Friday, December 27, 2024
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तीलू रौतेली के अजय गढ़ गुजडू गढ़..! क्या गुजरसाह ने बसाया था गुजडू गढ़?

ट्रेवलाग…….नैनीडांडा महोत्सव 2020….!

(मनोज इष्टवाल 1 फरवरी 2020)

*भैर ग्वला भित्तर ग्वला, अर्ज-पुर्ज कैमा करला!

* कत्युरी राजा ब्रह्मदेव पर बने गीत से प्रचलित हुआ “तिलै धारु बोला!”

“भैर ग्वला भित्तर ग्वला, अर्ज-पुर्ज कैमा करला!’” कहावतें तब चरितार्थ हुई जब दिगोलीखाल में तीलू रौतेली की यादें ताज़ा हो आई! मैंने फ़ौरन जोधपुर राजस्थान जगमोहन सिंह गोर्ला (परमार रावत) जी को फोन लगाया व बताया कि हम आपके क्षेत्र में हैं! ठाकुर रतन असवाल हमारी वार्ता सुन रहे थे, पड़सोली का नाम सुनते ही बोले- उन्हें बोलिएगा कि साथ में उनके दामाद भी हैं रतन असवाल! खैर जगमोहन रावत जी बोले कि हम पड़सोली जाएँ वहां उनके भाई राकेश ने एक बड़ा फ़ार्म हाउस खोला हुआ है पहले वे नाइजीरिया थे और अब उन्होंने सुख सुविधाओं का परित्याग कर गाँव में ही करीब 20 हजार मुर्गियों का एक फ़ार्म खोला है! उन्होंने कहा कुछ देर बाद वे मुझे उनका फोन नम्बर उपलब्ध करवा देंगे!

प्रसंगवश ही सही…! मुझे लग रहा था कि यह यात्रा नैनीडांडा तक पहुँचते-पहुँचते रोचक बन जायेगी! चन्द्रेश योगी के पार्टनर यादव जी बोले- मैं तो मर्चुला नेगी जी के कैंप जा रहा हूँ! आप लोगों का क्या प्लान है! चन्द्रेश बोले- हम भी वहीँ आ जायेंगे आप चलिएगा! इधर दिनेश कंडवाल जी बोले- अरे छोड़ो यार नैनीडांडा….वैनीडांडा! कॉर्बेट पार्क बिल्कुल पास है फिर क्यों न हम वहां चलें! मैं तुनककर बोला- आपको भी हद है! हम आये तो नैनीडांडा के लिए हैं न! अब ऐसा भला कब हुआ कि मैं बोलूं व रतन असवाल जी चुप रहें! बोले- अरे जाने दो पंडा जी..! देखिये जहाँ कुत्ते –बिल्ली, मक्खियाँ व भेमल न हो तो वहां मानव नहीं रहता यानि ”बांझा गौं म घिंडवा पदान” ही रहता है! यादव जी की कार का हार्न बजा! बोले- आप लोग चाहो तो कल गुजडू गढ़ी हो आओ! लेकिन तीन फिट बर्फ है!

गूगल अर्थ में गुजडू गढ़ी व उसकी पहाड़ियां व गुजडू गढ़ी से निकलती सुरंग!

रतन असवाल बोले- मैंने ट्रेकिंग शू अपने महाशीर कैंप में ही छोड़ दिए इसलिए मैं तो जाने से रहा! हाँ..पंडा जी का मन हो तो जा सकते हैं! मैं समझ गया कि वे भले से जानते हैं कि मैं अकेले तो जाने से रहा! चन्द्रेश योगी बोले- अरे यार क्या गढ़ी है! मैं तो गया हूँ वहां ! एक छोटा सा मन्दिर है व सात सुरंगे भी! सच में चलना है तो बताओ! मजा आ जाएगा! मुझे लगा मानों एक प्लान के तहत ये सब हो रहा है, मतलब मैं लोमड़ी बनूँ व बाद में बोलूं अंगूर खट्टे हैं! मैंने कहा अब मेरे घुटनों में इतना ग्रीस नहीं बचा हुआ है कि मैं इतनी ऊँची चोटी चढ़ सकूँ! फिर ट्रेकिंग शू भी पहनकर नहीं आया हूँ! बात आई गयी हो गयी लेकिन मुझे मलाल जरुर हुआ कि गुजडू गढ़ के इतने करीब होकर भी मैं वहां नहीं जा पा रहा हूँ! यहाँ तो स्थिति यह थी कि “दुसरैs पीठिम खौंऊँ अर हगदी दां गीत लगौऊँ!” गाडी-घोड़ा रहने खाने की सुख सुविधाओं की व्यवस्था जब मित्रों के हवाले हो तो भला उनके तय कार्यक्रम से हटकर कैसे काम करूँ!

