Saturday, July 27, 2024
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200 साल पुरानी रिंगवाड़गाँव के खड़गू रौत की अजर-अमर “रिंग्वड्या तिबारी”। जिसके निर्माण में लगे 20-22 वर्ष।

200 साल पुरानी रिंगवाड़गाँव के खड़गू रौत की अजर-अमर “रिंग्वड्या तिबारी”। जिसके निर्माण में लगे 20-22 वर्ष।

(मनोज इष्टवाल)

चामी गांव की दो पीढ़ियों के राजमिस्त्री खपे इस मकान को बनाने में।

लूड़ी-धूड़ी  मिस्त्री ने की काष्ठकला की सजावट तो उनके पिता गुजरू ने की थी पाषाण कला की नुमाइश। 

यह उस कालखंड़ की बात है जब असवाल थोकदार अपने बर्चस्व की अपनी लड़ाई में गोरखाओं से लोहा ले रहे थे। एक ओर असवालों का 15वीं सदी में गढ़पति रणपाल असवाल (लंगूर व महाबगढ़ के गढ़पति भंधौ असवाल के दादा) का राजमहल “नगर गढ़”खरखगढ़ गोरखाओं ने तहस-नहस कर दिया था, दूसरी ओर ब्रिटिशकाल की सुगबगाहट हो गयी थी व बड़ियार गाँव के थोकदार पदम असवाल से चौंदकोट के रिंगवाड़ा रौतों ने ज़मीन ख़रीदकर उन्हीं की सरहद में अपनी बसावत शुरू कर दी थी। कुछ लोगों का मानना है कि थोकदार पदमू असवाल ने अपनी बेटी का विवाह उस दौर के चौंदकोट गढ़ के गढ़पति के वंशज किसी रिंगवाड़ा रौत से कर उसे यह ज़मीन दान स्वरूप भेंट की। बहरहाल ज़्यादातर इतिहास सिर्फ़ किस्सागोई व दंतकथाओं लोकगाथाओं में ही हमारे बीच मौजूद हैं।

इस तिबारी के बारे में मैने वर्ष 1995 में तब शोध करने का मन बनाया था जब मैं “ब्रिटिश गढ़वाल के इतिहास में असवालों की भूमिका” नामक एक शोध पुस्तक लिखकर गाँव-गाँव भटकता असवाल जाति के अतीत के पन्ने पलटने की कोशिश कर रहा था। तब मैं अस्वालों के गांव सरासु-बड़ियार होता हुआ रिंग्वाड़गाँव की इस आलीशान हवेलीनुमा तिबारी को देखने पहुँचा था। इस तिबारी के अर्थात् हवेली के मालिक बचन सिंह रावत उस दिन घर ही में थे। पता चला कि वे डाकखाने में नौकरी करते हैं। आइए जानते हैं इस तिबारी के अतीत का इतिहास।

(फोटो साभार:- उमेश असवाल)

विकास खंड कल्जीखाल पौड़ी गढ़वाल की पट्टी असवालस्यूँ का यह गाँव सतपुली नगरगाँव सड़क मार्ग पर अवस्थित है। वर्तमान में रिंगवाड़गाँव तक पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद खंडूरी के मुख्यमंत्री काल में सड़क़ निर्माण के बाद यह गांग सड़क मार्ग से जुड़ गया है।

ज्यादात्तर लोगों का मानना है कि रिंगवाडगांव की बसासत के कुछ साल बाद ही इस तिबारी का निर्माण हुआ है। कुछ का मानना है कि ब्रिटिश काल के प्रारम्भिक बर्ष में यानि 1815 के बाद इसका निर्माण शुरू हुआ व यह बदस्तूर पहले 18 साल तक तथा उसके बाद 4 साल और बनती ही रही। अतः यह कहा जा सकता है कि इसका निर्माण 22 बर्ष तक चलता रहा। अब यह टुकड़ों में बनता रहा या फिर  एक साथ निरन्तर 22 बर्ष तक निर्माण होता रहा यह कह पाना मुश्किल है। लेकिन 30-32 परिवारों के इस गाँव में सिर्फ रिंगवाडा रावत ही रहते हैं।

