Sunday, September 8, 2024
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1955 में पहली बार बेडू पाको बारामासा…मंच लेकर आई थी नईमा खान उप्रेती! जिसे फिर एचएमवी कम्पनी ने ग्रामोफोन पर रिकॉर्ड किया!

1955 में पहली बार बेडू पाको बारामासा…मंच लेकर आई थी नईमा खान उप्रेती! जिसे फिर एचएमवी कम्पनी ने ग्रामोफोन पर रिकॉर्ड किया!

(मनोज  इष्टवाल)

संगीत ने कभी न जाति देखी न धार्मिक मान मर्यादा ..! लेकिन एक काम जरुर और वह काम है दिलों को दिलों से जोड़े रखने का या फिर एक धर्म से दूसरे धर्म को गौरान्वित करने का। फिर चाहे वह जोधा अकबर रहे हों या नईमा मोहन..! दोनों ने अपने रिश्तों में अपने नाम की मर्यादा को बनाए रखा जैसे जोधा ने हिंदुत्व नाम वैसे ही नईमा ने मुस्लिम नाम। मैं अल्मोड़ा के एक साधन सम्पन्न परिवार में पली मुस्लिम समाज की एक ऐसी अल्हड बेटी की बात कर रहा हूँ जिसके गानों में बाल मिठाई सी रसिकता और रूप यौवन में सिंगोरी सा दुग्ध बदन..। जब वह गायकी के सुर को बिखेरती थी तो पूरा शहर उसे सुनने उसके स्कूल पहुँच जाता था। एक तो सम्पन्न परिवार, ऊपर से आवाज की धनि व रूप यौवन में बासंती। भला ऐसी लड़की में तुनक-मिजाजी न हो तो कैसे हो सकता है। शमसेर दा व बिजेंद्र दा अपनी गुफ्तगू में कहते थे नईमा अपने स्कूली दिनों में नाक में मक्खी नहीं बैठने देती थी। सचमुच नईमा व मोहन एक दूसरे के लिए ही बने थे।

नईमा अर्थात उत्तराखंडी लोकगायिका नईमा खान उप्रेती और मोहन अर्थात सुप्रसिद्ध संगीतकार मोहन उप्रेती। इस जोड़ी ने जब विवाह रचाया था तब जाने कितनी सामाजिक मर्यादाएं दोनों ही परिवारों की तार-तार हुई होंगी क्योंकि उस काल में मुस्लिम लड़की व उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार जो प्याज लहसुन भी न खाएं का लड़का अगर ऐसा कर दे तो समाज कहाँ पीछा छोड़ने वाला था। गीत गाते-गाते कब नईमा खान के स्वर व मोहन उप्रेती का संगीत एक दूसरे की साँसों में जा बसे कहना मुश्किल है क्योंकि इसका जवाब खुद न मोहन उप्रेती जी ही दे पाए थे और न नईमा खान उप्रेती ही।

सुप्रसिद्ध संगीतकार नाट्यकर्मी मोहन उप्रेती व उनकी पत्नी नईमा खान उप्रेती!

