गतांक से आगे-
आपको ज्ञात होगा कि आगासिया परीलोक के सफर में मैंने पिछली यात्रा यहाँ छोड़ दी थी-(“अब पूछो मत मेरे लिए आगे मौत पीछे खाई जैसी स्थिति थी! क्योंकि अब खैट पर्वत आँखों के आगे तैरने लगा था जहाँ कुण्डी की पहाड़ियों पर मैंने न सिर्फ ऐसी ओखलियाँ देखि थी बल्कि ताज़ी बासी धान की भुस्सी भी देखी थी! खैट की भराड़ी देवी जिसे भराडी आँछरी/परी भी कहते हैं सब याद हो गया! जीतू को यहीं उन्होंने घेरा था! मेरे कानों में बर्षों पुराने वो घुंघुरू स्वर खनखनाती आवाज गूंजने लगी! बस अब हम गुफा के मुआयने तक पहुँच ही गए थे जहाँ अजीब सा माहौल था! जिसकी उलटी ओखलियाँ मुंह चिढा रही थी!”)
अगासिया परीलोक- उल्टी ओखलियों व नागफनों से साक्षात्कार! रहस्यों से उठता पर्दा!
(मनोज इष्टवाल)
खैट पर्वत से आगे लगभग 7 किमी. पार ऊँची नीची घाटियों खाइयों को पार कर हम जब बुग्याली उतुंग शिखर पीड़ी-कुण्डी पहुँचते हैं तो उसका तिलिस्मी लोक मेरी आँखों में आज भी तैरने लगा था! बादलों की घनघोर छटा ने हमें अपने आगोश में ले रखा था! एक संकरी बटिया से गुजरते आखिर हम बनकोटि की गुफाओं के मुआयने पर खड़े थे! मेरे आगे आगे चंद्रपाल तोमर और मैं उनके पीछे-पीछे! चन्द्रपाल ने हाथ में छाता पकड़ा हुआ था मैंने प्रश्न किया- यार इसे बनकोटि क्यों बोलते हैं? चन्द्रपाल का भी सीधा जवाब था कि इसे बनकुटी बोलें या बानकोटि या फिर बनकुड़ी समझ नहीं आता! क्योंकि इन तीनों का मतलब क्या निकले यह समझना होगा हां बीच के बानकोटि का मतलब स्थानीय भाषा में बांज पेड़ को बान कहते हैं कोटि क्या होगा समझना मुश्किल है! मेरा दिमाग ऐसे मामले में जाने क्यों कम्प्यूटर से भी तेज चलने लगता है! बर्षों पहले जौनसार की लोकसंस्कृति पर मैंने एक गीत फिल्माया था जिसके बोल थे- “डांडा की चलकुड़िये तू, जियोंदी काई बासा, कू-कु, बोली दे जिया की बाता तू, तेरे खैजाँ की हांऊँ सुखुं!”
मैंने इसमें अंत राम नेगी जो मेरे इस अलबम के प्रोड्यूसर थे उनसे पूछा था कि यह चलकुडी होती क्या है तब उन्होंने मुझे बताया था कि इस क्षेत्र में चलकुडी चिड़िया का नाम है और डांडा की चलकुडी मतलब परी जैसी खूबसूरत हुई ! फिर क्या था दिमाग की सुइयां तेजी से घूमने लगी और इस बनकोटी, बनकुड़ी या बानकुटी के अर्थ तश्वीर बन आँखों में स्पष्ट होने लगे क्योंकि सबका लगभग एक ही अर्थ था ! बनकोटी अर्थात बन-जंगल कोटि- निवास, बन- जंगल, कुड़ी-चिड़िया, बानकुटी- जंगल का घर! जिसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि इसका बांज वृक्ष से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि इतनी उंचाई पर कोई बांज वृक्ष उगता ही नहीं है और न उगा ही है! आखिर इस ओडार यानि गुफा के प्रवेश द्वार पर ही मैंने यह मोहर लगा दी कि यह जंगल का निवास, जंगली चिड़िया अर्थात वाइल्ड बर्ल्ड निवास है! फिर परियां याद आई जिनके कहानियों में पंख होते हैं! और वह चिड़िया की तरह उड़ सकती हैं! बचपन याद आया तो बदन ने झुरझुरी ली ! क्योंकि वह तश्वीरें ताजा हो गयी जब लाल चोंच की व लाल ग्रन्थि वाली विशालकाय गरुड़ दीखते थे व