गुजडू गढ़ की परिकल्पना में मेरी आँखें मुंद गयी! ख्यालों में उस कल्पना ने उड़ान भरी व मैं गरुड़ बन पहुँच गया उस ऊँची गढ़ी में! यहाँ स्थानीय समिति ने एक तख्ती चप्सा रखी है जो रात्रि काल में दूरदर्शन के खेल विभाग के प्रोड्यूसर रावत जी ने मुझे तारिणी कॉर्बेट कैंप में दिखाई थी! उस तख्ती में लिखा है कि इस गढ़ी का निर्माण पांडव वंशज नकुल ने किया है! मैं अपने आप में मुस्करा दिया! हंसी इस बात पर आई कि द्वापर काल में क्या हमारी पहाड़ियां ऐसी ही थी! शास्त्रों का संज्ञान लिया जाय तो पांडवों का काल यानि द्वापर युग 8 लाख 64 हजार बर्ष का हुआ! उसके बाद कलयुग 4 लाख 72 हजार बर्ष का बताया गया है! विक्रम संवत की बात की जाय तो हिन्दू काल में अभी कलयुग 2076 साल पुराना हुआ है, विश्व भर में भारत की मध्य हिमालयी चोटियाँ अभी सबसे नई चोटियों में गिनी जाती हैं! अर्थात यह कहना कि द्वापर युग में उत्तराखंड के पौड़ी गढवाल की चोटियाँ ऐसी ही रही होंगी गले नहीं उतरता! हो सकता है यहाँ के लोगों ने कहीं न कहीं इसे गिंवाड गाँव की सरहद पर रामगंगा के किनारे पुराने खंडहर नगर जिसे विराट नगर माना जाता है को पांडवों से जोड़कर इसे नकुल द्वारा स्थापित गढ़ी कह दिया हो! या फिर ऐसा भी हो सकता है कि यही वह नकुल हो जिसने कत्युरी राजकाल में द्वाराहाट जैसे नगर को डिजाईन किया है!

जहाँ तक मेरा संदेह है हो न हो! ये गढ़ कत्युरी राजवंश की देन हो क्योंकि तब उनका एक साहूकार जो कत्युरी राजाओं का ट्रेजरार था उसने ही इन गढ़ियों को डिजाईन करवाने में नकुल की सहायता ली हो! क्योंकि गूजरसाह ने द्वाराहाट के आस-पास एक ऐसे मजबूत ब्यूह की संरचना करवाई थी जो कत्यूरियों का सांस्कृतिक नगर कहलाता था! गूजरसाह ने 1105 ई. में कत्युरी नरेश के कहने पर यहाँ 64 देवालय व बाबडियां बनवाई थी! ज्ञात हो कि कत्यूर राजवंश मूलतः 740वीं ईस्वी से लेकर 11वीं सदी तक माना जाता है। जिसकी राजधानी पहले जोशीमठ फिर  कार्तिकेयपुर (कत्यूर) व अंतिम बैजनाथ (बागेश्वर) मानी गयी है। जिसके अंतिम एकछत्र 48 वें राजा ब्रह्म देव या वीरमदेव कहलाये।