बहरहाल 1995 में लिखे समस्त शोध प्रबंध के खो जाने के कारण रिंगवाड गांव की इस हवेलीनुमा तिबारी पर संग्रहित समस्त दस्तावेज भी खो गए तो दुःख हुआ लाज़िम था। बर्षों बाद उमेश असवाल जी द्वारा यह फोटो जब फेसबुक में शेयर किया गया तो लगा मुझे विकास खण्ड कल्जीखाल के इस ऐतिहासिक तिबारी का दस्तावेजीकरण करना ही चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए यह सब जानना समझना सरल रहे। इस कड़ी को कड़ी दर कड़ी जोड़ने के लिए मैंने पहला फोन नैल गांव के अध्यापक मनोधर नैनवाल को फोन किया जिनके माध्यम से मुझे रिंगवाड गांव तक पहुंचने का माध्यम अध्यापक देवेंद्र चमोली व उनके बाद रिंगवाडगांव की महिला श्रीमती संगीता रावत माध्यम मिला। उन्होंने आगे की कड़ियाँ जोड़ते हुए इस तिबारी के वर्तमान हकदार मान सिंह रावत, रणवीर सिंह रावत व नरेंद्र सिंह रावत तक पहुंचाने में मेरी मदद की।

मान सिंह रावत व नरेंद्र सिंह रावत दोनों ही धौलाकुंआ दिल्ली स्थिति ताज होटल के इंजीनियरिंग विभाग में हैं। मान सिंह सेवानिवृत्त हो गए हैं व नरेंद्र सिंह अभी कार्यरत हैं। जबकि तीसरे भाई रणवीर सिंह देहरादून में फारेस्ट विभाग में कार्यरत हैं। जिनके पिता बचन सिंह रावत का सन 2000 में 65 बर्ष की उम्र में देहांत हो चुका है व माँ श्रीमती झबरी देवी अकेली गांव के इतने विशाल आवास में रहती हैं। इनकी चार बहनें सभी शादीशुदा हैं।

1995 का इत्तेफाक मुझे आज भी याद है जब मैं सरासू गांव के असवालों के धर्मगुरु गरीबनाथ के वंशजों की समाधियाँ देखकर बडियार गांव के रास्ते रिंगवाड गांव आ रहा था तब किसी बुजुर्ग ने बोला था कि उस मकान का मालिक का नाम खबेश है। यह मेरे लिए नया अनुभव था। मुझे लगा कि ये जानबूझकर मुझसे फिरकी ले रहे हैं। लेकिन फिर बोले- अरे बेटे, सच में मुझे उसका असली नाम याद नहीं। लेकिन उसमें राक्षसों जैसा बल है। इसीलिए हम सब उसे प्यार से इस नाम से संबोधित करते हैं  इस इलाके में कहीं भी बकरा मारा गया हो वह वहां जरूर  पहुंच जाता है। भारी शिकरिया च…!

 

उन्होंने बीड़ी सुलगाते हुए बीड़ी मेरी तरफ बढ़ाई थी। मैंने हाथ जोड़कर इनकार किया तो बोले- हम उसे खबेश इसलिए बोलते हैं कि उनके घर में एक बारी है। मैने पूछा- यह बारी क्या हुआ तो बोले तांबे की तौली के आकार का विशालकाय पीतल के बर्तन..! जिस पर चार कुंडे (कंगन) लगे हैं। उसे 04 आदमी भी बमुश्किल उठा सकेंगे। लगभग 30 कंटर (कनस्तर) पानी आता है उसमें। उसे वह नजीबाबाद से सिर पर उठाकर अकेले लाये थे। इस बात की पुष्टि उनके बेटे नरेंद्र सिंह रावत व मान सिंह रावत ने भी की कि वह बारी आज भी उनके घर में मौजूद है। उसमें हम बचपन में नहाया करते थे। नरेंद्र सिंह रावत बताते हैं कि जब पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चन्द खंडूरी ने हमारे गांव वाली सड़क बनवाई तब सड़क निर्माण के कारण घर में किसी के न होने से हमारे घर के सारे बर्तन चोरी हो गए थे लेकिन चोर बारी को उठाकर नहीं ले जा पाए।

