Friday, August 22, 2025
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59 सालों बाद देश-विदेश के पर्यटक करेंगे ऐतिहासिक गरतांग गली का दीदार ! करीब 11 हजार फीट की ऊंचाई पर है इंजीनियरिंग के नायाब नमूना गरतांग गली की सीढ़ियां।

● हिमालयन डिस्कवर ने तीन साल पूर्व यानि अक्टूबर 2017 में लिखी थी गरतांग गली पर एक्सक्लूसिव स्टोरी।

● नए स्वरूप में बनकर तैयार हुई उत्तरकाशी के नेलांग घाटी में स्थित गरतांग गली की सीढ़ियां।

देहरादून (हि. डिस्कवर)।

भारत-तिब्बत व्यापार की गवाह रही उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी में स्थित ऐतिहासिक गरतांग गली की सीढ़ियों का देश-विदेश के पर्यटक दीदार करने लगे हैं। गरतांग गली की सीढ़ियों का पुनर्निर्माण कार्य जुलाई माह में पूरा किया जा चुका है। इसके बाद से ही ऐसे में रोमांचकारी जगहों पर जाने के शौकीन पर्यटकों के लिए यह जगह एक शानदार विकल्प है।

गरतांग गली की करीब 150 मीटर लंबी सीढ़ियां अब नए रंग में नजर आने लगी हैं। करीब 11 हजार फीट की ऊंचाई पर बनी गरतांग गली की सीढ़ियां इंजीनियरिंग का नायाब नमूना है। इंसान की ऐसी कारीगरी और हिम्मत की मिसाल देश के किसी भी अन्य हिस्से में देखने के लिए नहीं मिलेगी।

1962 भारत-चीन युद्ध के बाद इस लकड़ी की सीढ़ीनुमा पुल को बंद कर दिया गया था, अब करीब 59 सालों बाद वह दोबारा पर्यटकों के लिए खोला गया है। कोरोना गाइडलाइन और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक बार में दस ही लोगों को पुल में भेजा जा रहा है। पेशावर से आए पठानों ने 150 साल पहले इस पुल का निर्माण किया था। आजादी से पहले तिब्बत के साथ व्यापार के लिए उत्तकाशी में नेलांग वैली होते हुए तिब्बत ट्रैक बनाया गया था। यह ट्रैक भैरोंघाटी के नजदीक खड़ी चट्टान वाले हिस्से में लोहे की रॉड गाड़कर और उसके ऊपर लकड़ी बिछाकर रास्ता तैयार किया था। इसके जरिए ऊन, चमड़े से बने कपड़े और नमक लेकर तिब्बत से उत्तरकाशी के बाड़ाहाट पहुंचाया जाता था। इस पुल से नेलांग घाटी का रोमांचक दृश्य दिखाई देता है। यह क्षेत्र वनस्पति और वन्यजीवों के लिहाज से काफी समृद्ध है और यहां दुर्लभ पशु जैसे हिम तेंदुआ और ब्लू शीप यानी भरल रहते हैं।

सामरिक दृष्टि से संवेदनशील है नेलांग घाटी।

नेलांग घाटी सामरिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है। गरतांग गली भैरव घाटी से नेलांग को जोड़ने वाले पैदल मार्ग पर जाड़ गंगा घाटी में मौजूद है। उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी चीन सीमा से लगी है। सीमा पर भारत की सुमला, मंडी, नीला पानी, त्रिपानी, पीडीए और जादूंग अंतिम चौकियां हैं।

सतपाल महाराज पर्यटन मंत्री उत्तराखंड कहा ने भारत सरकार ने पर्यटकों की आवाजाही पर लगाई थी रोक वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद बने हालात को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने उत्तरकाशी के इनर लाइन क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया था। यहां के ग्रामीणों को एक निश्चित प्रक्रिया पूरी करने के बाद साल में एक ही बार पूजा अर्चना के लिए इजाजत दी जाती रही है। इसके बाद देश भर के पर्यटकों के लिए साल 2015 से नेलांग घाटी तक जाने के लिए गृह मंत्रालय भारत सरकार की ओर से इजाजत दी गई।

दिलीप जावलकर पर्यटन सचिव उत्तराखंड धरोहर संरक्षण के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। इसके तहत नेलांग घाटी में स्थित ऐतिहासिक गरतांग गली की सीढ़ियों का 64 लाख रुपये की लागत से पुनर्निर्माण कार्य पूरा करने के बाद पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है। गरतांग गली के खुलने के बाद स्थानीय लोगों और साहसिक पर्यटन से जुड़े लोगों को फायदा मिल रहा है। ट्रैकिंग के शौकीनों के लिए यह एक मुख्य केंद्र बन रहा है।

