65 साल की उम्र का वह यायावर, फोटोग्राफर, सम्पादक व ढाकरी आख़िर निकल ही गया अपनी अंतिम यात्रा पर।
(मनोज इष्टवाल)
कुछ लोग जिंदगी में भुलाए नहीं भूलते। ये जुगनू की तरह अपने आप को भी अनन्त आकाश में स्थापित करके कहते हैं, अंधेरा नहीं है मैं हूँ ना तुम्हारी यात्राओं के साथ अंतिम क्षण अंतिम कदम तक। ऐसे ही हम सबके ट्रैकिंग के मित्र यायावर, सम्पादक, फोटोग्राफर व लगभग 132 किमी. की ढाकर यात्रा के सबसे वयोबृद्ध साथी मेरे सबसे करीबी व अभिन्न साथी विगत बर्ष 7 जून 2020 को अचानक हम सबको चुपके से गुडबाय नमस्ते सलाम बोलकर अनन्त यात्रा पर निकल गए।
वह दिन आज भी मेरे जेहन में बहुत अच्छे से घुसा हुआ है जब 21 मार्च 2020 को हमारा बुराँसी गांव की ढलान उतरकर सीला गांव स्थित गोल्डन महासीर कैम्प में पहुंचने को बेताब था। तब अन्य सभी साथी सीला मल्ला को चढ़ने लगे क्योंकि वहां टीम के स्वागत सत्कार की तैयारी थी। मैं, दिनेश कंडवाल, मुकेश बहुगुणा व उनकी श्रीमति जी ने फैसला लिया कि हम उन्हें अब कैम्प में मिलेंगे। एक मोड़ के बाद जब दिनेश कंडवाल जी की नजर गोल्डन महासीर कैम्प पर पड़ी तो बोले- धन्य हो। अब हम पहुंच ही गए लगभग। लेकिन इष्टवाल जी, इस बार की यात्रा के बाद अब लगने लगा है कि यह मेरी अंतिम यात्रा है। अब आगे शायद ही आपके साथ यात्राओं में जुड़ सकूं।
मैंने उचककर उनके चेहरे पर नजर मारी तो पाया ये शब्द उनके काफ़ी गम्भीर थे। पीछे खांसते खांसते परेशान मुकेश बहुगुणा जी ने बलगम थूकते हुए कहा- अरे सर, कैसी बात कर रहे हैं। अभी हम दोनों ने और भी यात्राएं साथ करनी हैं। आपके बाद मैं ही दूसरे नम्बर का बुजुर्ग हूँ टीम में। कंडवाल जी सिर्फ मुस्कराए और दो कदम आगे बढ़े। वैसे भी मिस्टर व मिसेस बहुगुणा हमसे फासले पर थे। कंडवाल जी मुझसे बोले- इष्टवाल जी, इस महिला को धन्यवाद जो ऐसी विकट यात्रा में बहुगुणा जी की लाठी बनकर उनके साथ चल रही हैं। मैं बोला- तो मिसेस कंडवाल को साथ ले आते, इस बहाने वह भी घूम लेती। बोले- वैसे इसके बाद यात्रा कर पाऊंगा कि नहीं कह नहीं सकता लेकिन अगली बार अगर कोई छोटा ट्रैक हुआ तो उन्हें भी लेकर चलूंगा, बशर्ते कोई और महिला साथ चले। वैसे यहां से जाने बाद मुझे उन्हें लेकर छोटे लड़के के पास बंगलुरू जाना है। बहु का बच्चा होने वाला है। फिर हम कुछ समय वहीं रहेंगे।