दरअसल यह सब वह बुजुर्ग ठाकुर ख़डगू रिंग्वड़ा (रौत) के बारे में जानकारी दे रहे थे व मैं यह सोच रहा था कि यह बात वह उनके पौत्र स्व. बचन सिंह रावत या स्व. दरबान सिंह रावत में से किसी एक के बारे में बता रहे हैं। क्योंकि उन्होंने दादा व पौत्र वाली घटना का साथ साथ घाल-मेल कर दिया। स्व. बचन सिंह के पुत्र मान सिंह रावत तो बारी लाने का क़िस्सा अपने पिता स्व. बचन सिंह रावत का बताते हैं। लोगों का कहना है कि खड़कु रिंग्वड़ा को ही लोग अक्सर खबेश नाम से संबोधित करते थे । वही ऐसे थे जो दो किलो मीट तो चलते-चलते ही खा देते थे।

वहीं बड़े पुत्र मान सिंह रावत बताते हैं कि उनके दादा जी के समय ही कुछ बर्तन उनकी फूफूयें अपनी ससुराल ले गयी थी। वहीं रणवीर सिंह रावत बताते हैं कि तिबारी निर्माण के लिए गदेरे के निकट की खान के पत्थर को इस्तेमाल में लाया गया। ऊपरली मंजिल की तिबारी दो बार बदली गयी। जबकि उनके बड़े भाई मान सिंह रावत बताते हैं कि दादा जी ने यह तिबारी दो बार तुड़वाई व तीसरी बार दुबारा इसे बनावाया।

हवेलीनुमा रिंगवडा तिबारी।

विगत सदी  के नब्बे के दशक तक के बुजुर्ग लोग इस तिबारी को खड़गु रौत की रिंगवड़ा तिबारी नाम से जानते व पुकारते थे। पट्टी रिंगवाडस्यूँ चौंदकोट के रिंगवाड़ी गांव से आकर रिंगवाड गांव बसे रिंगवाड़ा रावत कब इस गांव बसे कोई नहीं जानता लेकिन एक भ्रांति है कि इस गांव में सबसे पहले पदमु रिंगवड़ा आकर बसा था। जिससे नगर के असवाल थोकदार ने अपनी पुत्री का विवाह कर जमीन दान दी थी। तो कुछ का मत है कि यह जमीन पदमु रौत ने खरीदी थी। वहीं तीसरा मत है कि थोकदार पदमु असवाल ने अपनी बेटी का विवाह किसी रिंगवाड़ा रावत से कर यह जमीन उसे दान स्वरूप दी थी। काल की गर्त में क्या समाया है कोई नहीं जानता क्योंकि इस गांव की बसासत पर तीन तीन राय कायम हैं। लेकिन यह भी सच है कि “पदमु” का सम्बंध यहां जरूर कुछ न कुछ था क्योंकि जिस गदेरे की खान से इस तिबारी के पत्थर निकाले गए थे उसे आज भी “पदमु की रौली” नाम से जाना जाता है।

बर्ष 1815 से बर्ष 1837 तक बनने वाली इस तिबारी के साथ कई गाथाएं व किंवदंतियां जुड़ी हैं। कोई कहता है कि पहली बार इसकी ऊपरी मंजिल पर खैर लकड़ी की तिबारी लगी फिर सांधण नामक लकड़ी की और अंत में इस पर तुन्न की लकड़ी की तिबारी लगाई गई। उमेश असवाल जानकारी देते हुए बताते हैं कि यहां की पहली तिबारी डोभल गांव व दूसरी तिबारी सरासू गांव के बलोदी पंडितों के घर लगी हुई है।

खडगु/खड़कु रौत अर्थात खड़क सिंह रावत द्वारा इसकी निचले तल भूतल ग्राउंड फ्लोर) पाषाण व पहली मंजिल (ऊपरी फ्लोर) काष्ठ कला से सुसज्जित करवाया है। पत्थरों से निर्मित तिबारी आज भी पाषाण कला का अद्भुत नमूना पेश करती हैं तो वहीं पत्थरों के मोर संगाड (खिड़की चौखट) देखकर मुंह से स्वयं ही निकल पड़ता है- वाह क्या बात है।