ग्रामीण वृद्ध बोलते थे कि उधर मत जाना वहां डागीण रुपी गरुड़ आई हैं वह उठा कर ले जायेंगी! शायद उन्हीं वाइल्ड बर्ल्ड का यह निवास स्थल हुआ शायद वही वाइल्ड बर्ल्ड जो रूप बदलने में माहिर बताई जाती हैं डागीण यानि मातृका, कृत्या सुकेश्वरी योग्नियाँ, सेम मुखेम की आँछरियां, गर्भ जोन गुफा की परियां, चौखुडू चौंतरू, भूल भुलैया गुफा, भेकल की परियां, कातका की परियां, भराडसर-कासला डांडा की मात्रियाँ/परियां, लुकी-पीड़ी,खैट की आंछरियाँ, पंवालीकांठा, चाईशिल, देवक्यार की मात्रियाँ/आँछरियाँ, आली की परियां, बिणासू, उर्कंडी, बडकंडा, रूंगा, डोडाक्व़ार, लेखा डांडा, दैड़ाडांडा, ओबरे, काले पहाड़, हरपु, कंडारा, सरुका ताल, हरीश ताल, लोह्खाम ताल, सरू ताल इत्यादि में वास करने वाली दान्गुड़ी, भराड़ी, एड़ी, आँछरी, झंडीधार की परियां व रक्तपिचाशिनियाँ ऐसे स्थलों में रहती थी! जिनका वर्तमान में अब भेद तक नहीं मिलता! गरुडों की संख्या में गिरावट के बाद अब यह भेष बदलने वाली गरुड़ कहीं नहीं दिखाई देती! यह भी तय था ये ज्यादात्तर तब दिखती थी जब फसल पकने वाली होती थी!
क्योंकि चन्द्रपाल तोमर की जुल्का डांडा में ही छानियां थी व वे हर बर्ष यहाँ की अगासिया परियों को भोग रूप में फाटी दिया करते थे इसलिए उसे पूरा विश्वास था कि ये अगासिया मात्रियाँ या देवियाँ उनका कुछ अहित नहीं करेगी इसलिए वह बबूल की घास को मजबूती से पकड बनकुटी की छोटी गुफा में तेजी से चढ़ गया क्योंकि बारिश की बूंदे भी बादलों के बेग के साथ धीरे धीरे अपनी रफ़्तार से बढ़ने लगी थी! मैंने गुफा पर नजर डाली तो मुंह खुला का खुला रह गया! उल्टी ओखलियां ऐसे दिख रही थी मानों कोई राक्षसी अपनी खाब खोलकर मुझे मुंह में समाने का आमन्त्रण दे रही हों.
ठीक वैसी तो नहीं जैसी पीड़ी में थी लेकिन उसी के आकार की! मुझे गुफा में खींचने के लिए चन्द्रपाल ने हाथ बढाया और आखिर गुफा तक पहुँचने में मैंने सफलता पा ही ली! बनकुड़ी या बनकुटी गुफाओं में यह सबसे छोटी गुफा कही जा सकती है! यहाँ दो व्यक्ति आराम से अपनी रात काट सकते हैं गुफा की लम्बाई का अनुमान इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि कितनी लम्बी रही होगी क्योंकि आगे गुफा बंद थी फिर भी 8 से 10 फिट लम्बी और लगभग 6 फिट चौड़ी इस गुफा से आप खत्त बहलाड़ के कुछ गाँव व खत्त लखवाड़ के अधिकत्तर गाँव, जमुना नदी तट, व जौनपुर क्षेत्र में पढने वाला, मसूरी नागटीबा तक समस्त क्षेत्र बिलकुल हथेली की तरह देख सकते हैं! यहाँ से अगर पैराग्लाइडिंग की जा तो इन सभी क्षेत्रों में आसानी से उड़ा जा सकता है! जमुना तट पर बसे जौनपुर गढ़ को आसानी से यहाँ से टार्गेट किया जा सकता है! अब देखिये कल्पनाएँ भी कहाँ से कहाँ पहुँच जाती हैं ! मुझे वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र पुंडीर याद आ गए जो बताते हैं कि उनके जौनपुर के उदाऊँ गाँव का एक बाजगी जिसे सब भूतनी की औलाद कहते थे रोज लगभग 10 किमी. पैदल चलकर 4 बजे सुबह जौनपुर गढ़ आकर नौबत्त बजाया करता था व सुबह धूप निकलने से पूर्व गाँव भी पहुँच जाया करता था!