21 मार्च 2020 को कैम्प में तरीके का जश्न नहीं हो पाया क्योंकि सब थके हुए थे। 22 को जश्न की तैयारी थी कि अचानक कैम्प तक खबर पहुंची कि कोरोना काल घोषित किया जा चुका है और 23 से पूरे प्रदेश में लॉकडाउन लग जायेगा। फिर क्या था हमारी टीम जिसमें गढवाळी फिल्मों के पितामह पराशर गौड़, रतन असवाल, दिनेश कंडवाल, प्रवीण भट्ट व प्रणेश असवाल व रतन असवाल के भतीजे इत्यादि शामिल थे। आनन फानन देहरादून के लिए निकल पड़े। कंडवाल जी लगभग 25 दिन इस दौरान मेरे घर पर रहे और 5 जून 2021 को उनके पुत्र मिंटू (प्रांजल कंडवाल) का मुझे फोन आया कि पापा डिहाइड्रेशन के कारण ओएनजीसी अस्पताल में एडमिट हैं, चिंता की आवश्यकता नहीं शायद कल या परसों डिस्चार्ज हो जायेंगे। मैं भी सोचा कि चलो कल जाकर मिलूंगा। दूसरे दिन वर्कलोड व अपनी भुल्लकड़ प्रवृत्ति के कारण वहां न जा सका। 7 जून को अचानक मिंटू का रोते हुए फोन आता है-अंकल, पापा नहीं रहे। मानों बज्रपात हुआ हो। मैं स्तब्ध…! फेसबुक में छोटा सा एक नोट लिखा और फिर फोन घनघनाते रहे निरंतर लगातार…। पूरा सोशल मीडिया दिनेश कंडवाल की मौत पर स्तब्ध था। यह मेरी जिंदगी का पहला इत्तेफाक था जब मुझे पश्चिमी बंगाल से लेकर देश के विभिन्न क्षेत्रों से फोन आने शुरू हुए। तब लगा कि मेरे मित्र की जिंदगी की असल कमाई तो ये है।
योगी अरविंद ने विगत जनवरी 2021 में फोन करके मुझसे कहा कि उनकी इच्छा है कि दिनेश कंडवाल की पुण्यतिथि पर हर साल वे उत्तराखण्ड के नामी गिरामी वाइल्डलाइफ फ़ोटोग्राफर के नाम का चयन कर दिनेश कंडवाल के नाम का पुरस्कार देंगे व उसमें एक धनराशि भी सम्मिलित करेंगे। हमने उनके विचार का हृदय से स्वागत किया। तैयारियां भी थी लेकिन कोरोना संक्रमण ने इस साल भी पीछा नहीं छोड़ा।
समय साक्ष्य प्रकाशन की रानू बिष्ट व मित्र प्रवीण भट्ट ने उनके सम्मान में एक कलेंडर जारी किया। दिनेश कंडवाल जैसा व्यक्तित्व भला हम सबके बीच से कैसे गायब हो सकता है। 7 मार्च 2021 को उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर उस अंतिम यात्रा का वह लेख उन्हें समर्पित जो मेरे द्वारा उन पर लिखा गया था।
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 22 अप्रैल 2020)
पहली मुलाक़ात 1995……! स्थान चकराता जौनसार भावर की ठाणा डांडा थात! गले में कैमरा व एक खूबसूरत पहाड़ी महिला के साथ “बिस्सू मेले” में फोटो खींचता दिखाई दिया यह व्यक्ति! गले में लटका कैमरा nikon F5 ! मैं अचम्भित था कि चकराता में यह जापानी, चीनी या फिर कोरियन व्यक्ति कैसे आया व इनके सम्पर्क में आई क्या यह महिला चकराता की है? मैं खुद को रोक नहीं पाया और पूछ बैठा “Hi gentleman, which country you belong.” (हेल्लो सजन व्यक्ति, आप किस देश से हैं!) वे हंसे व बोले- भैजी, मी भी यखो कु ही छऊँ! (भाई जी मैं भी यहीं का हूँ)!
