(मनोज इष्टवाल)
पहला दिन पहला प्रीमियर शो और शो देखने में फ़िल्म जगत से जुड़े एक भी जाने – पहचाने चेहरों का ना दिखाई देना मेरे लिए अचम्भित करने वाली बात थी। जैसे क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के प्रीमियर पर होता है कि ग्लेमर से भरे चेहरे और चमक-धमक बिखेरते रुपहले पर्दे के चेहरे आपस में मिलते जुलते समय भी अभिनय करते दिखाई देते हैं। लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं था। कुछ युवा चेहरों के सिवाय वेटिंग स्पेस में कोई ऐसा चेहरा नहीं मिला जो पूर्व में फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़ा हो। धड़कनें तेज हुई और खुद से बोलने लगी कि आखिर पटकथा लेखक लोकेश नवानी ऐसा कैसे कर सकते हैं कि इतनी महत्वपूर्ण स्टोरी कुछ ऐसे युवाओं को सौंप दें जो रंगमंच के नवोदित कलाकार रंगकर्मी तो हो सकते हैं लेकिन पूर्व में इनका फ़िल्म इंडस्ट्री से कोई लेना देना रहा होगा यह संशय बना रहा।
खैर अब आये थे तो फ़िल्म देखनी ही थी। मॉल ऑफ़ देहरादून के सिनेमा हॉल न -2 पर लगी फ़िल्म के प्रीमियर शो का शुभारम्भ भी युवा आंदोलनकारी नेता लुसुन टोड़रिया व मोहित डिमरी के रिब्बन काटने से हुआ। यह अलग तरह की परंपरा अच्छी भी लगी। थोड़ी देर बात देखा हॉल खचाखच भर गया। फ़िल्म स्टार्ट भी बिल्कुल नये तरीके से हुई। शुरूआती दृश्यों में भू क़ानून जैसे मुद्दों पर युवा आंदोलन और साथ में एक लव अफेयर को जोड़कर आगे बढ़ती फ़िल्म एकाएक ठगुली व उनके पति गोविन्दराम नवानी से जुड़ती हुई, गढ़वाल के परिवेश से दूर क्वेटा निकल जाती है। जहाँ ठगुली न नहाने की जिद करती है और उनके पति उनके बाल गूँथते दिखते हैं। जिसने 60-70 बर्ष पूर्व का गढ़वाल देखा होगा तो उसकी समझ में एकदम आ गया होगा कि तब बाल विवाह ही हुआ करते थे।
दर्शक दीर्घा शांत मन चित्त से फ़िल्म देखती रही। अचानक फ़िल्म में मॉडर्न टिंचरी माई की एंट्री होती है जो पत्रकारिता कर अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ज्वाइन कर लेती है व उसे टिंचरी माई पर रिसर्च करना होता है। मतलब ताने बाने बुनती यह फ़िल्म अब अपने चरम की तरफ बढ़ना शुरू करती है। अब तक डायलॉग डिलीवरी से मुझे यह तो आभास हो गया था कि इसके ज्यादातर युवा कलाकार नाट्य मंच से जुड़े हो सकते हैं क्योंकि इसमें मॉडर्न टिंचरी माई के साथ लिव इन में रहने वाला युवा अर्थात एकमात्र अग्रिम पंक्ति का अभिनेता जिस तरह आंदोलनों के दौरान या डायलॉग डिलीवरी के दौरान अपने अभिनय का प्रदर्शन कर रहा था, ऐसा अक्सर हमने वामपंथी या कॉमरेड समाज के नेताओं में जोश और जूनून भरने की कला देखी है।
अब मेरा मन हुआ कि यह फीचर फ़िल्म है या आर्ट फ़िल्म कुछ देर के दृश्यों से मन भटकता हुआ फ़िल्म कैटेगरी ढूंढने लगा जैसे – एक्शन, कॉमेडी, ड्रामा, रोमांस, थ्रीलर – सस्पेंस, हॉरर, साइंस फिक्शन, फैंटासी, एडवेंचर, म्यूजिकल, क्राइम, डॉक्युमेंट्री, एनिमेशन, पारिवारिक फ़िल्म, वयस्क या कला फ़िल्म?