उस काल में पाली पछाऊँ क्षेत्र जिसमें कत्युर, बारामंडल, फल्दाकोट, कोटा व गढवाल क्षेत्र का अधिकत्तर भू-भाग शामिल है कत्युरी राजवंश के अधीन था! जिसके आस-पास जुनियागढ़, असुरगढ़ी, लोहाबागढ़ी, जोरासी गढ़, गवनीगढ़ व गुजडू गढ़, दोरालकोट इत्यादि शामिल हैं! बताया जाता है कि लोहाबा गढ़ व गुजडू गढ़ की निर्माण शैली एक जैसी हैं क्योंकि लोहाबा गढ़ से निकलने वाली सुरंगे भी कम से कम किले से 15 मील दूर निकलती हैं व गुजडू गढ़ से भी सुरंगे लगभग इतनी ही दूरी पर निकलती बताई गयी हैं! दोनों की बनावट में समानता यह भी है कि ये पर्वत की सर्वोच्च उंचाई वाले गढ़ होने के बावजूद भी यहाँ आज भी गढ़ी के अंदर सुरंग के रास्ते में पानी का कुंआ है! दोनों ही गढ़ों से जौरासी डांडा, द्रोणागिरी पर्वत, मानिला पर्वत, नागार्जुन पर्वत, गुजडू का डांडा, दीबा डांडा, जुनियागढ़, असुरगढ़ी, लोहाबागढ़ी, जोरासी गढ़, गवनीगढ़, नैथाना गढ़, बिनसर पर्वत शिखर व रामगंगा, काली गाड़, बिनौ, गगास इत्यादि तक नजर जाती है!

गुजडू गढ़ी की पहाड़ियां व भग्नावेश में स्थित मंदिर!

गुजडू गढ़ का निर्माण काल 11वीं सदी में माना जाता है लेकिन इस पर कत्युरी ज्यादा दिन तक राज नहीं कर पाए! क्योंकि उसके पतन का कारण भी कत्युरी राजवंश के अंतिम राजा ब्रह्मदेव या वीरदेव माना गया है जो कत्युरी राजवंश का 48वां राजा हुआ! जितने प्रतापी व जनता के प्रिय इस राजा के पूर्वज रहे उतना ही यह राजा क्रूर व दानवी प्रकृति का माना गया! इसके राज-काल में एक किंवदन्ती प्रचलित थी:- “बांझा घट की भाग उधौनी, बांझी गौ कु दूध छीनी! उल्टी नाली भर दीनी, कणक बताई लीनी!!”   

इस राजा की आसुरी प्रवृत्ति ऐसी थी कि लोग इससे बहुत घृणा करते हैं! कहते हैं इसने अपनी मामी तिलोत्तमा को अपनी हवश का शिकार बनाया व उसे रखैल के रूप में अपने पास रखा! कुमाऊं के लोग कहते हैं तब से ही यह गीत प्रचलित हुआ “तिला धारु बोला..!” तिलोत्तमा का नाम तिला था और उस पर उस काल में कई गीत लिखे गए!

यह इतना जालिम राजा था कि यह जहाँ भी सफर करता वहां डांडी ले जाने वालों के कंधे पर लोहे के कड़े छिदवा देता था ताकि कोई अगर उसे डांडी से गिराना चाहे तो वह खुद भी साथ मरे! इसका अंत भी आखिर ऐसे ही हुआ दो डांडी उठाने वाले लोगों ने ऐसे रास्ते से डांडी सहित छलांग लगा दी जहाँ से कई सौ मीटर गहरी खाई थी व राजा सहित उन्होंने अपने प्राण भी त्याग दिए!

राज वीरदेव/ बीरमदेव या ब्रह्मदेव के नाम से कुख्यात इस राजा की मृत्यु के बाद उसके वंशजों में राज पाने के युद्ध ठन गए! राज्य छिन-भिन्न हो गया और कत्यूरियों का यहीं अवसान हो गया! जो कत्युरी कभी गढ़-कुमाऊं के चक्रवर्ती कहलाते थे वे अब मात्र किसी गढ़ के गढ़पति ही बनकर रह गए! कभी काबुल कंधार से लेकर सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र पर अपना परचम लहराने वाले कत्युरी राजवंश का ऐसा हश्र हुआ कि फिर वह पनप नहीं सका! कहा जाता है कि यह सब नरसिंग देवता के श्राप की वजह से हुआ! कुछ का कहना यह भी है कि यह दरबार गढ़ पहले कत्यूरियों का था इसलिए नरसिंग यहां घात के रूप में आये हैं।