बादलों की बढती वृद्धि को देखकर मैं चन्द्रपाल से बोला- यहाँ रुकना ठीक नहीं है क्योंकि बारिश बढ़ सकती है व बादलों की छटाएँ भी बिकराल रूप ले रही हैं अब हमें निकलना चाहिए! चन्द्रपाल मुस्कराए और बिना कुछ बोले उतरने लगे! हम अभी बमुश्किल 20 कदम चले होंगे कि बनकुटी का वह बिशाल पहाड़ हमारा ठीक ऊपर था ! जिसे यहाँ के लोग ढून्गै बोलते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ है ऐसा विकट चट्टान नुमा पहाड़ जिसमें पहुंचना आसान नहीं! शायद तभी एक प्रेयसी ने अपने प्रेमी या पति को गर्भावस्था के दौरान यह साहस करने को कहा कि- ढूंगै पार बिजोरी ले बिजोरिया, जाया मेरा स्वामी ले बिजोरी ला! (उस कठोर चट्टान के पार बिजोरी नामक खट्टा फल है, जा मेरे स्वामी उसे मेरे लिए ले आ)!
उपर नजर दौड़ाई तो देखा कुछ बकरियां मुंह निकाले हुए नीचे झाँक रही हैं! जैसे कह रही हों यहाँ पहुंचना बेहद आसान काम है! साहस करके तो देखो! मैंने चन्द्रपाल को कहा कि आप मेरे फोन से ही सही जरा उस गुफा की भी फोटो खींच लाइए! जौनसार या पहाड़ में एक बात तो है मेहमान का स्थान उंचा रखते ही रखते हैं ये हमारे संस्कारों में है! फोन लेकर जैसे तैसे घास पात पकड-पकड़कर चन्द्रपाल गुफा के दायें छोर तक पहुँच ही गए वहां से चिल्लाकर या खुशिमिश्रित शब्दों में बोले- अरे सर यहाँ तो दर्जनों भेड़ बकरियां हैं इसका मतलब यह गुफा बड़ी होगी! वह आगे बढ़ने का प्रयास करने लगे तो मैंने मना कर दिया क्योंकि बकरियों के नीचे से ऐसी दुरूह चट्टानी गुफा में घुसना ठीक नहीं होता! बकरियां बिदककर भागेंगी तो पत्थर गिरेंगे व इस से कोई दुर्घटना भी हो सकती है ! मैंने सजगता बरतते हुए कहा हो सके तो यहीं से एक आध फोटो खींच लो! चन्द्रपाल ने खींची भी लेकिन वापस लौटकर देखा तो वह अजीब सी थी सिर्फ चंद बकरियां दिख रही थी और गुफा का आकार ढका हुआ था ! यहाँ गुफा के शीर्ष में जो ओखलियां थी वह ओखलिया कम और नागाकृतियाँ ज्यादा नजर आ रही थी मानों नाग फन फैलाए हुए हों! यह बेहद रहस्यमय लग रहा था लेकिन मेरा सचमुच ऐसे मौसम में वहां जाने का साहस नहीं हुआ!
अब हम लौटते हुए उसी पगडंडीनुमा रास्ते से वापसी को बढ़ रहे थे! घुप्प कोहरा हमारे मार्ग में रोड़ा था! फिर भी मैंने नीचे नजर दौड़ाई तो डर गया क्योंकि हल्की सी चूक हमें कई सौ मित्र गहरी खाई में ले जाती! अब भूत चौंतरा तक लौट आये थे उसे प्रणाम कर में आगे बढ़ा व हमारी सफल यात्रा के लिए भूत महाराज का धन्यवाद किया कि फोन की घंटी घनघनाने लगी! फोन इंद्र सिंह नेगी का था! हेल्लो हेल्लो बोलता रहा लेकिन सिग्नल न होने के कारण फोन कट गया! चन्द्रपाल को बताया तो बोले- पक्का नेगी जी स्कूल की बैठक छोड़कर अगासी पहुँच गये हैं! चलो सर अगासी चलते हैं! मैंने असमर्थता ब्यक्त करते हुए कहा कि ऐसे मौसम में भला हम क्या देखेंगे वहां ! लेकिन मौसम अब खुलने लगा था इस से आगे हम अगासिया परियों पर बात करें क्यों न पुराणों के उन सन्दर्भों का उल्लेख किया जाय जो परियों के बारे में प्रचलित हैं! भले ही आज के युग में इनका अस्तित्व समाप्त हो गया माना जा सकता है लेकिन इनके पुख्ता प्रमाण ये सब गुफाएं मंदिर व बुग्याल ताल आज भी मौजूद हैं! आज आप कतई न मानों कि ये होती ही नहीं हैं तो इस आभासी दुनिया से मेरा अनुरोध है कि चाय को खोखों में बैठकर, या गप्पों में बड़ी बड़ी छोड़कर, बिना सोचे समझे ऐसी दंतकथाओं या प्रमाणों को सिरे से नकारने की जगह आओ और ऐसे लोक में उनकी उपस्थिति का आभास करो!
