Tuesday, October 8, 2024
Homeलोक कला-संस्कृतिअभि इखम छायू.. अभि कsगा..? घट का भूत.. जिसने डोंणाधार तक पीछा...

अभि इखम छायू.. अभि कsगा..? घट का भूत.. जिसने डोंणाधार तक पीछा किया।

अभि इखम छायू.. अभि कsगा..? घट का भूत.. जिसने डोंणाधार तक पीछा किया।

(मनोज इष्टवाल)

अभी घराट में आखिरी घाण का मंडूवा पिस ही रहा था कि भगवती प्रसाद ने सोचा क्यों न तब तक ढूंगले के लिए आटा गोंथ लूँ। आटा गोंथते ही उन्हें ध्यान आया कि सब्जी क्या बनाऊं? फिर भगवती प्रसाद ध्यान आया कि उन्होंने तो गंगदरा व खरगढ़ नदी के दोमुंहे (संगम) पर ग्वादा लगा रखा है। ग्वादा मूलत: कुंज की पतली डंडियों या फिर कटबांस की बेतों से बनाये जाते हैं जिसका ऊपरी मुंह खुला रहता है।
भगवती प्रसाद पनचक्की के घर्राट बंद कर ग्वादा देखने गए तो पाया पानी का फ़ोर्स ज्यादा है। वह ऊपर गए व पानी का बहाव दूसरी तरफ कर दिया लेकिन जैसे ही वह नीचे उतरे देखा पूरा पानी बड़े बेग से उसी ओर फिर से आ गया। उन्होंने देखा ऊपर कोई व्यक्ति छाया के रूप में दिखाई दिया। वह समझ गए कि कुछ तो गड़बड़ है। वह बिन बोले ही तेजी से वापस अपनी पनचक्की की ओर लौट गए। तब तक बाहर से भरभराई सी आवाज गूँजी। हे भगवती माछा नि मीला डोंणु लऊँ? भगवती समझ गए कि मुसीबत उनका पीछा करते हुए घर्राट पहुँच चुकी है।

(नैल गाँव का ऐतिहासिक मकान व स्व. श्रीमति उर्वशी देवी)

यह सच्ची घटना 1936-37 के आस पास की बताई जाती है। क्योंकि इसी के बाद भगवती प्रसाद चमोली अपनी पनचक्की बंद कर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए थे।

पौड़ी गढ़वाल के विकास खंड कल्जीखाल की पट्टी असवालस्यूँ का नैल गाँव यूँ तो नैलवाल, चमोली व खर्कवाल पंडितों का बेहद साधन-सम्पन्न गाँव इसलिए माना जाता था क्योंकि यहाँ पानी के चार पांच धारे होने के साथ सिंचित भूमि के स्यारे थे। जहाँ उन्नत किस्म की धान व सब्जियाँ होती थी। इस गाँव में गिने चुने दो चार परिवार हरिजनों के भी हैं। भले ही वर्तमान में नैल गाँव के खेत बंजरों में तब्दील हो गए हैं व लगभग 60 से 70 प्रतिशत परिवारों ने रोजी रोटी व बच्चों की उच्च व उन्नत शिक्षा के लिए गाँव से पलायन कर दिया है लेकिन विगत पांच सात बर्षों से गाँव के कुछ अध्यापकों ने एक योजनाबद्ध तरीके से गाँव को फिर सरसब्ज करने का बीडा उठाया व नैलवालों व चमोली जाति के परिवारों की इष्टदेवी झालीमाली व राजराजेश्वरी का सयुंक्त एक शानदार मंदिर की स्थापना कर ग्रामीणो को हर साल पूजा में आमंत्रित करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे एक-एक करके खंडहर होते मकानों की छत्त फिर से संवरने लगी। और रिवर्स माइग्रेशन की शुरुआत होने लगी।

