(अवधेश नौटियाल)
आज के भारत में असली और फर्जी पत्रकार की पहचान किसी न्यूज़ चैनल के लोगो या प्रेस कार्ड से नहीं, बल्कि मोबाइल कैमरे की पकड़ और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की डिग्री से होती है। हर सड़क, हर पंचायत, हर सरकारी दफ्तर के बाहर ‘प्रेस’ लिखा कार्ड लटकाए सैकड़ों लोग मिल जाएंगे, जिनमें कुछ सचमुच पत्रकार हैं, और बाकी पत्रकारिता की छांव में अपने निजी एजेंडा पूरा कर रहे हैं। सवाल यही है ये सिलसिला कब और कैसे रुकेगा.?
यह सवाल कोई नया नहीं है। साल 2013 में भारतीय प्रेस परिषद (PCI) के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने इसे महसूस किया था। उन्होंने कहा था “वकील बनने के लिए एलएलबी, डॉक्टर बनने के लिए एमबीबीएस जरूरी है, लेकिन पत्रकार बनने के लिए कोई न्यूनतम योग्यता नहीं है।” काटजू ने तब पत्रकारिता की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता तय करने के लिए एक समिति भी गठित की थी। समिति में ‘नई दुनिया’ के संपादक श्रवण गर्ग, पत्रकार राजीव साब्दे और पुणे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उज्ज्वल बारवे जैसे अनुभवी लोग शामिल थे। उद्देश्य स्पष्ट था- पत्रकारिता को भी एक व्यवस्थित पेशे के रूप में संस्थागत स्वरूप देना।
लेकिन अफसोस…वह रिपोर्ट कहाँ गई को जानकारी उपलब्ध नहीं है। न वह लागू हुई, न चर्चा में आई, और न किसी फाइल से बाहर निकली। उसकी प्रतिध्वनि कुछ महीनों तक अख़बारों में गूंजी, फिर लोकतंत्र के शोर में गुम हो गई।
आज की हकीकत, प्रेस कार्ड का मेला-
पत्रकारिता अब एक “ओपन फील्ड” बन गई है। कोई भी व्यक्ति, चाहे उसने पत्रकारिता का ‘J’ भी न पढ़ा हो, कैमरा लेकर, यू-ट्यूब चैनल खोलकर, या किसी लोकल पोर्टल के नाम पर, रिपोर्टर बन सकता है। पत्रकारिता अब संस्थान की नहीं, “रजिस्ट्रेशन की राजनीति” बन गई है। न्यूज़ रूम की जगह अब ग्रुप एडमिन ने ले ली है और संपादक की जगह कंटेंट क्रिएटर ने। ऐसे में खबरों का स्तर गिरना, तथ्यों का अभाव होना और ‘प्रोपेगेंडा बनाम पत्रकारिता’ की लड़ाई का बढ़ना स्वाभाविक है।
क्या वाकई योग्यता तय करना समाधान है.?
यह भी सच है कि पत्रकारिता कोई सिर्फ़ डिग्री से सीखी जाने वाली कला नहीं। यह जज़्बा, ईमानदारी और समाज के प्रति जिम्मेदारी का पेशा है। परंतु, क्या हर किसी को बिना किसी प्रशिक्षण, बिना किसी समझ के इस पेशे में उतरने देना लोकतंत्र के लिए खतरनाक नहीं.? जब डॉक्टर गलत दवा देता है तो जान जाती है, और जब पत्रकार गलत खबर देता है तो समाज का विवेक मर जाता है।
समाप्ति नहीं, शुरुआत चाहिए-
अब वक्त आ गया है कि भारतीय प्रेस परिषद या सूचना-प्रसारण मंत्रालय उस पुरानी रिपोर्ट को दोबारा खोले पत्रकारिता की ‘न्यूनतम योग्यता’ तय करे। कम से कम इतना कि जो व्यक्ति खुद को “पत्रकार” कहे, उसे भाषा, संविधान, आचार संहिता और मीडिया नैतिकता की प्राथमिक समझ हो। आज की लड़ाई सिर्फ़ फर्जी प्रेस कार्ड की नहीं, बल्कि पत्रकारिता की विश्वसनीयता बचाने की है।