ये था इस व्यक्ति से पहला परिचय! बात आई गयी हुई ! कौन था क्या था मैं तो भूल गया लेकिन यह व्यक्ति मुझे इसलिए नहीं भूला क्योंकि यह व्यक्ति कैमरों का शौक़ीन….! दूसरा मेरे साथ उस समय शूट पर कुछ जौनसार की खूबसूरत अदाकारा लडकियां भी थी क्योंकि तब मैं एक वृत्तचित्र के निर्माण कार्य में जुटा हुआ था! मुझे क्या पता कि हावर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र जिसने 2004 में फेसबुक लांच किया था उसी जुकरबर्ग द्वारा 2013-2014 में फेसबुक ने भारत सहित 40 देशों के मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों से समझौता कर इसकी शुरुआत की। एक दिन फेसबुक पर दिनेश कंडवाल के नाम से मुझे फ्रेंड रिक्वेस्ट आती है तो मैं इसलिए स्वीकार नहीं कर पाता क्योंकि तब मैं भी इस टेक्नोलॉजी को समझने की कोशिश कर रहा था! फिर उनका मेसेज आता है जिसमें लिखते हैं हम ठाणा डांडा मेले में मिले थे तो मैंने फ़ौरन उनकी मित्रता स्वीकार कर ली! तब से आज तक यह मित्रता गहराई है तो बस गहराती ही चली गयी!
अब पता चला वह महिला उनकी गर्ल फ्रेंड नहीं बल्कि श्रीमती कंडवाल (धर्मपत्नी) हैं जिन्हें मैंने 1995 में देखा था। तब से आजतक हम दोनों ही जाने कितने अभियानों में गढवाल व कुमाऊं मंडल की कई पहाड़ियां नाप चुके हैं व वहां की अलग अलग संस्कृतियों से रूबरू हुए हैं। अगर यह कहूँ कि हमने रुपिन-सुपिन तमसा यमुना, अलकनंदा-भागीरथी, गंगा व पूर्वी पश्चिमीं नयार, मालन, राम गंगा, सरेयू, काली-गोरी व महाकाली घाटियों को साथ-साथ नापा हुआ है या घाट-घाट का पानी पिया हुआ है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
हिमालयन दिग्दर्शन यात्रा 2020 में ढाकरी बनने से पूर्व उनका एक दिन फोन आता है – इष्टवाल जी, आप भी चल रहे हैं न! मैंने जानबूझकर अनजान बनते हुआ कहा- कहाँ..? तो बोले- छोड़ो यार मजाक मत करो! बताओ चल रहे हो न ढाकर यात्रा। मैं खुश हुआ यह सोचकर कि जब 65 बर्षीय यह व्यक्ति करीब 96 किमी. पैदल यात्रा का साहस बटोर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं! फिर क्या था उनका भी बैग रुक्सेक पैक मेरा भी और निकल पड़े 17 अप्रैल 2020 को ठाकुर रतन सिंह असवाल की इनोवा से कोटद्वार कण्वाश्रम…! जहाँ से शुरू होनी थी हमारी 4 दिनी हिमालय दिग्दर्शन ढाकर यात्रा…।
दिनेश कंडवाल पूर्व में पत्रकारिता से जुड़े रहे व बाद में ओएनजीसी में भू-वैज्ञानिक बने। सेवानिवृत्ति के पश्चात पुनः अपने पुराने पेशे में आ लौटे व उन्होंने “देहरादून डिस्कवर” नामक एक मैगजीन का सम्पादन शुरू कर दिया।