मयूर दीक्षित, जिलाधिकारी, उत्तरकाशी ने कहा के पुनर्निर्माण कार्यों में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। पुरानी शैली में पुननिर्माण कार्यों को जुलाई माह में पूरा कर लिया गया था। कोरोना नियमों और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक बार में दस पर्यटकों को ही प्रवेश दिया जा रहा है।

नेलांग घाटी के आसपास
हर्षिल
हर्षिल, हिमालय की तराई में बसा एक गांव, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता से पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां से गंगोत्री की दूरी मात्र 21 किलो मीटर ही बचती है, जो कि हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। गंगोत्री तक रास्ता अपने आप में इतना मनमोहक है कि एक बार से आपका मन नहीं भरेगा।

केदारताल
केदारताल उत्तराखंड में सबसे खूबसूरत झीलों में से एक ताल है। यह गंगोत्री से 18 किमी की दूरी पर स्थित, गढ़वाल हिमालय में दूर केदार ताल निश्चित रूप से साहसिक और प्रकृति प्रेमियों के लिए एक आदर्श स्थान है। केदारताल से केदारगंगा निकलती है जो भागीरथी की एक सहायक नदी है।

हिमालयन डिस्कवर ने की थी 2017 में एक्सक्लूसिव स्टोरी।

लगभग 4 बर्ष पर्यटकों को और इंतजार करना पड़ा। हिमालयन डिस्कवर द्वारा 1 अक्टूबर 2017 को तब नीलांग वैली की गरतांग गली पर बिशेष लेख लिखा था जब पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज व उनके विभागीय उच्च अधिकारियों ने इस पर बिशेष रुचि दिखाई थी।

1962 के बाद 2017 में  लगभग 55 साल बाद पहली बार पर्यटक गरतांग गली पहुंचे।
गरतांग गली व नीलांग घाटी को प्रमोट करने में पिछले 10 साल से जुटा एक राजस्थानी तिलक सोनी।
पर्यटन विभाग ने गरतांग गली को व्यवस्थित करने के लिए अवमुक्त किये 25 लाख रुपये ।
जिलाधिकारी उत्तरकाशी आशीष श्रीवास्तव ने अपने रिस्क पर गरतांग गली का रास्ता खुलवाया।

ज्ञात हो कि नीलांग घाटी में हमेशा ही तिब्बती घुसपैठियों का दबदबा था। इस घाटी के निवासियों को जाध भोटिया नाम से पुकारा जाता रहा है जिनके तिब्बतियों से कभी अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे. यहाँ लाल बाबा का मंदिर है जिसे कुछ स्थानीय निवासी लामा मानते हैं तो कुछ हनुमान नाम से पुकारते हैं।  नीलांग घाटी को  तिब्बती लोग ‘चोनशा’ कहा करते थे। इसमें नीलांग और जादुंग नाम के दो गांव पड़ते थे। एक अंग्रेज ए गेर्राड ने 1820 में इसे ‘चुनसाखागो’ जबकि 1850 के दशक के आसपास इस क्षेत्र के चप्पे चप्पे से वाकिफ रहे एफ विल्सन ने ‘चुंगसा खागा’ नाम से उल्लखित किया है। नीले पहाड़ों के कारण स्थानीय लोग इसे नीलांग नाम से जानते थे। एक अन्य अग्रेंज जे बी फ्रेजर ने सबसे पहले इस क्षेत्र में जाने का प्रयास किया था। वह गंगोत्री तक गये थे लेकिन उन्होंने इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति से लोगों को परिचित कराया था। उन्होंने नीलांग यानि चोनशा और उस क्षेत्र के ‘जाध भोटिया’ निवासियों के बारे में लिखा था। रिकार्डों के अनुसार ‘सर्वे आफ इंडिया’ के कैप्टेन जान हडसन और लेफ्टिनेंट जेम्स हरबर्ट पहले यूरोपीय थे जो गोमुख तक गये थे। वे 31 मई 1817 को वहां पहुंचे थे। लेफ्टिनेंट हरबर्ट दो साल बाद फिर से इस क्षेत्र के बारे में पता करने के लिये निकले थे और आखिर में 13 सितंबर 1817 को नीलांग पहुंचने में सफल रहे थे।

 

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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