भगवती प्रसाद चमोली और घट्ट के भूत की कहानी जोकि सच्ची घटना पर आधारित है, उसे आगे बढ़ाने से पूर्व आपको जानकारी दे दूँ कि उनके नैल (कसरा अर्थात कोड़ियार लगा नैल) स्थित आवास व जमीन को हमारे ताऊ जी स्व. आदित्यराम इष्टवाल जी ने खरीद लिया था। स्व.भगवती प्रसाद चमोली जी को मूलत: ताऊ जी मूलत: मामा जी व उनकी पत्नी स्व. उर्वशी देवी को मामी जी बोला करते थे। इस हिसाब से उर्वशी देवी चमोली को हम बूढ़ी जी बोला करते थे जबकि बूढा जी अर्थात भगवती प्रसाद चमोली का स्वर्गवास तो ब्रिटिश फ़ौज कैवलरी में 1945-46 के आस पास घोड़े से नीचे गिरकर हो गई थी। इस आवास में उर्वशी बूढ़ी जी 2015 तक रही जब तक हमारे भाई साहब योगम्बर प्रसाद इष्टवाल परिवार सहित देहरादून नहीं आ बसे। यहाँ देहरादून आवास में ही सन 2018 में उर्वशी बूढ़ी जी ने प्राण त्यागे।

अभि इखम छायू.. अभि कsगा..? (अभी यहीं था अभी कहाँ गया ) भूत की कहानी जब हम बचपन में सुना करते थे तब रोंगटे खडे हो जाते थे व हम रजाई कम्बल के अंदर मुंह दुबकाकर जोर से डर के मारे आँखें मीच लेते थे। आँखें जितनी जोर से मीचते थे उतने ही ज्यादा कान चौकस रहकर सुनने को बेताब रहते थे।
कहानी आगे बढ़ी….। जब भगवती प्रसाद चमोली ढूंगले बनाने लगे तो उन्होंने देखा चक्की के पार नदी तट के बड़े से पत्थर पर एक विशालकाय मानव आकृति पसरी हुई है, जो आग के डर से अंदर नहीं आ पा रही है लेकिन उन्हें वह आग की रोशनी में साफ दिखाई दे रही है।
भाई साहब के पुत्र सुमित इष्टवाल बताते हैं कि उर्वशी बूढ़ी जी उन्हें यह वृतांत सुनाते हुए कहती थी कि जब उनकी शादी हुई थी उसी दौरान यह घटना घटित हुई थी। भगवती प्रसाद बुढ़ाजी तब स्वर्ग सिधार गए थे जब बूढ़ी जी मात्र 22 बर्ष की थी।

उस रात का जिक्र करते हुए तब उर्वशी बूढ़ीजी बताया करती थी कि उनके पति भगवती प्रसाद ने सारी रात सभी देवी देवताओं की मन्नत करके जैसे तैसे काटी। भूत बार -बार एक ही बात कहता। भुज्जी नी त लयों डोंणु…। (सब्जी नहीं है तो ले आऊं टांग)। जैसे जैसे रात गुजरती भूत का स्वर और तेज होता। कभी कभी वह जोर से अट्टाहास करता तो लगता मानों आस पास की चट्टानें टूटकर नदी में गिर गई हों। युवा भगवती प्रसाद आज अकेले ही चक्की में रुक गए थे। उनके पिताजी ने बोला भी था कि रात रुकना ठीक नहीं है, चल घर अंधेरा गहराने लगा है लेकिन पिसाईं का काम अधिक होने के कारण वे नहीं माने। अब उन्हें पिता की बात बरबस ही याद आ रही थी व आँखों से आँसू बह रहे थे कि काश…. मैंने उनकी बात मानी होती। घंटों भूत को देखते देखते अब उनका डर इसलिए दूर होने लगा था क्योंकि उन्हें लग रहा था कि जैसे ही उनके द्वारा जली आग बुझेगी भूत उन्हें खा जायेगा लेकिन भूत एक ही जिद करता। ढूंगला पकी ग्येनी, भुज्जी नी त लयों डोंणु (रोटियां बन गई, सब्जी नहीं है तो ले आऊं टांग)…।

