(मनोज इष्टवाल)
पटकथा व निर्देशन की हिलती डुलती डोर के साथ आगे बढ़ती यह फ़िल्म तकली की ऊन की मानिन्द लगी। जो कतती गई और मजबूती पकड़ती आगे बढ़ती गई। यकीन मानिये यह कभी जासूसी फ़िल्म के साथ आगे बढ़ती हुई नजर आती है तो ऐन हॉरर में तब्दील हो जाती है।
138:22 मिनट की यह फ़िल्म पहली ऐसी गढ़वाली फ़िल्म है, जिसके दोनों ही मुख्य पात्र अर्थात अभिनेता व अभिनेत्री गढ़वाली नहीं हैं। अभिनेता अभिनव चौहान जौनसार क्षेत्र के हैं, जबकि अभिनेत्री मानवी पटेल लखनऊ से हैं। अभिनेता अभिनव चौहान की बड़े परदे की यह पहली फ़िल्म है जबकि अभिनेत्री मानवी पटेल इससे पूर्व एक उड़िया फ़िल्म में काम कर चुकी हैं।
पटकथा लेखक व निर्देशक अनुज जोशी की प्रशंसा करनी होगी कि मध्यांतर के बाद जब फ़िल्म अपने चरम पर पहुँचती है, तब यह बॉलीवुड के परदे की फ़िल्मी कहानी नहीं रह जाती, जिसका एन्ड हम पहले समझ लेते हैं बल्कि दक्षिण भारत के बड़े बजट की फ़िल्म व हॉलीवुड की फ़िल्म की तरह रोमांचक ट्विस्ट ले लेती है। सच कहूं तो यह पल एक बार आपको जरूर गुस्सा दिलायेगा कि निर्देशक हमारे गढ़वाल की लोक व धर्म संस्कृति के साथ भला ऐसा कैसे कर सकता है, लेकिन अगले ही पल आपका मुंह खुला रह जाएगा व होंठ मुस्करा देंगे लेकिन कुछ पल बाद मुलायम दिल वालों के आंसू भी निकल आएंगे।
200 साल पूर्व का सफर तय करती यह हॉरर फ़िल्म अब तक 40 लोगों की जान ले चुकी होती है और जब 41वें की जान लेने को आमादा रहती है, तब तक अभिनेता उसके समुख खड़ा हो जाता है। चंद पल दोनों की आँखे मिलती हैं। भूत बनी ब्योली की आँखों से अंगारे बरसने लगते हैं जबकि अविश्वास मिश्रित डर से अभिनेता की आँखें फ़ैल जाती हैं।
शानदार क्लाईमैक्स का यहाँ क्या अंत होता है, उसे बताने की जगह आपको स्वयं सिनेमा हॉल जाना होगा और मेरा दावा है कि आप इस हॉरर फ़िल्म को देखकर ख़ुशी से ताली बजाकर बाहर निकलेंगे। भले ही कहीं कहीं पर लम्बे डायलॉग कभी कभी आपका ध्यान भटका देंगे वो भी तब जब आप फ़िल्म की समीक्षा मेरी तरह निरंकुश होकर करें। वरना सम्पूर्ण फ़िल्म आपको बांधे रखती है।
छप्पन की भूमिका में पहली बार परदे पर अभिनय करने उतरे मुकेश बड़थ्वाल ने पूरी फ़िल्म में ठेठ डायलॉग बोलते हुए सबको खूब हँसाया गुदगुदाया। उनका तकिया कलाम वाला डायलॉग तो पिक्चर हॉल से बाहर निकलते युवकों के मुंह चढ़ गया था। कई बाहर निकलते बोलते जा रहे थे कि “हमर गढ़वाल म इनो नि होंद भैजी”…।
पुजारी के पात्र के रूप में रंगमंच व परदे के मंझे हुए कलाकार मदन डुकलान की दमदार डायलॉग डिलीवरी ने हॉल गुंजाये रखा। उनके हार्ड कोर डायलॉग में कभी कभी वह मदन डुकलान नजर आ जाते हैं, जो अक्सर बड़े परदे में खलनायक की भूमिका निभाते दिखते हैं। उनकी आँखों के कोर भी रक्तिमा ले लेते हैं। उनके डायलॉग भी लम्बे थे। उनके इस जानदार अभिनय में एक पुजारी का सौम्य रूप… हो सकता है पटकथा के माहौल के अनुसार सौम्य न रहा हो।
