सूर्यवंशी से अग्निवंशी और अग्निवंशी से नागवंशी बनने के सारे संदर्भ शामिल हैं, की जानकारी के लिए किताबें टटोलनी होंगी या फिर मेरे शोध को पढ़ने के लिए हिमालयन डिस्कवर को खंगालना होगा।

सर्वविधित है कि पंद्रहवीँ सदी में जब राजा अजयपाल ने बावन गढ़ विजित कर श्रीनगर बसाया था, तब नागपुर के गढ़पति रणपाल असवाल ने नगर गाँव बसाया व 84 गाँव की जागीर लेने के बाद बिना राजा के अधीन बिना मुकुट के अपना राजतिलक करवाया। तभी से कहावत चरितार्थ हुई “अधो गढ़वाल-अधो असवाल”।

खैर जहाँ 15वीँ सदी में रणपाल असवाल “लंगूर गढ़ (भैरव गढ़) के पहले अधिपति बने वहीं सोलहवीँ सदी में भंधो (भांधो असवाल) महाब गढ़ के गढ़पति हुए। अंतिम गढ़पतियों के रूप में लंगूरगढ़/भैरों गढ़ के गढ़पति भूप्पू असवाल (भौपु असवाल सन 1802) व महाब गढ़ के भगद्यो असवाल…।

अब प्रश्न यह उठता है कि भाग देव असवाल अर्थात भगद्यो असवाल को कैसे नाली गाँव के चमोला बिष्ट थोकदारों द्वारा महाबगढ़ के पुजारी के रूप में यहाँ लाया गया? इस पर क्षेत्रीय ग्रामीण व बुद्धिजीवियों की अलग अलग राय है। कुछ का ही नहीं बल्कि नालीगाँव के थोकदारों का स्वयं भी मानना है कि उन्हें स्वयं असवाल इस क्षेत्र की थोकदारी हस्तगत करके गये थे।

माना जाता है कि गोरखा शासन काल के अंतिम बर्षों में जब महाब गढ़ के तत्कालीन थोकदार जो कि नाली गाँव के चमोला बिष्ट थे, ने महाबगढ़ मंदिर को पुनर्स्थापित कर उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ किया तो नाली के बिष्ट थोकदारों पर दोष चढ़ना शुरू हो गया। पूजा अर्चना की गई तब एक दिन महाब स्वयं थोकदार के सपने में आये और उन्हें बोला कि वह असवालस्यूँ के भगद्यो असवाल को यहाँ का पुजारी बनाये ताकि असवाल जाति का उत्थान हो सके। दरअसल यह असवाल जाति का वह संक्रमण काल था जिसमें उन्हें श्रृंगारमति के श्राप से सम्पूर्ण गढों से हाथ धोना पड़ा। ये वही भगद्यो असवाल हुए जिनके कारण श्रृंगारमति के डोले के खूनी संघर्ष में सैकड़ों राजपूत मारे गये, नाली गाँव के चमोला थोकदारों ने तब अपने रिश्तेदार महाब गढ़ के गढ़पति असवालों के पक्ष में इस आपसी रंजिश में अपनी तलवारें भाँची थी। उस समय महाब गढ़ के गढ़पति असवाल मालन नदी के बायें छोर पर स्थित गहड (असवाल गढ़) रहते  थे। अंत में श्रृंगारमति ने अपने अपनी ही कटार से अपना गला रेतकर असवालों को श्राप दिया कि उनका समूल नष्ट हो जाए। श्रृंगारमति का श्राप प्रभावी हुआ, असवालों के गाँव के गाँव हैजा व अन्य बीमारियों से ग्रस्त होकर तबाह होने लगे। मजबूरन असवालों को पूरा महाब गढ़ क्षेत्र खाली करना पड़ा व उन्हें वापस असवालस्यूँ, यमकेश्वर के खेड़ा-रणचूला, सीला पट्टी के सीला बरस्वार व ताड़केश्वर क्षेत्र के पीड़ा कंदोली गाँव तक सीमाकित हो गये। तब असवाल इस क्षेत्र की सारी व्यवस्था नालीगाँव के चमोला थोकदारों को सौंप गए थे। यह वह समय था जब 1802 के भूकंप ने गढ़वाल में क़हर मचा रखा था और गोरखाओं की फ़ौज गढ़वाल पर आक्रमण करने के लिए तत्पर थी। दैवयोग देखिये जिस महाब (साक्षात शिब) के क्रोध व श्रृंगारमति के श्राप से त्रस्त असवालों ने यह क्षेत्र छोड़ा था। महाब ने उसी भगद्यो असवाल को तलब किया और नाली के बिष्ट थोकदारों द्वारा उन्हें ससम्मान पुन: महाब का गढ़पति स्थापित किया।