हिमालयी क्षेत्र की यों तो हमने एक साथ जाने कितनी यात्राएं की हैं लेकिन कण्वाश्रम-कोटद्वार- दुगड्डा- कांडी- पौखाल- महाब गढ़ (सडक मार्ग) महाबगढ़-भरपूर-कंडियाल-गाँव-मैडा (चुन्ना-मयडा)-मांडई-किमसेरा-जुड्डा-पौखाल (पैदल मार्ग), पौखाल-कीर्तिखाल (सड़क मार्ग) व केतुखाल (कीर्तिखाल)-भैरवगढ़ी-राजखील-बुरांसी-सीला-बांघाट-गोल्डन महाशीर कैंप (पैदल यात्रा) तक की इस यात्रा में जोकि कुल मिलाकर 156 किमी के आस-पास थी जिसमें हमारी टीम ने 36 से 40 किमी. यात्रा पैदल तय की, सबसे टिपिकल रास्ता अगर कोई था तो वह भरतपुर-कंडियालगाँव-चुन्ना- मयडा का 8 किमी. का रास्ता था। महाबगढ़ से हमें इसी रास्ते स्यागाड़ व मालन संगम तक पहुंचना था क्योंकि इससे जुड़े कई ऐतिहासिक सन्दर्भ थे जिनमें भरतपुर “राजा भरत की जन्मस्थली” व मयडा गाँव स्वर्ग अप्सरा मेनका का आश्रम। यहाँ से जुड्डा तक हमने मालन नदी के बहाव के विपरीत उसके उद्गम स्थान की तरफ बढना था।
सच कहूँ तो जिन्दगी में मैंने जाने कितने कठिन रास्ते नापे हैं लेकिन यह रास्ता मुझे सिलोगी धार से उतिंड-बागौ होकर बाडयूँ नयार में उतरने जैसा ही लगा। क्योंकि दोनों ही रास्तों में एक जैसी ढाल एक जैसे पत्थर.. । जो पैरों के जूतों को चलने की कम इजाजत दे रहे थे और फिसलने की ज्यादा। सिलोगी धार से उतिंड-बागौ होकर बाडयूँ नयार में उतरने वाला फिर भी रास्ता कहा जा सकता है लेकिन इस रास्ते में तो मानव चहलकदमी न होने के कारण कहीं रास्ते का नामों-निशाँ नहीं था।
हिमालय दिग्दर्शन यात्रा की यह ढाकर टीम इसीलिए इस रास्ते पर उतरते हुए कई टुकड़ियों में विभक्त हो गयी। कुछ युवा व उत्साही ढाकरी टीम लीडर रतन सिंह असवाल को फ़ॉलो करते हुए उनके साथ कदमताल करते हुएउनके फ़ॉर्मूलानुसार बस चलते रहो की परम्परा निभा रहे थे तो कुछ अपनी मंथर गति की चाल से आवोहवानुसार बढ़ रहे थे। मैं शायद इस सब से अलग थलग था क्योंकि मुझे यात्रा वृत्तांत लिखने का जो चस्का है! और लाजिम भी है कि आखिर हम यात्रा करते किस लिए हैं? इसीलिए ना कि हम आने वाली जनरेशन के आगे कुछ परोस सकें ताकि हमें पढ़ते हुए वे उन हर यात्राओं के साथ उस क्षेत्र की ऐतिहासिक, सामाजिक, भौगोलिक व सांस्कृतिक जानकारियों को भी जान सके। यहाँ मैं कभी भी किसी भी यात्रा में ठाकुर रतन असवाल की सोच का इसलिए पक्षधर नहीं रहा क्योंकि उन्हें सिर्फ अपने तय लक्ष्य पर किसी भी हालत में जल्दी से जल्दी पहुंचना होता है, जबकि मैं यात्राओं को उस ट्रैकर, लेखक व पत्रकार की तरह लेता हूँ जिसके शरीर से जितना अधिक पसीना इस श्रम साध्य काम पर लगता है उतना ही मैं उस क्षेत्र से बाहर निकालकर उसे कलमबद्ध करने में लगाता हूँ।
बहरहाल इस ढाकर यात्रा के सबसे सीनियर ढाकरी हमारे दिनेश कंडवाल जी ही हुए जिन्होंने 65 साल की उम्र में भी यह जता दिया कि इच्छाशक्ति के आगे उम्र कुछ नहीं बेचती क्योंकि अगर उम्र का ही मामला होता तो जिस आदमी के हार्ट के दो-दो ऑपरेशन हुए हों जो डायबिटिक हो वह आदमी भला कैसे यह दुस्साहस कर सकता है। सचमुच यह औरों के लिए आश्चर्य की बात रही हो या न रही हो लेकिन मेरे लिए इसलिए आश्चर्य की बात हुई क्योंकि मैं यह बात पूर्व से ही जानता था।