वहीँ पंडिताइन के पात्र के रूप में सुनहले परदे की सबसे पुरानी अभिनेत्रियों में से एक संयोगिता ध्यानी ने अपने अभिनय से प्रभावित किया है। उनके पूरे अभिनय के दौरान उनका एक डायलॉग “पांच फुट की गात अर दस फुट की जुबान” हमारे लोक में प्रचलित माँ बहनों के आणा – पखाणाओं की ओर मोड़ देते हैं।
प्रधान के रूप में पूर्व में भी रुपहले परदे पर अपनी धमक बिखेरने के लिए मशहूर कलाकार राकेश गौड़ ने यहाँ भी अपने अभिनय के साथ पूरा न्याय किया व फ़िल्म को बांधे रखा। डॉ सतीश कालेश्वरी के बाद मेहमान कलाकार की भूमिका निभाने आई गीता गुसाईं नेगी ने अपने छोटे से रोल में अपने को साबित करने की कोशिश की।
यूँ तो अभिनय के क्षेत्र में सभी कलाकारों द्वारा फ़िल्म में अपना सर्वोच्च दिया गया है लेकिन मेरे लिए फ़िल्म में सबसे कौतुहल का बिषय मुख्य किरदार निभा रहे अभिनेता व अभिनेत्री रहे।
(हम सब से घिरे लाल टी शर्ट में फ़िल्म अभिनेता अभिनव चौहान)
अभिनेता अभिनव चौहान!
मुझे जरा भी नहीं लगा कि गढ़वाली न होते हुए भी अभिनेता अभिनव चौहान इतना सुंदर गढ़वाली डायलॉग बोल पायेगा। माना कि सभी डायलॉग डब किये गए होंगे लेकिन उन्हें बोलते समय उनकी आत्मा में घुस जाना, यह बहुत मुश्किल काम तब होता है जब आप उस भाषा में डायलॉग बोलते हैं जिसे आपने पहले कभी बोला ही नहीं। पहली बार बड़े परदे पर अभिनय करते अभिनव के चेहरे में एक बार भी यह दिखने को नहीं मिला कि वे नर्वस हुए हैं। उन्होंने अपने अभिनय के साथ ही पूरा न्याय नहीं किया बल्कि यह साबित भी कर दिया कि वह आने वाले समय में बड़े परदे के एक बेहतरीन अभिनेता साबित हो सकते हैं।
अभिनेता अभिनव चौहान को यूँ तो यह सब विरासत में मिला है। उनके बूढ़े दादा जी अपने समय के बहुत मंझे हुए कलाकार थे, छोड़े -भारत, जंगूबाजी और थोऊडा खेलने के वे पारंगत माने जाते थे। अभिनव के पिता केएस चौहान भी रंगमंच के मंझे हुए अभिनेता रहे हैं व जौनसार बावर की पहली विडिओ अल्बम में उन्होंने अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। पेशे से जॉइंट डायरेक्टर सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग उत्तराखंड शासन व पूर्व में नोडल अधिकारी उत्तराखंड फ़िल्म विकास परिषद के एस चौहान बताते हैं कि वे सिर्फ फ़िल्म में यह देखने आये थे कि अभिनेता के रूप में अभिनव चौहान ने क्या कुछ किया होगा। उनकी धडकने तेज थी लेकिन फ़िल्म देखने के बाद उन्हें शुकून मिला कि अभिनव ने अपने अभिनय के साथ पूरा इन्साफ किया।
(फ़िल्म अभिनेत्री मानवी पटेल के साथ फ़िल्म देखते हुए चर्चा)