कई मित्रों का कहना है कि कत्युरी काल 11वीं -12वीं सदी में ही समाप्त हो गया था फिर उसका तीलू रौतेली से क्या वास्ता! यह सब मनगढंत है! इस लेख को व्यापक बनाने के पीछे यह पुष्ट प्रमाण आवश्यक थे! कत्युरी साम्राज्य भले ही समाप्त हो गया था लेकिन उसके वंशज व कत्यूरी लगभग 60 शाखाएं सैकड़ों बर्षों तक अपनी अस्मिता बचाए रखने के छापामार युद्ध के माध्यम से लूटपाट करते रहे! कई बार कई गढ़ियों पर इन्होने छापामार युद्ध कर उन्हें कब्जे में भी लिया लेकिन फिर हार भी दिया! इनके वंशज आज भी अस्कोट, डोटी, पाली पछाऊँ में बतौर राजा ही अपने को घोषित मानकर चलते हैं! ये लोग विभिन्न शाखाओं में बंट गए कुछ ने अपने को पाल ही रहने दिया तो कुछ रजबार कहलाये! कुछ मल्ल हुए तो कुछ कैतुरा, खाती, दुराल, रौतेला, रावत, बिष्ट इत्यादि विभिन्न जातियों में शामिल हो गये!

यह आश्चर्यजनक है कि किसी भी इतिहासकार ने गुजडू गढ़ को प्राथमिकता के साथ नहीं उठाया है! इतिहास गवाह है कि कुमाऊं के राजा कीर्ति चंद (सन 1488-1503) ने फल्दाकोट के खाती राजा को हराकर गढवाल के बारहस्यूं परगने तक लूटपाट की! कभी खाती राजा के बारे में कहावत थी- “पहाड़ का खाती, देश में हाथी!”

तीलू रौतेली के जन्मकाल (8 अगस्त 1661) में हुआ। इसी काल में कुमाऊं का प्रतापी राजा बाजबहादुर चंद हुआ जिसने सन 1634 से लेकर 1678 तक सबसे ज्यादा 50 बर्ष राज-सुख भोगा! यही राजा रणदेवी के रूप में माँ नंदा को अल्मोड़ा ले गया था! इनके राजकाल में गढवाल ने तीन राजा देखे जिनमें महिपत शाह (1631-35), पृथ्वीपतिशाह (1640-64) व मेदनीशाह (1664-84) शामिल हैं! पृथ्वीपति शाह के समय इस प्रतापी राजा ने कई बार गढवाल का पाली-पछाऊँ क्षेत्र विजय किया और लूटपाट की लेकिन लोधी रिखोला, भुप्पू गोरला, सिपाही नेगियो व खाती गुसाईंयों, कफोला बिष्ट सहित बहुत से थोकदारों ने हर बार इसे नाकाम ही किया!

पाली-पछाऊँ क्षेत्र की दो तीन गढ़ राजा बाजबहादुर चंद के लिए अभेद थी! जिनमें बंगारी (कत्यूरी जाति उप शाखा) पाली-पछाऊँ के स्वतंत्र शासक के रूप में अपने को घोषित मानते थे वे इनके अपने ध्वज पताकाएं थी जो चंद शासक के लिए युद्ध में भागीदारी निभाते रहे। एक ओर लोहाबा गढ़ के लोहाबा नेगी, और दूसरी ओर गुजडू गढ़ के भुप्पू गोर्ला व उनके दो पुत्र भगतु व पत्वा ! इनकी सुगठित सेना को भेदना इतना सरल नहीं था! बाजबहादुर चंद ने माधौ भंडारी व लोदी रिखोला को माल की दूण क्षेत्र में युद्ध लड़ता देख साबली, खाटली, बंगारस्यूं, पाली इत्यादि के कत्युर वंशी थोकदारों को गुप्त संदेश भेजकर उन्हें उकसाया कि अगर वे गढ़वाल नरेश की सेना के विरुद्ध उनका साथ देंगे तो उन्हें कत्यूरियों का सीमान्त क्षेत्र सौंपकर एक छत्र राज करने दिया जाएगा! योजना सफल हुई! इससे पूर्व भगतु व पत्वा सेना का नेतृत्व कर अपना विजय अभियान रामगंगा छोर तक ले जा चुके थे! राजा द्वारा भगतु गोर्ला को सिसई (खाटली) जबकि पत्वा को पड़सोली अर्थात गुजडू की जागीर इनाम में दे चुके थे! भुप्पू गोर्ला द्वारा इस विजय जश्न के रूप में अपनी पुत्री तीलू रौतेली की मंगनी रस्म की व नौ बर्ष की तीलू की मंगनी वीर भड भवानी  नेगी (सिपाही नेगी) से कर दी! कहते हैं भवानी नेगी भगतु व पत्वा का अभिन्न मित्र था!