आगासिया परी या कृत्या सुकेश्वरी योग्नियाँ, सेम मुखेम की आँछरियां, गर्भ जोन गुफा की परियां, चौखुडू चौंतरू, भूल भुलैया गुफा, भेकल की परियां, अहेडी, कातका की परियां, भराडसर-कासला डांडा की मात्रियाँ/परियां, लुकी-पीड़ी,खैट की आंछरियाँ, पंवालीकांठा, चाईशिल, देवक्यार की मात्रियाँ/आँछरियाँ, आली की परियां, बिणासू, उर्कंडी, बडकंडा, रूंगा, डोडाक्व़ार, लेखा डांडा, दैड़ाडांडा, ओबरे, काले पहाड़, हरपु, कंडारा, सरुका ताल, हरीश ताल, लोह्खाम ताल, सरू ताल इत्यादि में वास करने वाली दान्गुड़ी, भराड़ी, एड़ी, आँछरी, मातृकायें, परियां व रक्तपिचाशिनियों के बारे में पुरानों में लिखा है:-
दैत्य अंधकासुर के अत्याचार से परेशान देवताओं ने शिब स्तुति कर अंधकासुर जिसे रक्तबीज भी कहा गया है उसका वध करने की प्रार्थना की आदिदेव महादेव ने ज्यूँ ही अंधकासुर का वध किया उसके रक्त की हर बूँद से हजारों अंधकासुर पैदा हुए जिसको मारते उसे कई पैदा हो जाते। थक हारकर तब शिब और भद्रकाली के ओज तेज से योगिनियां रण पिचासनियां पैदा हुई। जिनमे माहेश्वरी से ज्वालामुखी तक अनेकों अनेक मातृकाएं जन्मी और वे सभी रक्तबीजों का खून पीने लगी।
(मत्स्य पुराण 179/9-32)
फिर भी अंधकासुर का रक्त कहीं न कहीं गिर जाता और उस से और रक्त बीज पैदा हो जाते। तब महादेव बिष्णु शरण गए और रक्त बीज को मारने की युक्ति पर विचार किया। भगवान् बिष्णु द्वारा शुष्करेवती नामक देवी की उत्पत्ति हुई जिसने क्षण भर में सभी असुरों का रक्त पी लिया । फिर भी रक्त पिपासा पूरी न होने के कारण उसने अब देव मनुष्यों के रक्त से अपनी रक्त पिपासा शांत करना शुरू कर दिया। उसने देवताओं की एक न सुनी। अंत में शिब ने बिष्णु के नरसिंह अवतार का ध्यान किया जिन्होंने अपनी योग माया से 36 मातृकाएं का निर्माण किया।
(मत्स्य पुराण 197/66-74)
इन्ही योगनियों में एक कृत्या नामक योगिनी हुई । कहते है जब दैत्यं राज जालंधर भगवान् शिब से युद्ध करने गया तब शिब गण जिस भी दैत्यं का वध करते दैत्यं गुरु शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से उन्हें जीवित कर देते। ऐसे में आदिदेव महादेव के मुख से एक योगिनी पैदा हुई जो कृत्या नाम से प्रसिद्ध हुई। जो दैत्यं गुरु शुक्राचार्य को अपनी योनि में छुपाकर आकाश में अंतर्ध्यान हो गयी और युद्ध में उसने अनेको राक्षसों का भक्षण किया।
(शिव् महापुराण द्वितीय संहिता पंचम युद्ध खण्ड 20/52-55)
प्रसिद्ध विद्धवान भगवती प्रसाद पुरोहित अपनी पुस्तक रुद्रहिमालय गोपेश्वर के पृष्ठ संख्या 186-87 में लिखते हैं कि ये ऐड़ी आंछरी बणघौ में वे रण पिचासनियां थी जो कनखल में यक्ष का यज्ञ ध्वस्त कर कैलाश लौटने की जगह कुछ यहीं उच्च बुग्यालों पर्वत श्रृंखलाओं पर रुक गयी। भैरव रूप में शिवगण भी यहीं प्रतिष्ठित हो गये।
उपरोक्त सारे वृत्तांत मेरे लिखे नहीं हैं बल्कि सदियों पूर्व से ग्रन्थों में उल्लिखित हैं अत: इन सबके वजूद को नकारने वाले विज्ञान वर्ग के उन छात्रों या वैज्ञानिकों से अनुरोध है कि अपनी प्रयोगशालाओं से बाहर निकल एक बार मेरे साथ ऐसे रोमांचक, कौतूहलपूर्ण व साहसिक यात्रों का लुत्फ़ उठायें ताकि आप जमीनी सचाई जान सकें! इंद्र सिंह नेगी व उनके सहपाठियों के आने के बाद क्या हुआ पढ़िए अगले अंक में जोकि जुल्का डांडा या अयांर का टीम्बा का आखिरी सफर होगा!