अभिनेत्री मानवी पटेल
न गढ़वाली की समझ न गढ़वाली परिवेश में रची बसी अभिनेत्री मानवी पटेल ठेठ लखनवी रेवडी की मिठास लिए जब पहले पहल परदे में दिखती है तो उनके चेहरे पर हल्की सी झिझक दिखती है। शायद वह शूट के दौरान डायलॉग बोलते हुए कुछ असमंजस की स्थिति में रही होंगी लेकिन उसके बाद ऐसा दुबारा जरा कम दिखा। डबिंग वॉइस पर ठेठ लिप्सिंग देती मानवी ने अपने अभिनय के साथ पूरा न्याय किया। मेरा तो ये भी मानना है कि इससे पूर्व आई फिल्मों के साथ अगर इस फ़िल्म को भी तराजू में तोलते हुए अभिनेत्रियों की समीक्षा की जाय तो मानवी पहली कतार में ख़डी दिखेंगीं। अभिनेत्री मानवी पटेल से चर्चा के दौरान मानवी अपनी उड़िया फ़िल्म को बॉलीवुड की मसाला फिल्मों में शामिल करती हुई कहती हैं कि उत्तराखंड की यह फ़िल्म भले ही हॉरर फ़िल्म के रूप में दर्शकों को दिखने को मिल रही है लेकिन इसका सांस्कृतिक व धार्मिक पक्ष मेरे लिए नई अनुभूति के समान है। मुझे फ़िल्म के दौरान हिमालय व बर्फ गिरते करीब से देखने का मौका मिला और तो और उस में हमें गीत फिल्मांकन का भी अवसर मिला। यह सचमुच मेरे लिए अलग अनुभव रहा है। जौनसार की वादियों और गाँव एवं ग्रामीणों की आत्मीयता सम्मोहित करने वाली हैं। ईश्वर ने चाहा तो मुझे जब भी गढ़वाली फिल्मों के लिए मौका मिलेगा मैं जरूर उत्तराखंड आना पसंद करुँगी।
मानवी की माँ श्रीमती पटेल बताती हैं कि उनकी दो बेटियां हैं। बड़ी वाली का विवाह हो गया है। हम मूल रूप से लखनऊ के हैं व वहीँ से आज कल देहरादून आये हुए हैं। अभिनेत्री मानवी बीटेक एम बी ए है। उन्होंने कुछ समय नौकरी की लेकिन उस में मन नहीं लगा। मानवी फ़िल्म व सीरियल इत्यादि में ही अपना भविष्य ढूंढने लगी। इस से पूर्व वह उड़िया फ़िल्म में काम कर चुकी है।
फ़िल्म का मजबूत पक्ष।
अक्सर गढ़वाली फिल्मों की कमजोरी उसका कैमरा पक्ष होता है लेकिन इस फ़िल्म ने कैमरा कलर्स व उसके तकनीकी पक्ष को मजबूती के साथ दृश्य पटल पर रखा व शानदार रंगीन परदे को प्रस्तुत किया। फ़िल्म का संपादन व प्ले बैक साउंड हॉरर फ़िल्म के आधार पर सुंदर मैच करते नजर आये।
उत्तराखंड फ़िल्म विकास परिषद के नोडल अधिकारी नितिन उपाध्याय बताते हैं कि उन्होंने कल ही यह फ़िल्म देखी। यह पूछने में कि आप तो गढ़वाली नहीं हो फिर आपको क्या समझ आई। वे बोले – फ़िल्म आप किसी भी भाषा में देखो वह धीरे धीरे पूरी समझ आने लगती है, बशर्ते उसकी पटकथा व निर्देशन मज़बूत हो। और वैसे भी मुझे इतने साल उत्तराखंड में रहते हो गए। गढ़वाली बोल तो नहीं सकता लेकिन समझ आ ही जाती है।