इस ढाल पर सबसे ज्यादा अगर उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ा तो वह उनके क्वाचा के जूतों के कारण…! क्योंकि उन्हें टाइट साइज़ शूज पहनने की आदत है व यह ढलान इतनी तीब्र है कि पूरा पैर जूते को फाड़कर अँगुलियों के रास्ते बाहर निकलने को तैयार था। इससे पूर्व जून 2017 में मधमहेश्वर, 2019 में देवजानी की यात्रा के दौरान मैं देख चुका हूँ जब उनके पैर के नाख़ून नीले पड़ गये थे। तब भी मैंने कंडवाल जी को बोला था कि आप एक साइज़ जूता बड़ा पहनिए वरना यह परेशानी आपके साथ आएगी। उन्होंने तब भी मुस्कराते हुए जबाब दिया आज भी वही जबाब था कि इष्टवाल जी, मैं कमीजे ढीली पहनना पसंद करता हूँ लेकिन जूता मुझे बिलकुल फिटिंग का चाहिए। आज भी वही नतीजा हुआ जब हम चुन्ना-मयडा स्कूल में पहुंचे तो उनके नाख़ून नीले पड़ने शुरू हो गए थे। फिर टोका मैंने- मेरी मानों स्लीपर पहन लो।बोले- स्लीपर से कटने का डर रहता है। डायबिटिक हूँ तो फिर घाव भरने में बहुत दिन लग जाते हैं।
आइये दिनेश कंडवाल जी के बारे में फ़्लैश बैक जाते हैं। पहली नौकरी एफआरआई में डेली वेजेज पर शुरू की। नौकरी पसंद नहीं आई तो डीबी प्रिटिंग प्रेस अपने मित्र देशबन्धु के साथ शुरू की व एक अखबार चलाना शुरू किया। यहाँ भी जब सफलता नहीं मिली तो हार्डकोर कामरेड में गिने जाने लगे। भाई उन्हें अपने साथ असम ले गए लेकिन कुछ समय बाद वहां भी पसंद नहीं आया तो देहरादून लौट आये व भैरव दत्त धूलिया के भाई योगेश्वर प्रसाद धूलिया के पुत्र नवीन धूलिया के साथ ऋषिकेश में तरुण हिन्द अखबार में जॉब करना शुरू कर दिया। शादी हुई दो बच्चे हुए तब उन्हें लगा कि अब पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने का वक्त आ गया, और फिर शुरू हुआ ओएनजीसी में नौकरी का सफर…! जहाँ से बतौर भू-वैज्ञानिक उन्होंने 2012 में बीआरएस लिया और लौट आये अपनी पुरानी वही पत्रकारिता की दुनिया में! यहां शाादी के बाद किस कदर उनका स्ट्रगल रहा उसके फ्लैशबैक में जाऊंगा तो आपके भी आंसू निकल पड़ेंगे। उनका मानना है कि उनकी पत्नी श्रीमति सुलोचना कंडवाल ने जिस कदर अभाव के दिन अपनी जिंदगी में देखें हैं उन्हें याद वे याद करके भी सिहर उठते हैं। दिनेश कंडवाल जी अक्सर ड्रिंक के बाद मुझसे हमेशा एक ही बात में झगड़ते थे कि मैं अपने परिवार के प्रति पूरा ध्यान नहीं दे रहा हूँ। मैं मुस्करा देता और उन्हें अक्सर टाल देता क्योंकि मैं जानता हूँ कि अतीत भुलाए नहीं भूलता।
उनके निजी शौक में बर्ड वाचिंग, कैमरे का ट्रिगर व प्रकृति विन्हास व महंगी ड्रिंक का शिप प्रमुख हैं, कंडवाल जी कहते हैं स्कॉच का मजा ही तब है जब आप उसे सूंघ लें। हा हा हा…दिनेश कंडवाल जी अक्सर ड्रिंक सूंघकर ही लेते हैं। यही कारण भी है कि वे इस उम्र में भी अपना पिट्ठू कसकर ट्रैकिंग करने निकल पड़ते हैं बिना यह सोचे कि आगे क्या होगा। वो कहते हैं- इष्टवाल जी, जब तक हाथ पैर चल रहे हैं तभी तक आदमी ज़िंदा है और स्वास्थ्य भी। जिस दिन मैं घर बैठ गया, मुझे पता है मेरी स्थिति भी अपने उन्हीं मित्रों की तरह हो जायेगी, जो कंपकंपाते पैरों से चलते हुए मुझे अक्सर ओएनजीसी हॉस्पिटल के बाहर दवा लेते दिख जाते हैं।