19 फ़रवरी 1928 को अल्मोड़ा में जन्मे सुप्रसिद्ध संगीतकार, नाट्यकर्मी मोहन उप्रेती ने 1969 में हिन्दू मुस्लिम परिवारों की समरसता को निभाते हुए नैमा (नईमा खान) से विवाह रचाया। यह विवाह दो दिलों का गठबंधन जरुर कहा जा सकता है लेकिन इस विवाह ने जो उत्तराखंडी लोक समाज को बदले में लौटाया वह अक्षुण है! मुझे बर्ष 1990 का वह दिन आज भी याद है वह दिन जब मैं पार्लियामेंट रोड स्थित दूरदर्शन के समाचार प्रभाग में समाचार सम्पादक राजेन्द्र धस्माना जी के कक्ष में बैठा था तब इस जोड़े के पहुँचते ही धस्माना जी ने खड़े होकर इन दोनों का स्वागत किया था! काफी देर चर्चा के बाद धस्माना जी ने कहा – मनोज जानते हो इन्हें..! मैं तपाक से बोल पड़ा- शायद मोहन उप्रेती जी हैं! तब मोहन उप्रेती जी बड़े खुश हुए और बोले- अरे वाह नौजवान, कैसे जानते हो भाई! मैंने कहा- सर मैं आपके नाटक घासी राम कोतवाल, जीतू बगड्वाल रामी बौराणी विभिन्न मंचों पर देख चुका हूँ! फिर उन्होंने अपनी पत्नी यानि नैमा खान की ओर इशारा करते हुए कहा इन मोहतरमा को जानते हो तो मैं बोला- नहीं सर! बीच में राजेन्द्र धस्माना जी बोल पड़े – फिर जानते क्या हो! अरे भई, ये नईमा खान उप्रेती हैं आपकी धर्मपत्नी ! तूने बेडू पाको बारामासा, ओ लाली ओ लाल हौंसिया जैसे गीत सुने होंगे ये इन्होने ही तो गाये हैं!

मैं दोराहे में था लेकिन पहले से ही बुडबंक..! बोल पड़ा- भला खान उप्रेती कैसे हो सकती हैं व खान गढ़वाली कुमाउनी भाषा कैसे जानती हैं! और जहाँ तक मुझे पता है बेडू पाको बारामासा तो गोपाल बाबू गोस्वामी ने गाया है। तीनों जोर से हंसे अब बोलने की बारी नैमा खान की थी। बेहद सहजता से बोली- बस गाते बजाते ही जीवन के बन्धनों में बंध गए!। अब देखो इस उम्र में भी हम दूरदर्शन के चक्कर काट रहे हैं। फिर मोहन उप्रेती जी की ओर मुड़कर बोली थी- चलो भई, कार्यक्रम नहीं करना क्या। आप जहाँ बैठते हो चिपक से जाते हो। उनके जाने के बाद राजेन्द्र धस्माना जी गंभीर हो गए बोले- मनोज, कोई भी बात बोलने से पहले सोच लेनी चाहिए। मैं समझ गया कि कहीं मैं कुछ ज्यादा बोल गया।


नईमा खान उप्रेती की जवानी की फोटो

खैर वक्त आया गया हो गया फिर एक दिन एनएसडी में चलते फिरते इन दोनों लोगों से मुलाक़ात हुई तब मोहन दा की हालत ठीक नहीं थी। कुछ बर्ष बाद पता चला वे स्वर्ग सिधार गए। एक दिन पता करते-करते मैं नईमा खान से मिलने उनके मयूर विहार आवास चला गया। ठीक से याद तो नहीं लेकिन बर्ष 2010 या 2012 की बात होगी। तब की नईमा खान और अबकी नईमा खान में जमीन आसमां का अंतर था। उनके गौर वर्ण चेहरे पर झुर्रियां आ गयी थी व वे बीमार सी थी। खैर अनचाहे मन से उन्होंने दरवाजा खोला। एक नौकरानी ने पानी पूछा और मैंने अपनी इच्छा जताई कि मैं आपका इंटरव्यू करना चाहता हूँ। उनके लहजे में चिढ-चिढापन था लेकिन सब्र रखती हुई बोली- बेटे, जिन्दगी भर जाने कितने साक्षात्कारों से गुजरी हूँ अब रहने भी दे। स्वास्थ्य ठीक नहीं है। चाय पीनी है तो बता..! मैं समझ गया था कि वे मुझ जैसे अनचाहे व्यक्ति से मिलना नहीं चाहती क्योंकि उन्हें अब याद भी नहीं था कि हम पूर्व में मिल चुके हैं। भला मैं ढीड इतनी जल्दी कैसे वहां से रुखसत हो जाता। फिर मैंने चोट की- मैडम, बेडू पाको बारामास गीत तो नेपाल बझांग जिले का है फिर उसे आपने कैसे मंगवाया और एच एम वी में ग्रामोफोन पर गाया। इसे तो गोपाल बाबू गोस्वामी ने गाया है न।