इसके निचले फ्लोर पर चार बड़े कमरे व शानदार बरामदा है तो ऊपरी फ्लोर पर भी शानदार तिबारी बैठकी के साथ साथ चार चार आवासीय कमरे हैं। यह 18वीं सदी में बनाया गया इस क्षेत्र के सबसे महंगे आवासों में से एक बताया जाता है। क्योंकि इस मकान के निचले फ्लोर की चुनवाई में तराशे गए पत्थरों के साथ गीली मिट्टी की जगह कुन्तलों उड़द की दाल पीसकर इस्तेमाल में लाई गई। इसीलिए इसका निर्माणकाल हर बर्ष बढ़ जाता था क्योंकि उड़द खत्म होने के बाद चुनवाई रोक दी जाती थी। तब लोग इसे खड़गु रौत का पागलपन कहते थे व मिस्त्री का सब्र, जो 22 साल तक इस हवेलीनुमा मकान को बनाता रहा। गलत हो जाने पर उस हिस्से को तोड़कर फिर चुनता रहा। लोग बताते हैं कि इस मकान को बनाने वाला गुजरू मिस्त्री चामी गांव का था जिसने 15 साल इस मकान को दिए लेकिन उसे पूरा नहीं कर सकता फिर इसकी ऊपरी मंजिल उसके पुत्र लूणी ने बनाई। लेकिन जब यह बनकर तैयार हुई तो कहा जाता है खड्कु रौत ने पूरे क्षेत्र के लोगों को दावत में आमंत्रित किया व कई बकरे दावत के लिए काटे गये। व इस दावत में अंग्रेज अफसर भी शरीक हुए।

एक कहानी उसी दौर की तब सामने आती है जब ब्रिटिश काल में अकाल (सन 1867 में) पड़ा व अंग्रेजों ने बारहस्यूँ परगने के सभी थोकदारों को बुलावा भेजा कि इस अकाल के समय वह ब्रिटिश सरकार की क्या मदद कर सकते हैं। यूँ तो ब्रिटिश काल में 1867, 1877, 1890, 1892, 1896, 1902, व 1909 में कुल मिलाकर सात बार अकाल पड़े। अब लोक जानकारियों में यह सामंजस्य बिठाना बड़ा मुश्किल है कि क्या असवालस्यूँ का थोकदार मिरचोड़ा गांव का दंगडू असवाल जिन्हे दंगडू सेठ भी बोलते थे व खडगू रिंग्वड़ा  समक़ालीन थे या फिर दंगडू सेठ का क़िस्सा बाद का है? बहरहाल जनश्रुतियों के अनुसार उस दौरान थोकदारों के मध्य खड़ग सिंह रावत को मौजूद देख कई थोकदारों को यह बात नागवार गुजरी क्योंकि इसमें सिर्फ पट्टी के थोकदारों को ही न्यौता दिया गया था। लोग बताते हैं कि अंग्रेजों ने जानबूझकर यह योजना के तहत किया था ताकि मिरचौडा के थोकदार दंगडु असवाल को झुलसाया जा सके व वह अपनी पट्टी के स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपनी तिजौरी का मुंह खोल सकें। हुआ भी वही- डंगड़ू सेठ ने घोषणा की कि वह बिना ब्रिटिश सरकार की सहायता के एक साल तक अपनी पट्टी के 84 गांवों को स्वयं पालेंगे। खैर यह सब किस्से कहानियां हैं इसमें सच्चाई कितनी है कह पाना सम्भव नहीं है लेकिन इतना सच तो है कि गढ़वाल का ज्याददात्तर इतिहास किस्सा कहानियों में ही उपलब्ध है।

यह देखना रोचक है कि इस तिबारी के राज मिस्त्री ने इस मकान के निर्माण के बाद इसमें थोकदार “खड़क सिंह रौत की रिंग्वड्या तिबारी” में एक पाषाण शिला खण्ड में उनकी रुआबदार मूर्ति का निर्माण किया जिसे देखकर यह प्रतीत होता है कि दाढ़ी मूंछों के साथ वह एक रुआबदार चेहरे के धनी थे। स्व. खड़क सिंह रावत के पुत्र स्व. शूरवीर सिंह रावत व उनके  दो पुत्र क्रमश: स्व. दरबान सिंह व स्व. बचन सिंह रावत हुए। स्व. दरबान सिंह रावत के पुत्र राजेन्द्र सिंह रावत भी दिल्ली में नौकरी पर हैं जबकि स्व खड्ग सिंह रावत की तीन पीढ़ी बाद उनके पौत्र स्व. बचन सिंह रावत की वर्तमान पीढ़ी में स्व. बचन सिंह रावत के तीन पुत्र क्रमशः मान सिंह रावत, रणवीर सिंह रावत व नरेंद्र सिंह रावत इस तिबारी व स्व. दरबान सिंह रावत के पुत्र राजेन्द्र रावत तिबारी का जिम्मा सम्भाले हुये हैं। नरेंद्र सिंह रावत बताते हैं कि उन्हें जब भी समय मिलता है वह तीसरे माह गांव आते हैं व माँ की देखभाल के साथ अपने मकान के छोटे बड़े रख रखाव का पूरा ध्यान रखते हैं। इस बार उन्होंने पूरी तिबारी पर रंग करवाया। वहीं मान सिंह रावत कहते हैं कि इस बार भूलवश हमने निचले तल पर सफेदी करवा दी जो कि हमें नहीं करवानी चाहिए थी।