बात तो यकीनन उनकी सौ आने सच है। व्यक्ति की जिजीविषा जब तक उसके साथ है यकीनन वह तब तक अपने हिसाब से जीता है, जिस दिन जीने का शऊर वह भूल जाय उस दिन हर एक की यही गति होती है
उनकी यात्राओं में उनकी पहली यात्रा 1985 संदक-फ़ो(दार्जलिंग)-संगरीला (12000 फिट सिक्किम ) चोटी रही हैं जो उन्होंने चार दिन की यात्रा में तय की। सबसे बड़ी यात्रा उन्होंने नेपाल में 21 दिन की ट्रैकिंग “थोरांग-ला पास”(18500 फिट) दर्रे की की थी। यह यात्रा नेपाल के बेसी शहर से पोखड़ा तक की है जिसमें गंडकी नदी को पार करना पड़ता है। इसके अलावा नेपाल में और यात्रा के अलावा नागालैंड में तीन दिवसीय डिजोकु-वैली ट्रैक, मेघालय में “लिविंग रूट ब्रिज” ट्रैक गढवाल-कुमाऊं में कई यात्राओं में वैली ऑफ़ फ्लावर, मदमहेश्वर, दूणी-भितरी, मोंडा-बलावट-चाईशिल बेस कैंप, देवजानी-केदारकांठा बेस, तालुका-हर-की-दून बेस, जखोल इत्यादि दर्जनों यात्राओं के अलावा लद्दाख में अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुलोचना कंडवाल के साथ “सिन्दू-जसकार नदी संगम का चादर ट्रैक” प्रमुख हैं!
नार्थ ईस्ट में त्रिपुरा सरकार द्वारा उनकी पुस्तक “त्रिपुरा की आदिवासी लोककथाएँ” प्रकाशित की गयी जोआज भी वहां कीस्टाल पर सजी मिलती है। इसके अलावा ओएनजीसी की त्रिपुरा मैगजीन “त्रिपुरेश्वरी” पत्रिका का सम्पादन किया। इसके अलावा स्वागत पत्रिका, धर्मयुग, कादम्बनी, हिन्दुस्तान, नवीन पराग, सन्डे मेल इत्यादि में कई लेख लगातार छपते आये हैं
यह ढाकर यात्रा जब ऐसा ही जीवट शख्स कर रहा हो तो उसका सानिध्य मिलना वास्तव में कितना शुकून भरा होगा। समय साक्ष्य प्रकाशन के प्रवीन भट्ट इस ढाकर यात्रा में दिनेश कंडवाल जी के सबसे ज्यादा करीब रहे इसलिए मुझे तसल्ली रही कि जिस साथ के साथ वह यात्रा कर रहे हैं वह उन्हीं के टेस्ट का व्यक्ति है। प्रवीण भट्ट जी ने इस निर्ध्वन्ध यात्रा में उनके सानिध्य में क्या खोया क्या पाया यह तो वही बता सकते हैं लेकिन यह सचमुच हम सभी के लिए बेहद सुखद था कि इनके मुंह से एक दिन भी कभी आह-ओह सुनने को नहीं मिला।
इस यात्रा के दौरान जब भी मेरा मस्तिष्क यात्रा वृत्तों को गूंथने से बाहर निकलता तो मुझे असवालस्यूं थैर गाँव (विकास खंड-कल्जीखाल, पौड़ी गढ़वाल) के वह ढाकरी माडू थैरवाल याद आ जाते जिनके नमक के भारे में खैरालिंग महादेव (मुंडनेश्वर) असवालों की थाती-माटी में आये थे। और …उस दौर में उन पर चौंफला गीत जिसे खुशियों का इजहार करने की कला कहते हैं, प्रचलित हुआ–“ढाकर पैटी रे माडू थैरवाला! अस्सी बर्षो कु बुढ़या माडू थैरवाला।”
यहाँ तो बात अलग है बॉस….! दिनेश कंडवाल के लिए यह शब्द कहना कि बूढ़ा! तो जबाब यही होता है बूढ़ा होगा उसका बाप…! अभी तो मैं जवान हूँ!