उन्होंने शांत स्वर में कहा- मैं पहली गायिका हूँ जिसने इसे ग्रामोफोन पर गाया है। और यह गीत नेपाल के बेडू पाको नहीं है बल्कि अल्मोड़ा के गीतकार ब्रिजेन्द्र लाल शाह का है जो मेरे व मोहन के सहपाठी रहे हैं। उसे संगीत की द्रुत गति में मोहन ने ढाला और मैंने सबसे पहले गाया है उसके बाद गोपाल बाबू गोस्वामी ने भी गाया मैं ना कहाँ बोल रहा हूँ। गोपाल ने तो मेरे गाये और भी गीत गाये हैं। ब्रिजेन्द्र लाल शाह जी का घर नंदा देवी मंदिर से जुड़ा हुआ है इसलिए उन्होंने गीत में एक जगह लिखा है- अल्मोड़ा की नंदा देवी, ओ नरैणा फूल चडूनु पत्ती मेरी छैला..! फिर तो वह अपना दर्द भूल गयी और उतर गयी यादों के समन्दर में। बोली ब्रिजेन्द्र शाह जी ने तो कई गीत दिए। एक मैंने व मोहन उप्रेती जी ने उनका गीत गया था शायद उसके बोल थे- पारा रे भीड़ा को छै घस्यारी ,मालू रे तू मालू नै काट मालू…! यही नहीं मेरे एक गीत की धुन तो उस दौरान चोरी भी हुई तुमने सुना होगा- “ओ लाली ओ लाली हौसिया, पदानि लाली तीलै धारु बोला”।

अपने अंतिम दिनों में नईमा खान उप्रेती !

वह याद करती हुई बोली – हाँ, वह हिंदी गीत धुन थी गीत गाया पत्थरों ने ..! वह बोली- किसको सुनाऊं कितनी सुनाऊं अब मन नहीं होता। बस एक ही मन होता है कि जिस पहाड़ के लिए हम अपने को खपाते रहे उसने उसे सम्भालकर भी रखा है या नहीं। तुम्हे पता है मैंने उनके साथ (संगीतकार मोहन उप्रेती ) विवाह के बाद भी नाट्य मंचों पर गाया ही नहीं अभिनय भी किया है। मैंने राजुला मालूशाही, रामी बौराणी सहित जाने कितने नाटकों को अपनी आवाज व अभिनय दिया है। वैसे राजुला-मालूशाही, रसिक-रमौल, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, अजुवा-बफौल, घासीराम कोतवाल, अली बाबा, उत्तर रामचरित्त, मशरिकी हूर और अमीर खुसरो सहित जाने कितने नाटक मोहन ने जिन्दगी में उकेरे हैं, वो शून्य को निहारती बोली- शायद हम पैदा ही इसके लिए हुए थे।

मैंने प्रश्न किया – फिर आप दूरदर्शन क्यों जाती रही हैं? इस प्रश्न की शायद उन्हें मुझसे उम्मीद नहीं थी फिर आश्चर्यमिश्रित शब्दों में बोली- क्या तुम्हे नहीं पता कि मैं दूरदर्शन में ब्लैक एंड वाइट के जमाने की प्रोडूसर रही हूँ। यह सुनकर सचमुच मुझे आत्मग्लानि हुई क्योंकि दूरदर्शन से इतना सम्बन्ध होने के बावजूद भी मुझे नहीं पता था कि ये वही नईमा खान हैं, जिनका नाम कई बार छोटी स्क्रीन पर उभरकर आता है। मुझे अपने पर गुस्सा इसलिए आ रहा था कि मैं तैयारी करके क्यों नहीं आया होऊंगा। चाय की चुस्कियां समाप्त होते ही मैंने इजाजत ली और शाम की बस पकड़कर देहरादून आ पहुंचा।