अभी तीलू दसवें बसंत में भी प्रवेश नहीं कर पाई थी कि पता चला गढवाली राजा से विद्रोह कर साबली, खाटली, बंगारस्यूं, पाली, मनिला क्षेत्र के कत्यूरियों ने कुमाउनी सेना के साथ मिलकर गुजडू गढ़  के थोकदार भुप्पू गोरला की उनके निवास कांडा क्वाठा में धोखे से हत्या कर दी! इधर चंदवंशी राजा की सेना ने पिंडारी व रामगंगा की ओर से गुजडू गढ़ व लोहाबा गढ़ पर आक्रमण कर दिया! लोहाब गढ़ तब सिपाही नेगियों के अधीन व गुजडू गढ़ गोर्लाओं के अधीन था! दो तरफा आक्रमण में अभी गढ़नरेश की सेना लोहा ले ही रही थी कि पूर्व योजना के तहत गढवाल नरेश की ओर से ही युद्ध में शामिल हुए कत्युरी बंगारी रावत, सांवलिया बिष्ट, खाती गुसाईं, दोराल रावत इत्यादि ने पीछे से वार कर इधर भगतू व पत्वा की धोखे से हत्या कर दी उधर तीलू के पति ससुर इत्यादि को भी मार डाला गया! पाली-पछाऊँ व साबली-खाटली, बंगारस्यूं और पिंगलापाखा क्षेत्र तक कुमाऊं राजा ने विजय हासिल की! खाती गुसाईं को इनाम में जुनिया गढ़ व गुजडू गढ़ मिला, साँवलिया बिष्टों को लोहाब गढ़, दुरालों को दुरालकोट, व कत्यूरियों की उपशाखा के बंगारियों को मानिला व पातलीदून का किला दिया गया! बताया जाता है कि ये सभी जातियां पूर्व में कत्युरी ही थी जो कत्युरी राजवंश के विघटन के बाद गढवाल क्षेत्र में बस गयी थी!

अब आते हैं तीलू रौतेली पर..! वीरांगना तीलू रौतेली का जन्म 8 अगस्त 1661 में चौन्दकोट गढ़ के तत्कालीन गढ़पति भुप्पू गोर्ला के तल्ला गुराड़गाँव के क्वाठा (किले) में हुआ था! उनकी माँ का नाम मैणादेवी व दो बड़े भाईयों का नाम भगतु गोर्ला व पत्वा गोर्ला था! जैसा कि पूर्व में भी आपको जानकारी दे चुका हूँ कि कुमाऊं राजा बाजबहादुर चंद की कूटनीति के चलते सन 1669-70 के युद्ध में उनके पिता भुप्पू गोर्ला, भाई भगतु व पत्वा गोर्ला व मंगेतर भवानी सिंह सिपाही नेगी की मौत के पश्चात तीलू रौतेली की माँ मैणावती ने तीलू के राजपूताना जोश को जगाया व उसे अबल दर्जे का लड़ाका बनाया! उसकी भेषभूषा बदलकर मर्दों वाली की गयी आवाज में शेरों जैसी दहाड़ व हुंकार, घुडसवारी में बिंदुली घोड़ी और जोश बढाने के लिए घिमडू हुड्क्या! एक हाथ में शमसीर व दूसरे हाथ में भरवा बन्दूक..! मात्र दो साल कठोर अभ्यास के बाद तीलू रौतेली की अगुवाई में सवा लाख सलाणी फ़ौज ने कत्युरी व कुमाऊं के राजा बाजबहादुर चंद के विजित क्षेत्र को रौंदना शुरू किया व पिंगलापाखा, साबली, खाटली, मैठाणाघाट जीतकर दुबारा अपने गाँव कांडा, सिसई व दीबा, गुजडूगढ़ तक विजय पताका फहराया! अपने भाई पत्वा के दरबार गढ़ पड़सोली को जीतने के लिए उसने राजा बाजबहादुर चंद के सीमान्त सेनापति कुंवर शक्ति गुसाईं से दिगोलीखाल में आमने-सामने की लड़ाई लड़ते हुए वो क्षण याद किये जिसमें उसके दोनों भाइयों को क्रूरता व कायरता के साथ 46-46 घाव देकर मारा गया था! तीलू यहाँ ऐसी रणचंडी बनी कि वह जिधर मुडती उधर भगदड मच जाती! उसने इतने सर काटे कि मुंडो के ढेर लग गए! उस दौर में उसकी सेना व उसका युद्ध कौशल देखते हुए घिमडू हुडक्या व भाट-चारण ने युद्ध का जीवंत वर्णन सुनाते हुए कहा-