चामी गांव लूडी-धूड़ी मिस्त्री व उनके पिता गुजरू की पाषाण मूर्ति।

यह भी अजब गजब का संजोग है कि चामी गांव असवालस्यूँ के दो राजमिस्त्रियों (बाप-बेटे) ने इसे संवारने सजाने में अपनी जिंदगी खपा दी। लूड़ी उर्फ़ लोकानंद मिस्त्री के पिता गुजरू उर्फ गिरधारी लाल ने लगभग 15 साल इस तिबारी की निचली मंजिल (ग्राउंड फ्लोर) पर पाषाण कला का कार्य कर पत्थरों को अद्भुत तरीके से तराशा। वहीं पिता की मृत्यु के बाद लूड़ी मिस्त्री ने काष्ठ कला ने तीन बार सम्पूर्ण तिबारी की अदला-बदली की।

प्रसिद्ध साहित्यकार अरुण कुकसाल बताते हैं कि चामी के पांच राजमिस्त्री प्रसिद्ध रहे जिनमें से गुजरू व उनके पुत्र लूड़ी मिस्त्री के साथ रिंगवाडगांव के इस हवेलीनुमा तिबारी बनाने  में किस किस ने भागीदारी निभाई यह कह पाना जरा कठिन है लेकिन इन दोनों के अलावा धूड़ी (धमानन्द), जस्सी (जसराम) व डबल सिंह मिस्त्री प्रसिद्ध रहे।

वहीं वरिष्ठ पत्रकार गणेश खुगशाल “गणी” इस क्वाठा या तिबारी के निर्माण काल पर न जाकर बताते हैं कि गुजरू मिस्त्री के बाद उसके दो पुत्र लूड़ी व धूड़ी ने ऊपरली मंजिल का निर्माण कार्य बतौर राजमिस्त्री पूरा किया है। जहां इनके पिता गुजरू मिस्त्री पाषाण काष्ठ के सल्ली थे वहीं ये दोनों तिबारी निर्माण के सल्ली हुआ करते थे।

बहरहाल यह देखना सुखद लगा कि चामी गांव के राजमिस्त्री गुजरू ने जहां इस मकान पर ठाकुर खड्ग सिंह रावत की पाषाण मूर्ति निर्मित की है वहीं अपनी व अपने दोनों पुत्रों लूड़ी व धूड़ी की मूर्ति का भी बनाई है। खड्ग सिंह रावत की पाषाण मूर्ति उपरली मंजिल में है जबकि इन राजमिस्त्रियों की निचली मंजिल में। यह तो तय है कि तब का न राज मिस्त्री ही पढ़ा लिखा था न ठाकुर खड्ग सिंह रावत …! वरना इन मूर्तियों पर उनका नाम जरूर गुदा होता व सन संवत भी। इस हवेलीनुमा तिबारी को देखकर लगता है कि इसके निर्माण में कितना जुनून कितना पागलपन व कितने सब्र का इस्तेमाल किया गया होगा जिसे बनाने में 22 बर्ष लग गए व इसकी काष्ठ तिबारी को तीन बार बदला गया।

ईशान व पूर्व दिशा के मध्य ब्रह्म कोण वास्तुकला में निर्मित इस तिबारी पर और कुछ लिखने के लिए इसके व्यापक निरीक्षण की आवश्यकता है लेकिन यह तो तय है कि यह तिबारी जिस तरह ब्रह्म दिशा अर्थात पूर्व देश के 30 अंश बायीं ओर की तरफ बनी दिखाई देती है उससे इस बात का आभास होता है कि इस तिबारी को पूरी प्लानिंग के साथ बनाया गया है व यही कारण भी है कि पत्थरों के खम्ब पर टिकी यह हवेलीनुमा तिबारी 200 साल बाद भी नई नवेली दुल्हन सी दिखाई देती है।

Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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