Thursday, November 21, 2024
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गांव में बंजरों का सीना चीरते दिनेश खर्कवाल की पीड़ा।

गांव में बंजरों का सीना चीरते दिनेश खर्कवाल की पीड़ा।

(मनोज इष्टवाल)

वह सिर्फ अकेला नहीं बल्कि 35-40 परिवारों का गांव है। ऐसा भी नहीं कि उसके पास आय के स्रोत नहीं। वह बस (गाड़ी) ऑनर है और ईमानदारी से कहें तो सर्वसम्पन्न भी है। लेकिन फिर भी वह गांव के बंजरों के बीच अपने सूने खेतों की मांग हर साल भरता है। यह जानते हुए भी कि वह जो बीज इसमें बो रहा है उसे जंगली जानवर सुअर, बन्दर सब चट कर जाएंगे। फिर भी वह हर साल यही करता आ रहा है।

कल्जीखाल विकासखण्ड के फबसूला गांव निवासी दिनेश खर्कवाल विगत दिनों भले ही बच्चों की पढ़ाई के लिए पौड़ी रह रहे हों लेकिन गांव को वे छोड़ नहीं पाए। अपनी थाती-माटी से अगाध प्यार करने वाला यह व्यक्ति कहता है कि सिर्फ नारे देने से काम नहीं चलता। धरातल पर हमें कर गुजरने की जरूरत है।

दिनेश कहते हैं कि सिर्फ योग से पेट नहीं भरता। किसान की शान हो या गांव की सम्पन्नता वह उसके खेत खलिहान व आंगन से होकर गुजरती है। ऐसे में हम पहाड़ के वीरान होते गांवों की तस्वीर बदलने की बात करते हैं जो बेईमानी है। उनका कहना है कि गांव को बसाने के लिए आईएएस की आवश्यकता नहीं बल्कि उसकी बेसिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पहाड़ के ठेठ आदमी की जरूरत है। मैं हर बर्ष अपने गांव को तिनके तिनके मरते देख रहा हूँ। पूरा गांव खेती छोड़ चुका है। मैं अकेला हूं जो हर बर्ष 10-12 खेतों में हल जोत रहा हूँ। मेरे बैल भी मुझे बद्दुआ देते होंगे कि सिर्फ हमारी ही कमर में जू क्यों?

लेकिन मेरा प्रयास है और आस भी कि एक न एक दिन फिर गांव की तस्वीर बदलेगी और इसके बंजरों में अन्न की फसलें लहलहायेगी। दिनेश कहते हैं काश…सरकार हमें तार-बाढ़ के संसाधन उपलब्ध करवाती ताकि लोग यह नहीं कह पाते कि क्यों आबाद करें खेत। जितनी मेहनत करते हैं जंगली जानवर उसे तबाह कर देते हैं। जाने सरकार कब और कैसे ग्रामीणों की सुध लेगी।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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