अचानक भगवती प्रसाद चमोली जी की नजर आकाश के ध्रुवतारे पर पर पडती है, उन्हें अपने जिन्दा बचे रहने की उम्मीद लगती है। फिर जैसे ही भूत गुस्से में गुर्राहट के साथ कहता है..ढूंगला पकी ग्येनी, भुज्जी नी त लयों डोंणु (रोटियां बन गई, सब्जी नहीं है तो ले आऊं टांग)…। वह उससे कहते हैं कि कहाँ से लाएगा। भूत खुश होकर कहता है कि कुमळी जाण पोडलो। तू रुक अभी ढूँगला नि खई… मी जांदु, मी लांदु। (कुमळी जाना पड़ेगा। तू रुक अभी रोटी मत खाना… मैं जाता हूँ, मैं लाता हूँ)।
भगवती प्रसाद चमोली पूरी तरह सिहर गए उनका बदन डर के मारे कांपने लगा क्योंकि कुमळी मरघट का नाम था, जहाँ मुर्दे जलाये जाते थे। आज ही पड़ोस के किसी गाँव के मुर्दे को वहां जलाया गया था। उन्होंने डरते-डरते भूत से कहा – जा और ले आ।
भूत ने भयंकर अट्टाहस किया और वह उस बिशाल पत्थर से उठा व टांग लेने के लिए कुंवळी/कुमळी मरघट चल दिया। फिर क्या था भगवती प्रसाद ने आव देखा न ताव मुट्ठी पर थूक लगाया और गाँव की ओर दौड़ लगा दी। गाँव यहाँ से डेढ़ से दो किमी. दूर था। अभी वे बमुश्किल 300 मीटर ऊपर ही पहुंचे होंगे कि उन्हें अपने घर्राट के पास आवाज सुनाई देने लगी- अभि इखम छायू.. अभि कsगा..?…अभि इखम छायू.. अभि कsगा..?
आवाज धीरे धीरे गुस्से में तब्दील हुई व उन्होंने पलटकर देखा कि भूत ने भी गाँव का रास्ता पकड़ लिया है। उसके हाथ में जांघ से लेकर पैर के पंजे तक मुर्दा व्यक्ति की अदजली टांग थी। भगवती प्रसाद समझ गए कि वह अगर रास्ते-रास्ते गए तो उनका बचना मुश्किल है इसलिए वह सीढीनुमा खेतों को फांदते हुए तेजी से गाँव की तरफ बढ़ने लगे, जबकि मरघट का वह भूत रास्ते रास्ते चलता गुर्राता हुआ एक ही बात कहता आगे बढ़ रहा था -अभि इखम छायू.. अभि कsगा..?

अपने घट्ट (पनचक्की) की सांस उन्होंने घर आकर ही ली और घर आते ही जहाँ एक ओर रात खुल चुकी थी। भोर की किरणे निकलने से पहले उनकी माँ जब आँगन में गाय बछिया को बाँधने आया तो पाया भगवती प्रसाद वहां बेहोश पड़े हैं। उनकी जोर से चीख सुनकर घरवाले उठे थोड़ी देर में खबर गाँव तक फ़ैल गई। उनकी रौखळी (तंत्र विद्या से इलाज) हुआ तब उन्होने होश में आते ही सारी घटना सुनाई। लोगों को विश्वास नहीं हुआ लेकिन जब सुबह गाय बैल व भेड़ बकरी चुगाने के लिए ग्रामीण खरगढ़ नदी की तरफ जाने लगे तो पाया गाँव से बमुश्किल 500मीटर की दूरी पर मुर्दा व्यक्ति की अदजली टांग पड़ी हुई है। कहते हैं वह दिन आखिरी था जब घट्ट (पनचक्की) हमेशा के लिए बंद हुई। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि इसी कारण खरगढ़ की दूसरी पनचक्की जोकि सच्चिदानंद थपलियाल ग्राम धारकोट की थी वह भी हमेशा-हमेशा के लिए बंद करनी पड़ी क्योंकि जब भी वह पनचक्की की गूल बनाते, घाट के मसाण आकर गूल तोड़ देते थे।

 

Himalayan Discover
Himalayan Discoverhttps://himalayandiscover.com
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
RELATED ARTICLES