नाली गांव के पेशे से अध्यापक कमल सिंह बिष्ट बताते हैं कि इस क्षेत्र में हमारे लगभग आधा दर्जन से अधिक गाँव हैं जिनमे नाली बड़ी, भडेत, पोखरी, उमरौली, दिखेत इत्यादि मुख्य हैं। वह बताते हैं कि महाब (आदि शिव) को क्षेत्रवासी धावडिया देवता के रूप में जानते हैं। हमारे पूर्वज बताते हैं कि उनके समय तक भी देवता किसी अनिष्ट के प्रति रात में आवाज़ लगाकर सबको सचेष्ट कर दिया करते थे। कमल सिंह बिष्ट जानकारी देते हुए बताते हैं कि पहले महाब गढ में माँ काली के चक्र में बलियाँ होती थी जो अब बंद हो गई हैं लेकिन पूर्व में जब भी महाब का मेला जुड़ता था तो काली के चक्र में बकरे की बलि हम नाली गाँव के थोकदार ही दिया करते थे। नाली गाँव के बिष्ट परिवार में किसी घर में बेटा होता है तो महाब में अवस्थित काली को बकरा चढ़ाया जाता है लेकिन जब से बलि प्रथा बंद हुई तब से लोग श्रीफल की बलि देकर महाब के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।वह बताते हैं कि उन्हें जो उनके पूर्वजों से प्राप्त जानकारी है, उसके अनुसार गढ़पति असवालों से उनकी रिश्तेदारी थी इसलिए इस क्षेत्र से जाते समय वह इस क्षेत्र की सम्पूर्ण विरासत हमारे पुरखों को सौंप गए थे।

किंवदंति है कि श्रृंगारमति के श्राप के बाद भगद्यो असवाल ने सांसारिक मायामोह त्याग जोगी रूप में अपनी दिनचर्या प्रारम्भ कर दी थी व वह गढ़पति की जगह महाब की में इतने तल्लीन हो गये कि उन्हें लोगों ने महाब का पुजारी कहना प्रारम्भ कर दिया। भगद्यो अपने वंशजों के “असवाल गढ़” रहा जरूर करते थे जो मालन नदी के बामांग में एक ऊँची पहाड़ी पर अवस्थित था लेकिन वह अपने किले का अन्न जल कुछ ग्रहण नहीं करते थे, बस महाब के चढ़ावे में जो सम्मिलित होता उसी से अपना जीवन यापन करते। यह सब उनकी घोर तपस्या में शामिल था या फिर श्रृंगारमति के श्राप का पश्चाताप कहा नहीं जा सकता लेकिन यह भी सत्य है कि जिस भगद्यो ने श्रृंगारमति का डोला हथियाने के लिए सैकड़ों को मौत के घाट उतारा था वही भगद्यो आज निराकार होकर ॐ में अपने को समाहित कर चुका था। असवालों के असवाल गढ़ के पुस्तैनी पुजारी महेड गाँव (मयडा) के कुकरेती महाब के सेवादार के रूप में बड़े सेवाभाव से असवाल थोकदार के प्रति अपना पुरोहिती धर्म निभा रहे थे।