उन्होंने असगार फ़िल्म की प्रशंसा करते हुए कहा कि आज महानगरों में रचे बसे लोग ऐसी ही इंटरटेनमेन्ट से भरी फ़िल्म देखना पसंद करते हैं। हम कर क्या रहे हैं कि हर फ़िल्म में पलायन का रोना रो देते हैं। पहाड़ छोड़कर मैदानों में आ बसे लोग या देहरादून आ बसे लोग अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए ही यहाँ आये होंगे। पहाड़ या गढ़वाल से उनका भला आत्मीय लगाव कैसे कम हो सकता है। उन्हें आज भी अपने गाँव खेत खलिहानो की पीड़ा सालती जरूर होगी। लेकिन आज के युवाओं का वह लगाव है भी कि नहीं यह जानना भी जरुरी है। मैं तो कहता हूँ हर फ़िल्म में पलायन थोप देना सही नहीं है। अब इसी फ़िल्म को देखिये तीसरे दिन भी हाउस फुल है, क्योंकि यह हॉरर होने के साथ-साथ पूरी इंटरटेनमेन्ट के साथ जुडी है। क्लाइमैक्स की बात ही क्या है। गजब का क्लाईमैक्स है… अरे हाँ क्लाईमैक्स आप लिख मत देना, फ़िल्म देखने लोगों को आने भी दीजिये इष्टवाल जी।
फ़िल्म के तकनीकी पक्ष की कुछ खामियां।
मेहमान कलाकार डॉ सतीश कालेश्वरी की एंट्री के बाद परदे से एकदम गायब हो जाना और फिर यह पता न होना कि वह कहाँ गये? अगले शॉट में कैमरे का पैन होकर ज़ूम इन होने के रात्रि सोने के शूट को देखते हुए समझ नहीं पाया कि कैमरामैन करना क्या चाहता है। लेकिन जब कैमरा ज़ूम होकर चेहरे पर स्थिर हो जाता है तब संतोष मिलता है। शायद यहाँ निर्देशक कमरे की वस्तुस्थिति में कुछ प्रयोग करना चाहते थे, क्योंकि इस शॉट के बाद कहीं कैमरे की गलती पकड़ नहीं आई, सिर्फ एक मक्खी के…! जो कैमरा लेंस पर अक्सर आकर बैठ जाती और एक काला स्पॉट परदे पर उभर आता जो “त्वेमा मेरी माया राली रे.. गीत के दौरान व अंतिम पलों के शूट के दौरान ज्यादा दिख जाता है। शायद एडिटिंग के समय इस पर जरूर ध्यान गया होगा लेकिन कोई विकल्प न होने के कारण उसे रखना पड़ा।
दूसरा यह कि अगर हम संस्कृति व धार्मिक प्रयोग की वस्तुओं को दृश्य पटल पर लाते हैं तो उसमें तकनीकी बारिकियां देखनी बहुत जरुरी भी होती हैं। दृश्य पटल पर भागदास जब पहली बार ढ़ोल लेकर दिखाई देते हैं तब उन्होंने ढ़ोल गलत टांगा होता हैं, क्योंकि उसकी बिजैसार (ढ़ोल के बीच में लगने वाली ताम्बे की पत्ती) पर टंकित तीन कीलों में नागफन पर विराजमान ब्रह्म बिष्णु महेश भाग दास की पेट की ओर छुपे हुए थे जबकि उसे बाहर की ओर होना था। दूसरा गजाबल (लांकुड़ ) कभी भी भेमल निर्मित नहीं होती न उसका आकार ही वैसा होता है। गजाबल अक्सर पद्म वृक्ष की सोटी या मेहलु की सोटी से निर्मित होती है व वह हल्की सी मुढ़ी होती है। जिसकी लम्बाई एक हाथ चार बेत आँकी जाती है।