आज उत्तराखंड की ऐसी पहली महिला लोकगायिका तब याद हो आई जिसने ग्रामोफोन पर उस जमाने में गीत रिकॉर्ड करवा दिए थे जब लोग इस बाबत सोच भी नहीं सकते थे! यह याद वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगराण जी के सोशल साईट पर पढ़ी पोस्ट ने दिलाई जिसमें उन्होंने लिखा था -कुमाउंनी लोकगायन व राष्ट्रीय रगमंच की जानी-मानी रंगकर्मी नईमा खान उप्रेती का कल 15 जून की सुबह दिल्ली के मयूर विहार फेस 2 स्थित किराए के घर में निधन हो गया। वह 80 वर्ष की थीं और अरसे से बीमार थीं।उनकी देह करारनामे के मुताबिक बिना दाह संस्कार के आयुर्विज्ञान सस्थान (एम्स) को दान कर दी गई।

1955 मे नईमा खान ने अल्मोड़ा लोक कलाकार संघ से जुड़कर मोहन उप्रेती के साथ ‘बेडू पाको…, ‘ओ लाली ओ लाली…तथा ‘पारा भीड़ा को छै घस्यारी… जैसे कालजयी लोकगीतों को राष्ट्रीय पहचान दिलवाई। उन्होंने 1968 मे राष्ट्रीय नाट्य विघालय से एक्टिंग मे डिप्लोमा लिया और कई नाटकों मे भूमिकाएं भी कीं।

अपने पति संगीतज्ञ मोहन उप्रेती की मत्यु के बाद वह राजधानी की प्रसिद्ध संस्था पर्वतीय कला केंद्र की अध्यक्ष भी रहीं। न सिर्फ उत्तराखण्ड, बल्कि देश की लोकसंस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए नईमाजी का योगदान अक्षुण्ण है। इसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनका निधन हम सबके लिए एक अपूरणीय क्षति है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।( श्री सी.एम. पपनै के व्हाट्सएप से )

मुझे याद है कि सन 1997 में संगीतकार मोहन उप्रेती के स्वर्ग सिधारने की खबर सुनने के बाद मैं बिजेंद्र लाल शाह जी से मिलने अल्मोड़ा गया था तब वे शमशेर सिंह बिष्ट जी के साथ थे और उन्होंने सहृदय मुझसे कहा था- इष्टवाल जी, हम दोनों ने बहुत यात्राएं एक साथ की हैं। ये दोनों इस समाज से लेने के लिए नहीं बल्कि इसे देने के लिए पैदा हुए थे। स्व. बिजेंद्र लाल शाह का पुराना आवास अल्मोड़ा स्थित नंदा देवी परिसर से जुड़ा हुआ था। वर्तमान में भी उनका परिवार बमुश्किल नंदा देवी मंदिर से 100 मीटर दूरी पर स्थित है। नंदा के आराध्य भक्त होने के कारण ही शायद उन्होंने बेडू पाको बारामास गीत में अल्मोड़ा की नंदा देवी का जिक्र कर उसे विश्व प्रसिद्ध बना दिया है! यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था कि बेडू पाको बारामासा रचना बिजेंद्र लाल शाह द्वारा लिखी गयी है जबकि मैं इसे पश्चिमी नेपाल के बंझांग जिले में भी 1989-90 में सुन चुका हूँ जिसे वहां का जनमानस भी कुछ हमारी तरह ही गाता है। वहां बेडू पाको बारामासा की जगह बड़ामासा है, लेकिन जो गीत नईमा खान उप्रेती ने सुप्रसिद्ध संगीतकार मोहन उप्रेती के संगीत में ढालकर गाया है और जिसे बाद में गोपाल बाबू गोस्वामी ने भी गाया है वह सौ आने बिजेंद्र लाल शाह द्वारा रचित गीत कहा जा सकता है।

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