तौंन मुंडू का चौंरा चिडिनी मर्दों, तौं नंगी शमसीर चमकैनी मर्दों!

तौंकी फौंट्यूँ का बाळ बबरेनी मर्दों, तौंन ल्वे का घट रिन्गैनी मर्दों!

तैंs माई मरदान की चेली न मर्दों, तख़ भंगलो बुतण करिद्याई मर्दों!”

इतिहास के पन्नो में भले ही सन संवत दर्ज न हो लेकिन वीरांगना तीलू रौतेली ने अपना पहला बड़ा युद्ध 15 बर्ष की उम्र में लडा! इस हिसाब से जोड़ा जाए तो यह युद्ध 1676 के आस-पास होना चाहिए। सचमुच इतिहासकारों की इसे लापरवाही कहें या फिर गोरखा- ब्रिटिश काल में रिकॉर्ड की कमी। या फिर 1802 का प्रलयकारी भूकम्प। कोई तो वजह रही जिसके कारण यहां का लिखित इतिहास दफन हो गया व भाट-चारणों, बद्दी-औजी ही वंशावली व यशगान के गवाह बने जो उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी इस इतिहास को जुबानी याद रख आज तक सम्भाले रखी। हमें इन सभी का कर्जदार होना चाहिए।

दिगोलीखाल, सुंदरखाल से मर्चुला राम गंगा तटमानिला, जाळीखांद सराईखेत बिन्सर होते हुए जुनियागढ़ तक तीलू ने राजा बाजबहादुर चंद के उन सभी कत्युरी सामंतों के सर कलम कर दिए जिन्होंने राजा के साथ मिलकर षडयंत्र रच उसके पिता भाई व मंगेतर का वध किया था! कहा जाता है कि इस वीरांगना की वीरता का बैरी भी बड़ा कायल हुआ कि आखिर वह बच्चा है कौन…? जिसकी बिंदुली घोड़ी ने इतने बड़े बड़े सूरमाओं के दांत खट्टे कर दिए!

तीलू ने नौ बर्ष तक युद्ध लड़ा! यह बात इतिहासकारों का मानना है! इसका मतलब तीलू मात्र 21 या 22 बर्ष (1683) की उम्र में ही शेरनी की मौत मरी! उसने खाटली गढ़, बधाण गढ़, लोहाबा गढ़, गुज्डू गढ़, मल्ला सलाण, राठ क्षेत्र का समस्त चौंड मंडल, कत्युर, करवीरपुर, द्वाराहाट-पाली, नैथाणा, असुरगढ़ी, जुनियागढ़ी, दौरालकोट, मानिला समेत सभी सीमान्त के कत्युरी गढ़ व गढ़पतियों को हराकर, मारकर भगाकर रामगंगा व पूर्वी नयार क्षेत्र पर एक छत्र राज किया! वह तुरंत इन्साफ करने में विश्वास करती थी! उसकी हुंकार सुनकर बैरियों का पेसाब निकल आता था! कहते हैं कि माँ नंदा व कुलदेवी काली से वीरांगना तीलू रौतेली को बड़ा स्नेह था। वह जब भी माँ नंदा को याद करती तो गुराड़ के नंदाकोट की माँ उसके सपने में प्रकट हो जाती! जब उसने माँ नंदा को गुजडू गढ़ के किले में थरपा तो कहते हैं माँ नंदा ने ही उसे स्वप्न में आकर नवरात्रों में गढ़ के नौ हिस्सों पर नवदुर्गाओं के नाम से सुरंगे खोदने को कहा जिसके प्रमाण आज भी मिलते हैं क्योंकि आज भी यहाँ सात सुरंगों का होना बताया जाता है! कहते हैं कि माँ नंदा के साथ यहाँ बनदेवियाँ भी निवास करती थी व दीबा देवी दुश्मन के आक्रमण से पहले ही सबको सचेत कर देती थी!

