(मनोज इष्टवाल)
भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान पुणे व उत्तराखंड फिल्म विकास परिषद् के तत्वावधान में आयोजित “फिल्म अप्रेशियेशन कोर्स” में विगत 7 जून को निर्मल डंडरियाल के निर्देशन में निर्मित 63 मिनट की डाकुमेंट्री फिल्म के बारे में जैसे ही एफटीआईआई के प्रशिक्षक ने उसे परदे में दिखाने की बात की ! मन हुआ अब दोपहर भोजन के बाद इस वातानुकूलित हाल में फसर कर सोने का आनंद आएगा!
यह दिक्कत सिर्फ मेरे साथ नहीं बल्कि हर उस दर्शक के साथ है जिसे डाकूमेंट्री फिल्म सिर्फ और सिर्फ बोरिंग सब्जेक्ट से ज्यादा कुछ नहीं लगती! यह हिन्दुस्तान के कल्चर में शामिल है क्योंकि वह नेशनल ज्योग्राफी, इपिक, डिस्कवरी इत्यादि तो देख लेगा लेकिन कोई और डाकूमेंट्री की बात हो तो उसके खयालात जरा जुदा होते हैं! क्योंकि मन मस्तिष्क पर सिर्फ एक ही बात रहती है ! यार जाने क्या बोरिंग सब्जेक्ट होगा?
यों भी एफटीटीआई के प्रशिक्षक पंकज सक्सेना जी बता ही चुके थे कि एक समय ऐसा था जब हर सिनेमा घर में फिल्म चलाने से पूर्व भारत सरकार ने छोटी -छोटी डाकूमेंट्री फिल्म दिखानी अनिवार्य कर दी थी! सच कहूँ वह मेरा बाल्यपन भी था और ठीक उन्हीं के शब्दों को दोहराऊं तो जैसे ही यह फिल्म शुरू होती थी हम हाल से बाहर टॉयलेट में दिशा-फिराक के लिए आ जाया करते थे! मैं ही नहीं हाल में बैठे ज्यादात्तर दर्शक!
यूँ भी लंच से पूर्व के सेशन में हम 1967 में भारत सरकार की फिल्म डिविजन द्वारा बनाई गयी लगभग 15 मिनट की “आई एम 20” देख चुके थे! जो उस काल में बनी बेहतरीन फिल्म कही जा सकती है! लेकिन लंच बाद फिर वही डाकूमेंट्री और वह भी 63 मिनट की! हाल के अंदर घुस चुके थे अब बाहर निकलना असभ्यता होती इसलिए सोचा कि अच्छा मौका है अपनी उजड़ी हुई नींद को पूरी करने का!
निर्मल डंडरियाल से पहले परिचय गणेश खुगशाल गणी महीनों पूर्व बिनसर पब्लिकेशन में एक मुलाक़ात के दौरान करवा चुके थे! उम्र और कद से जब बढ़कर उनका परिचय सुना तो मुझ जैसे नालायक की ईगो आड़े आ गयी क्योंकि मैं तो पैदाइशी अपने को इस क्षेत्र का मास्टर मानता था/हूँ! अब ये था आगे इसलिए आ गया क्योंकि इस डाकूमेंट्री ने मेरा हूँ पीछे धकेल दिया! निर्मल की यह फिल्म 3 या चार बार दूरदर्शन व एनडी टीवी में प्रसारित हो चुकी है! जिसे तीन नेशनल अवार्ड व शिमला फिल्म फेस्टिवल में ज्यूरी अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है!