तीसरा यह कि ज्यादात्तर डायलॉग खड़े-खड़े बोले गए जबकि गाँव में यदि चार बुजुर्ग इकठ्ठा हों तो वे कभी खड़े – खड़े बातचीत नहीं करते। जब मुख्य कलाकार के रूप में अभिनेता की एंट्री होती है, तब भी उसे बैठने या पानी के लिए नहीं पूछा जाता। जबकि हर गाँव की परंपरा के अनुसार किसी भी अंजान व्यक्ति का परिचय लेते हुए उससे जरूर पूछा जाता है कि कख होणी होलि आपकी सिद्धि, बैठी जावा घडेक, पाणी प्या, थोऊ खा। और अगर प्रधान का घर हो तो स्वाभाविक है उस घर में किसी भी अंजान व्यक्ति को बिठाया जरूर जाता है।भले ही जाते – जाते प्रधान की श्रीमती जरूर चाय का आमंत्रण देती दिखती हैं। मेरे हिसाब से निर्देशक को अपने साथ तकनीकी दृष्टि से सुदृढ़ एक सहायक निर्देशक व एक सुलझे हुए कंटिनिटीमैन की आवश्यकता यहाँ पडती। हो सकता है हॉरर फ़िल्म के परिदृश्य को देखते हुए जान-बूझकर ऐसा दर्शाया गया हो, क्योंकि इससे पूर्व गाँव में भूतनी 12 हत्याएं कर चुकी थी। ये तीनों ही पक्ष अगर तकनीकी हिसाब से देखा जाय तो आम दर्शक की दृष्टि में नहीं आएंगे लेकिन अगर आप समीक्षा कर रहे हैं, तब आप फ़िल्म के मजबूत पक्ष को कम अपितु उसकी कमजोर नाड़ी को ज्यादा पकड़ना पसंद करते हैं। फ़िल्म निर्देशक अनुज जोशी यूँ तो फ़िल्म सम्बन्धित जो भी समीक्षा करते हैं तब उनको हृदय से शाबाशी देने का मन होता है। यह भी सच है कि एक बड़े प्रोजेक्ट को अकेले कांधे पर लादकर चलते हुए ये बहुत सूक्ष्म बातें गौण हो जाया करती हैं।
बहुत से लोग ‘असगार‘ शब्द का शाब्दिक अर्थ फ़िल्म देखने के पश्चात् भी नहीं कर पाए तो मैं यही कहूंगा कि यह कमी पटकथा, निर्देशन या निर्माण की नहीं है बल्कि यह कमी हमारी है जो हम अपने गूढ़ शब्दों से विमुख हो गए। असगार शब्द जितना छोटा सा दिखाई देता है उसकी व्यापकता उतनी ही बड़ी है। मेरे हिसाब से अगर इसका छोटा सा भावार्थ समझाया जाय तो वाह यह है कि किसी दुर्घटना या प्रताड़ना को बिना गलती झेलने वाले व्यक्ति की अंतर्रात्मा जब दुःखती है तब एक तरह का श्राप इस उस व्यक्ति पर नहीं पड़ता जिसने ऐसे कर्म किये हैं बल्कि उस पूरे परिवार व समाज पर उसका असर होता है, जो ऐसे तुच्छ कर्म में उसका भागीदार रहा हो या फिर मूक दर्शक रहा हो। ऐसे में आपकी सहायता न आपके पितृ देवता करते हैं ना ही कुल के देवी देवता। फ़िल्म में भी उसी का प्रतिफल दिखने को मिलता है। 27 हत्याएं 200 साल पूर्व और 13 हत्याएं 200 साल बाद। यह सिलसिला कैसे रुका इसे देखने के लिए आपको सिनेमा हॉल जाना पड़ेगा
बहरहाल आस्थिक व नास्तिक की इस जंग में गढ़वाल के आस्थिक समाज की इस फ़िल्म में जीत नजर आती है। गीत संगीत दोनों ही कर्णप्रिय है लेकिन मुझे अभी भी लगता है कि हम शब्दों की पकड़ पर मज़बूती बनाकर इसे और मजबूती दे सकते हैं। वर्तमान का गायन पक्ष हर शब्द की गहराई के अनुमान के साथ उसमें उतरे तो मजा ही आ जाए। 200 साल पुरानी बारात की झलकी देख मन रोमांचित हो उठता है। निर्देशक अनुज जोशी की इस सोच को सैलूट।