किंवदंतियों के अनुसार अपनी सौ साल की उम्र जीने के पश्चात एक दिन भगद्यो असवाल ने कुम्भ स्नान कर गंगा शरण होने की बात बड़ी नाली गाँव के बिष्ट थोकदार से अपनी अंतिम इच्छा जाहिर करते हुए साझा की और कहा कि मेरे जाने के बाद मेरी जाति के पुरोहित महेड गाँव के कुकरेती को महाब का पुजारी नियुक्त कर देना। आज भी यह प्रचलन में है कि माँ भुवनेश्वरी का ‘सिंह वाहन‘ उन्हें स्वयं लेने आया जिसमें बैठकर वह गंगास्नान को गये व गंगाशरण हुए। कहा जाता है तभी से हर रोज हर की पैड़ी में महाबगढ़ मंदिर की छाया पड़ती है जो यह दर्शाती है कि शिब और भक्ति दोनों ही कितनी पावन व पबित्र हैं। वहीं मयडा अर्थात महेड गाँव के महाब गढ़ के पुजारी पीताम्बर दत्त बतलाते हैं कि उनके पिता जी बताते थे कि उनके दादा जी ही शेर में सवार होकर गये थे। अब यह भी संभव हो सकता है कि भगद्यो असवाल के बाद उनके पुरोहित कुकरेती को भी सिंह वाहन मिला हो।

महाब गढ़ मंदिर समिति के पूर्व अध्यक्ष पूर्व बीडीसी सदस्य, क्षेत्रीय समाजसेवी व गेंद मेला समिति के उपाध्यक्ष पूर्व सूबेदार नत्थी सिंह बिष्ट जोकि नाली गाँव के थोकदार हैं, बताते हैं कि दरअसल भगद्यो असवाल के स्वर्ग सिधारने से पूर्व ही भगद्यो हमारे पूर्वजों को यह जिम्मेदारी सौंप गये थे कि महेड गाँव के कुकरेती महाब गढ़ के पुजारी रहें। 1802 के प्रलयकारी भूकम्प ने यूँ तो सभी किले गढ़ नेस्तनाबूत कर दिए थे लेकिन क्षेत्रीय दंतकथाओं में महाब गढ़ में स्थापित आदिशिब महाब का वैदिक कालीन शिब लिंग को हेम कूट पर्वत की शीर्ष श्रृंखला पर सप्तऋषियों ने स्थापित किया था। जिसकी पूजा गढ़राज वंश के प्रतापी गढ़पति भंधो असवाल नित नियमानुसार किया करते थे। 1658 में दिल्ली सल्तनत के बादशाह औरंगजेब के भाई दाराशिकोह का औरंगजेब द्वारा सिर कलम किये जाने के बाद उनके पुत्र शहजादा सुलेमान शिकोह चौकीघाटा के रास्ते मालन नदी के बीहड़ों को लांघते हुए श्रीनगर दरबार पहुंचे थे, जिन्हें गढ़वाल नरेश ने संरक्षण दिया था। कहा जाता है कि उनका पीछा करते हुए औरंगजेब की सेना ने चौकीघाटा के रास्ते गढ़वाल में प्रवेश किया लेकिन महाप्रतापी गढ़पति भंधो असवाल के आगे उनकी सेना की एक न चली।

क्षेत्रीय दंतकथाओं के अनुसार औरंगजेब की सेना जितनी बार आक्रमण करती उसकी पूर्व सूचना गढ़पति भंधो असवाल को पूर्व ही महाब आकाशवाणी के माध्यम से दे देते। लेकिन जान की अमानत और पैसे के लोभ ने कुछ क्षेत्रवासियों को मजबूर कर दिया कि वह उस शक्ति पुंज के बारे में बता दें जो यह सब करिश्मा कर देता है। फिर क्या था औरंगजेब के सेनापति नज़ाबत खान अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ एक रात महाब गढ़ पहुंचा और लोह औजारों से वह बिशाल शिबलिंग खोदा व उसे लेकर दिल्ली जा पहुंचा। जहाँ से औरंगजेब ने वह शिब लिंग मक्का मदीना के काबा में स्थापित कर दिया।