इन्हीं देवियों के आशीर्वाद व पड़सोली दरबारगढ़ में पिता भुप्पू गोर्ला द्वारा थरपे गए नरसिंग देवता के आशीर्वाद से तीलू रौतेली ने राजा बाजबहादुर चंद के सेनापति कुंवर शक्ति गुसाईं का सर कलम कर अपनी यश-कीर्ति बढ़ाई व अंतिम युद्ध राजा बाजबहादुर चंद के पुत्र राजा उद्योतचंदक के वीर भड सेनापति मैसी साहू को मौत के घाट उतारकर उद्योत चंद का गढवाल विजयरथ रोक दिया और बधानगढ़ी से राजा उद्योत चंद को वापस लौटना पड़ा!

सेनापति मैसी साहू को मौत के घाट उतारकर विजय जश्न के पश्चात थकी-हारी तीलू रौतेली जब वापस लौट रही थी तब राजा उद्योत चंद का वफादार सामंत रामूरजबार जोगी भेष में तीलू की सेना में शामिल हो गया! कहा जाता है कि मैठाणा घाट के पास चांदनी रात में तीलू अपनी बिंदुली घोड़ी को पेड़ पर बांधकर व तलवार व बख्तरजामा, पगड़ी उतारकर पूर्वी नयार में स्नान करने लगी तब जाकर रामू रजबार को पता चला कि यह तो एक महिला है! रामू रजबार का आश्चर्य का ठिकाना न रहा व उसने तीलू की तलवार से ही धोखे से उसकी गर्दन उड़ा दी व आत्मग्लानि में खुद भी सैनिकों के पहुँचने से पहले अपनी गर्दन उसी तलवार से काट डाली! आज भी तीलू रौतेली का इस क्षेत्र में रणभूत नचाया जाता है और जब वह अपनी सहेलियों (देवकी, बेला, सुरजी) के साथ रणभूत नाचती है, तो कोई भी कत्युरी वंशज वहां न रहे यह घोषणा कर दी जाती है। तीलू रौतेली की तीनों सहलियां या भाभियाँ जहां भी रणभूमि में काम आई उस बलिदानी स्थल का क्रमशः बेला=बेलाघाट, देवकी= देघाट व सुरजी=सराईखेत। सुरजी के नाम से कोई सेराघाट भी कहता है। कहा जाता है इन्ही स्थानों पर इन रणबांकुरी वीरांगनाओं की चिता सजाई गई थी। यह तीलू के युद्ध कौशल की बानगी ही कहिये कि जिस गढ़ के विजय अभियान में जिस सरदार ने सबसे बहादुरी दिखाई वह गढ़ वह अपने लिए नहीं बल्कि उस सरदार के सुपुर्द करती गयी। राजा के यह सर्वाधिकार तीलू को दिए हुए थे।