बेगम अख्तर उर्फ़ बेगम अख्तरी उर्फ़ बेगम बाई फैजाबादी जोकि 30 अक्टूबर 1974 में हम सबको अलविदा कह चुकी हैं उन पर फिल्म या उनकी गजल, ख़याल, ठुमरी और अन्य जितनी भी शास्त्रीय संगीत की विधाएं रजवाड़ों के समय तवायफों के बीच प्रचलित थी उन पर काम करना व उन्हें सजीव करना बहुत बड़ा काम था! निर्मल बताते हैं कि इस फिल्म को पूरा करने में उन्हें पूरा एक साल लगा और 20 लाख से अधिक का खर्चा आया! आपको याद दिला दें कि बेगम अख्तर ऐसी फनकार हुई जिनकी परवरिश भले ही समाज के एक ऐसे वर्ग बिशेष में हुई जो हमेशा हेय नजरों से देखा जाता रहा क्योंकि तवायफों का पेशा नाच गाना उस युग में भी प्रश्नचिह्न लगाता था और आज तो इसका स्वरूप ही बदल गया है! बेगम अख्तर के गायन से अयोध्या/अवध रियासत के राजा जगदम्बिका प्रसाद ने उन्हें 50 एकड़ जमीन दान दी थी जिसे बेगम अख्तर ने मरने से पहले ही वापस लौटा दिया ताकि वे दागदार न हों!
सूचना एवं लोकसंपर्क विभाग के उपनिदेशक कलम सिंह चौहान द्वारा सूचना विभाग की ओर से निर्मल डंडरियाल को सम्मानित किया गया।
पतली कमर लम्बे बाल….!, कैसे पूछी हमने कहाँ…!, हमको मिटा सके ये जमाने में डीएम नहीं…!, या फिर ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया…” जैसे कर्णप्रिय गजल व ठुमरी ने बेगम अख्तर को उस युग में श्रेष्ट पायदान पर ही नहीं पहुंचाया बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति फकरुदीन अली द्वारा उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया!
बहरहाल बेगम अख्तरी क्या थी और क्यों थी उसे देखने के लिए जब हमने परदे पर नजर डाली तब हाल में गिनती के 124 लोग बैठे थे! घुप्प अँधेरे में मोबाइल फोन से शुरू हुई इस विजुअल के जब आगे के ड्रोन शॉट्स शुरू हुए तो लगा हॉलीवुड की कोई फिल्म दिखाई जाने लगी है! बस नजरें टिकी तो टिकी रह गयी! कभी फिल्म कलकत्ता घुमती, कभी अयोध्या/अवध तो कभी लखनऊ और दिल्ली! इस दौरान स्क्रिप्ट व वाइस ओवर का ये हाल था कि समझ नहीं पाया कि फिल्म ने पटकथा कब शुरू की और कैसे इसका निष्पादन होगा! हर शॉट्स में कैमरा ज़ूम इन ज़ूम आउट, क्लोज, वाइड होता हुआ हर दृश्य पटल को बेहद खूबसूरत बना रहा था! स्टिल फ्रेम में बमुश्किल कैमरा चंद पल के लिए कभी कभार आकर ठहर जाता तो लगता कि कहीं कैमरा मैन चाय की चुस्कियों के लिए तो ऐसा नहीं कर रहा है! लेकिन चंद सेकंड्स में ही वह फितरत भी दूर हो जाती! सच कहें एक घंटा और 3 मिनट के बाद जब फिल्म समाप्त हुई तो पूरा हाल तालियों से गूँज उठा! सभी कुर्सियों से उठ खड़े हुए और जो तालियाँ बजी वह विस्मित कर देने वाली थी! मुझे ख़ुशी हुई कि यहाँ जितने भी दर्शक थे वे सचमुच यहाँ ज्ञान अर्जन करने आये उस वर्ग के दर्शक थे जिन्होंने फिल्म देखने के बाद हर फिल्म की समीक्षा खुद से या अपने मित्रों से अवश्य की होगी!
निर्मल ने बताया कि इस फिल्म को फिल्माने में 5 हाई क्लास कैमरे व एक एप्पल मोबाइल ने अपनी भूमिका निभाई! उन्होंने फिल्म की बारीकियों पर चर्चा की और मैंने उन्हें इस बात की बधाई दी कि यह पहली डाकूमेंट्री फिल्म है जिसमें बिना ज्यादा वाइस ओवर के शॉट्स दर शॉट्स अपनी कहानी खुद बखान करते नजर आये! यह तभी सम्भव है जब इसके पीछे कोई सदा हुआ एडिटर कार्य करे! पता चला निर्मल वन मैन आर्मी हैं! स्वयं कैमरा, एडिटिंग, डायरेक्शन इत्यादि ! आपको सलूट!