सवाल है कि क्या अमेरिका भारत के साथ इन ड्रोन्स की तकनीक भी साझा करेगा, ताकि आगे चल कर भारत खुद उनका उत्पादन कर पाए? ऐसा होता है, तो यह बड़ी बात होगी। वरना, यह सिर्फ अमेरिका के फायदे का सौदा बन कर रह जाएगा। हथियार कारोबार का हिसाब-किताब रखने वाली स्वीडन की प्रमुख संस्था- सिपरी की रिपोर्ट के मुताबिक 2018-22 की अवधि में भारत दुनिया में सबसे बड़ा हथियार आयातक देश रहा। जाहिर है, सबसे बड़े खरीदार को लुभाना दुनिया के वो तमाम देश चाहेंगे, जो इस कारोबार में शामिल हैँ। इसलिए इन खबरों में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे में जो बाइडेन प्रशासन अमेरिकी ड्रोन की अरबों डॉलर की एक डील को पूरा करना चाह रहा है। मोदी 22 जून को अमेरिका जा रहे हैं।
अमेरिका में इस बार उनकी यात्रा को इतना महत्त्व दिया गया है कि कुछ मीडिया टिप्पणियों में इसकी तुलना दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश नेता विंस्टन चर्चिल की हुई अमेरिका यात्रा से की गई है। इसकी एक वजह तो यह है कि अमेरिका अपनी चीन विरोधी रणनीति में भारत को और सक्रिय भूमिका देखना चाहता है। दूसरी वजह यह है कि वह हथियारों के मामले में भारत की रूस पर निर्भरता को खत्म करना चाहता है। यानी अगर बोलचाल की भाषा में कहें, तो वह रूस के एक बड़े ग्राहक को छीनना चाहता है।
वैसे यह भी सच है कि भारत की काफी समय से अमेरिका से हथियारबंद ड्रोन खरीदने में रुचि रही है। इन्हें एमक्यू-नाइनबी सी-गार्जियन ड्रोन कहा जाता है और इन्हें बनाने वाली कंपनी ‘जनरल एटॉमिक्स’ है। ऐसे 30 ड्रोन खरीदने के लिए भारत को दो से तीन अरब डॉलर तक खर्च करने पड़ सकते हैं। लेकिन संभवत: सरकार के अंदर ही इस खरीदारी की उपयोगिता पर मतभेद हैँ। इस वजह से डील अभी तक रुकी हुई है। उधर अमेरिका ने ड्रोन बेचने की अपनी मुहिम तेज कर दी है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक प्रधानमंत्री की यात्रा की तारीख तय होते ही अमेरिकी विदेश विभाग, रक्षा विभाग और ह्वाइट हाउस ने इस सिलसिले में भारत से संपर्क किया। लेकिन सवाल है कि क्या अमेरिका भारत के साथ इन ड्रोन्स की तकनीक भी साझा करेगा, ताकि आगे चल कर भारत खुद उनका उत्पादन कर पाए? ऐसा होता है, तो यह बड़ी बात होगी। वरना, यह सिर्फ अमेरिका के फायदे का सौदा बन कर रह जाएगा।