विगत बर्षों की अपेक्षा इस बर्ष खैरालिंग मेले में उमड़ी कई गुना अधिक भीड़!…पहाड़ लौटने के शुभ संकेत!
(मनोज इष्टवाल)
जहाँ की हम बात कर रहे हैं वहां की थाती-माटी में कुछ तो ऐसा है कि उजड़ने के बाद फिर बसागत शुरू हो जाती है! विकास खंड कल्जीखाल पौड़ी गढ़वाल की पट्टी असवालस्यूं के कई गाँव आज भी इसके सन्दर्भ देने के लिए काफी हैं! अब जिसकी थाती माटी में खैरालिंग जैसा मेला आयोजित होता है उसी गाँव की बानगी देखिये! मिर्चोड़ा नामक यह गाँव यूँ तो शिल्पकार बस्ती से हमेशा आच्छादित रहा और उत्तरोत्तर इसमें वृद्धि हुई लेकिन यहाँ के सवर्णों में असवाल थोकदार व गौड़ ब्राह्मणों के घर में विगत बर्षों से निरंतर ताले झूलते रहे ! चाहे इसके उपर सांगुडा ग्राम हो या फिर नीचे खांडा-नैल! पलायन की अंधी मार ने ये सब गाँव वीरान कर दिए थे लेकिन सदी दर सदी कुछ तो ऐसे पुरुष अवश्य पैदा होने हैं जो कुछ ऐसा कर देते हैं कि फिर बंजरों में हरियाली के अंकुर फूटने लगते हैं! ऐसा ही इन गाँवों में हुआ जहाँ सांगुडा गाँव के लगभग 84 बर्षीय बुजुर्ग पंडित विद्यादत्त उनियाल ने अपनी बागवानी की मिशाल देकर राज्य भर में बर्षों तक नाम कमाया वहीँ मिर्चोड़ा गाँव के ठा. रतन सिंह असवाल पलायन के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर तक ले गए व नैल के कुछ होनहार अध्यापकों जिनमें मनोधार नैनवाल, चन्द्रप्रकाश नैनवाल, प्रधान, अध्यापक चमोली सहित कुछ युवाओं ने अपनी कुलदेवी झालिमाली व राज राजेश्वरी के माध्यम से एक ऐसा प्रयास किया कि यह गाँव फिर से अपनी रौ में आने लगा है!
मिर्चोड़ा की बात करें तो मात्र एक दो अपवाद छोड़कर गाँव के ज्यादात्तर लोगों ने गाँव के मकान ठीक कर लिए हैं और तो और इसी गाँव के कनाडा प्रवासी व उत्तराखंडी फिल्म के जनक पराशर गौड़ ने यहाँ न सिर्फ अपना खूबसूरत मकान बना लिया अपितु उसमें रहना भी शुरू कर दिया है! बात मेले/कौथीग की थी जिसे मैं लाकर पलायन या रिवर्स पलायन पर ले आया! दरअसल मुद्दा यहाँ भी वही है कि बर्षों बाद जिस कदर खैरालिंग (मुंडनेश्वर) कौथीग/मेले में भीड़ जुटी है वह इसी बात का शुभ संकेत है कि अब शहरों की उम्र लम्बी नहीं है और गाँव के प्रति पुनः यहाँ के जनमानस की ललक जगी है!
मेले में भीड़ सम्बन्धी जानकारी देते हुए रतन असवाल कहते हैं ” पंडित की यह उस महादेव की ही कृपा कहें या माँ काली का शत कि जो यत्न हम लोग मेले के लिए कर रहे थे वह साकार हो गया! इस बार जितनी भीड़ उमड़ी है उसने बचपन की यादें ताजा कर दी हैं! जब हम बचपन में मेला देखने आते थे तब यही रहता था कि कहीं एक दुसरे का हाथ छूट गया तो मेले में ही बिछुड़ जायेंगे! बढती आमद ने मेरे सपनों के उत्तराखंड के रिवर्स माइग्रेशन की कल्पना साकार कर दी है!”
बहरहाल खैरालिंग मेले में इस बार दो ध्वजाएं थी जिनमें एक मिर्चोड़ा ग्राम से व दूसरी हाच्वीं ग्राम से थी. ध्वज प्रतियोगिता में मिर्चोड़ा गाँव प्रथम रहा और बेहद आनन्द के माहौल में मेला सद्भाव पूर्वक समाप्त हुआ! पंडो के थाळ जुटे खूब भीम की रिन्गौण भी हुई! बस इस बार न चक्र में बागी दिखा और न उसके पीछे सीटी बजाता हुडदंग! शायद बलि प्रथा अब उत्तराखंड के हर कौथीग थातों से दूर होती जा रही है! पहले डर यह था कि बिना बलि के भला कोई मेला भी जुटेगा लेकिन अब इस मेले की भीड़ ने आयोजकों के चेहरे पर रौनक ला दी और उनका मानना है कि आगामी बर्ष यह मेला अपने पूरे शबाब में फिर जुटेगा!