(कहा तो यह भी जाता है कि गोरिल्ला युद्ध कला कौशल व सराईखेत खेत में सराईनृत्य युद्ध कला सिखाने का श्रेय भी तीलू रौतेली को जाता है क्योंकि तब बाजबहादुर चन्द के राजकाज में छोलिया नृत्य युद्ध कला कौशल विकसित हो चुका था जिसका तोड़ ही सरै नृत्य कला कौशल मनाया जाता है। इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं हैं लेकिन किंवदन्तियों में ऐसे सैकड़ों प्रसंग पटे पढ़े हैं। कहा जाता है कि तीलू रौतेली के गुरु शिब्बु पोखरियाल ने ही यह अद्भुत युद्ध कला तीलू रौतेली को उन छापामार कत्यूरियों के विरुद्ध सिखाई थी जो एकदम हमला करके एकदम गायब हो जाते थे। तो कोई गोरिल्ला युद्ध को गोर्ला से जोड़कर देखते हैं व उनका मानना है कि गोरिल्ला युद्ध के जनक ही गोर्ला रावत हैं लेकिन मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता क्योंकि गोरिलाओं ने रामायण काल में जो युद्ध राम सेना की ओर से लदा था वह भी गोरिल्ला युद्ध ही कहलाया।)

माफ़ी चाहूँगा इन ऐतिहासिक सन्दर्भों के माध्यम से अपना ट्रेवलाग लम्बा कर दिया! मेरी मजबूरी यह थी कि मैं वह सच सबके सामने लाना चाहता था जो आज भी इतिहास के पन्नों में दफन है! इस पूरी कहानी में ऐतिहासिक पुष्टता व किंवदन्तियों को साथ जोड़ा गया है जिसके लिए मुझे दर्जनों किताबें खंगालनी पड़ी व कई बुद्धिजीवियों से टेलीफोन पर वार्ता करनी पड़ी!

बात गुजडू गढ़ की हुई तो आओ इसे वहीँ समाप्त भी करते हैं! गुजडू गढ़ पट्टी गुजडू के पांच भागों में एक गुजडू डांडा (दीबा डांडा) में स्थिर है जिसकी उंचाई समुद्र तल से लगभग 2400 मित्र अर्थात 7880फीट बताई जाती है! यह 79 46’52.77” उत्तर व 79 5’18.68” पूर्वी रेखाओं के अंदर स्थित है! क्योंकि मैं स्वयं अभी इस गढ़ी में नहीं गया हूँ इसलिए इसके निरिक्षण के पश्चात ही ज्यादा कुछ कह पाऊँगा! अभी के लिए इतना ही…क्योंकि अभी भैर गोर्ला भित्तर गोर्ला अर्ज पुरज कैमा कर्ला वाली कहावत पर लिखना शेष है!

जहाँ तक गुजडू गढ़ी के निर्माण सम्बन्धी जानकारियों का सवाल है तो मेरा यही मानना है कि इस गढ़ी का निर्माण द्वाराहाट के गुजरसाह वैश्य द्वारा लोहाबागढ़ी के साथ ही सन 1103-05 के मध्य प्रारम्भ कराया गया था और यही कारण भी रहा कि इसे गुजडू का डांडा भी कहा गया! इस गढ़ी को आक्रान्ताओं ने कई बार तोड़ा फिर निर्माण हुआ लेकिन सबसे ज्यादा यह गढ़ी गुजडू पट्टी के थोकदार गोर्ला वंशजों के अधीन रही व तीलू रौतेली का यह सबसे अभेद दुर्ग माना जाता था!

(संदर्भ:- गढवाल का इतिहास- हरिकृष्ण रतूड़ी, कुमाऊं का इतिहास-बद्रीदत्त पांडे, कत्युरी राजवंश उत्थान एवं समापन- डॉ. शिब प्रसाद डबराल “चारण”, ईस्ट इंडिया गजेटियर- हैल्मिटन, पश्चिमी तिब्बत तथा कुर्माचली सरहद- मिस्टर शेरिंग, गढ़वाल गजेटियर- वाल्टन व अटकिंशन, कुमाऊं/अल्मोड़ा गजेटियर-अटकिंसन, कत्युर का इतिहास-पंडित रामदत्त तिवारी, गढवाल का इतिहास- डॉ शिब प्रसाद डबराल चारण, गढवाल का नवीन इतिहास (1441से 1804) डॉ शिब प्रसाद डबराल चारण, होली हिमालय-ओकले,  गढवाल की दिवंगत विभूतियाँ –डॉ डबराल

क्रमश……!

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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