गढ़पति भंधो असवाल के महाब गढ़ में कई पीढियों बाद गढ़पति भगद्यो असवाल ने एक छोटे से शिबलिंग को स्थापित किया। ऐसा भी माना जाता है कि प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात् उस शिबलिंग ने पुन: आकाशवाणी करनी प्रारम्भ कर दी व वह धावडिया महाब कहलाने लगा। नत्थी  सिंह बिष्ट बताते हैं कि उनकी उम्र अभी 80 बर्ष है व उनके काल में महेड गाँव के वर्तमान पुजारी पीतांबर दत्त के ताऊ जी पंडित प्रहलाद कुकरेती महाब की पूजा करते थे जिनके दादा परदादा को हमारे दादा पर दादाओं द्वारा भगद्यो असवाल के कहे अनुसार महाब की पूजा की जिम्मेदारी सौंपी थी। पंडित प्रहलाद कुकरेती की कोई आस-औलाद न जन्मी तो उन्होंने अपने बाद महाब की पूजा की जिम्मेदारी अपनी बहन के पुत्र जोगी धरडा गाँव के पंडित गबरू को दे दी, लेकिन जब पंडित पीतांबर दत्त बरेली से सेवानिवृत्ति के पश्चात वापस अपने गाँव लौटे तब इस जिम्मेदारी का निर्वाहन उन्होंने करना प्रारम्भ कर दिया। वे बताते हैं कि मुस्लिम आक्रांताओं ने पौराणिक मंदिर तोड़कर तहस-नहस कर दिया था, फिर भी सदियों से महाब की पूजा निरंतर जारी रही। अपने अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने  समस्त क्षेत्रीय लोगों के सहयोग से सन 1993-94 मंदिर निर्माण का बीड़ा उठाया और मंदिर बनने के बाद मंदिर में बलि प्रथा बंद करवा दी। तब से वर्तमान तक निरंतर यह व्यवस्था बनी हुई है।

आज भी क्षेत्र के बूढ़े बुजुर्ग कहते हैं कि यह सब उनके बुजुर्गों ने प्रत्यक्षदर्शी के रूप में देखा है। वहीं कुछ का कहना यह भी है कि हो न हो वह सिंह सवारी करने वाला पुरोहित कुकरेती जाति का रहा हो लेकिन ज्यादात्तर का कहना है कि वह भगद्यो असवाल ही थे जिनके कारण असवाल शापित हुए व वह भगद्यो असवाल ही हुए जिनके कारण असवाल श्राप मुक्त हुए।

बहरहाल अब महाब गढ़ मंदिर एक समिति के अधीन है व समिति द्वारा कार्यवाहक पुजारी सकन्यूल गाँव के मदन मोहन द्विवेदी को यहाँ पुजारी नियुक्त किया गया है। जबकि बड़ी पूजा में महेड गाँव के पंडित पीताम्बर दत्त कुकरेती व उनके पुत्र ही मंदिर की पूजा व्यवस्था संभालते हैं।

आज भी इस क्षेत्र के थोकदार नाली गाँव के बिष्टों ने अपने गाँव में महाब देवता का मंदिर स्थापित किया हुआ है जबकि इसके अलावा गौल्ला मल्ला में भी महाब मंदिर है। जहाँ ये लोग साल भर महाब की पूजा करते हैं व हर बर्ष महाबगढ़ मंदिर आकर महाशिवरात्रि को भव्य मेले का आयोजन करते हैं। कांडी -कसयाली में जुड़ने वाला सुप्रसिद्ध गिंदी मेला भी तभी प्रारम्भ होता है जब महाब गढ़ की ध्वज पताका वहां पहुँचती है।

महाब गढ़ मंदिर के अंतर्गत पौराणिक पर्वत श्रृंखला और ऋषि मुनियों की तपस्थलियों का वर्णन मिलता है। बिष्णु पुराण, महाभारत काल के भीशम पर्व, कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम सहित विभिन्न पुराणों में इस क्षेत्र का वर्णन मणिकूट के रूप में नीलकंठ व हेमकूट के रूप में महाब गढ़ का संदर्भ मिलता है। यहाँ से कोटद्वार, हरिद्वार, गंगा नदी, ऋषिकेश, देहरादून, लैंसडाउन, मसूरी व हिमालय की उतुंग शिखर बंदरपूँछ, गंगोत्री, केदारनाथ, चौखम्बा, नंदा देवी, त्रिशूल व पंचाचुली दिखाई देती हैं। महाब गढ़ से सूर्योदय व सूर्यास्त दोनों ही बेहद अप्रीतम दिखाई देते हैं और जब चंद्रभा उगता है तो मानों शिब का शीश मुकुट यहीं सुशोभित हुआ हो।

Himalayan Discover
Himalayan Discoverhttps://himalayandiscover.com
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
RELATED ARTICLES

ADVERTISEMENT