मैंने सभी तरह की बनने वाली फिल्मों से इसकी तुलना की लेकिन अंत में यही निर्णय लिया कि यह एक लो बजट की फीचर फ़िल्म के कलात्मक पहलु को दर्शाती कला फ़िल्म जिसे आर्ट फ़िल्म कहते हैं, वह है। जिसमें सत्यजीत रे की कला फ़िल्म बंदिश, श्याम बेनेगल की अंकुर व मंथन, गोविन्द निहलानी मी आक्रोश सईद मिर्जा की अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, या फिर मसान, न्यूटन, मुक्ति भवन, लंचबॉक्स इत्यादि हुई। अब ये मत कहिये कि कहाँ यें वर्ल्ड फेम डायरेक्टर व फ़िल्में और कहाँ गढ़वाली परिवेश में इन फिल्मों के एक अभिनेता को मिलने वाले पारिश्रमिक से भी कम में बनी “टिंचरी माई.. द अंटोल्ड स्टोरी “
यकीन मानिये ये नवोदित निर्देशक व इस फ़िल्म में किरदार निभाने वाले ये अननॉन आर्टिस्ट… वह सब कर गए जो हमारी कल्पना से परे है। पूरी फ़िल्म में दर्शकों का पिन ड्राप और कभी कभी कोमल दिलों की उभरती सिसकियां बयां कर रही थी कि इस फ़िल्म ने क्या गजब ढ़ा दिया है। आइये पात्र परिचय करवा दें:-
ठगुली देवी
टिंचरी माई के बचपन से लेकर वैवाहिक जिंदगी के अभिनय की जिम्मेदारी संभालने वाली वैभवी नौटियाल से आप मिलेंगे तो लगेगा ये लड़की कैसे अभिनय कर गई जो बात करने में भी झिझकती है और शर्माती है। निर्देशक के डी उनियाल व पटकथा लेखक लोकेश नवानी को शायद ऐसे ही चेहरे की तलाश थी क्योंकि यह कहानी ही एक सदी पूर्व की है। जितनी देर ठगुली पर्दे पर रही उसे एकटक आँखें देखती रही। सिर्फ़ मेरी ही नहीं बल्कि आस पास बैठे दर्शकों की भी। कभी कभी दर्शक ममतत्व, स्नेह व प्यार से महिलाओं के मुँह से निकल जाता – हिरां बिचरी..!
गोविंद राम पोखरियाल
यानि ठगुली का पति! जिनके पास अभिनय के लिए कुछ ऐसा था नहीं जो साबित कर देते। चंद डायलॉग और किरदार खत्म।
लालमणि पोखरियाल
सेवनिवृत्त फ़ौजी जिसके घर ठगुली को आश्रय मिला। जहाँ उसके दो बच्चे व लालमणि हैजा से मरे। लालमणि का अभिनय निभाने वाले कलाकार ने अपनी उपस्थिति दर्ज की।
ड्राइवर सरदार जी।
भई… मान गए दीपक बंगवाल। आपने अभिनय से एक सरदार के रूप में जो पहाड़ प्रेम और डायलॉग डिलीवरी दी वह कमाल की है। आप सच कहें तो जन्मे ही अभिनय के लिए हैं।
मॉडर्न टिंचरी माई
यह रोल इस फ़िल्म की अहम् कड़ी कहा जा सकता है। जिसे अभिनीत करने वाली अभिनेत्री आरती शाही ने सम्पूर्ण फ़िल्म में अपनी जान फूंककर रख दी। आरती शाही ने साबित कर दिया कि टिंचरी माई की पटकथा को कैसे जिया जा सकता है। अभिनेत्री आरती शाही ने सम्पूर्ण फ़िल्म में चाहे वह वर्तमान का डिस्कोथैट हो या लोक समाज के बीच जीना, एक पत्रकार की भूमिका में वह भले ही पत्रकार को पूर्ण रूप से न जी पाई हो लेकिन एक रिसर्च फैलो के रूप उनका अभिनय बेजोड़ रहा। जिसमें वह सब था जिससे आज का युवा समाज गुजर रहा है, पटरी से उलट जी कर अपने को साबित करना और जब अपने पर बन आये तो टिंचरी माई जैसा बनना यकीनन अद्भुत लगा।
विनय अग्रवाल
एक आंदोलनकारी… अर्थात भू क़ानून के अग्रेता के रूप में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। विनय अग्रवाल की भूमिका निभाने वाले अभिनेता मयंक पांडे ने अपनी डायलॉग डिलीवरी व अभिनय से खूब वाहवाही बटोरी। विनय के अभिनय में लेशमात्र भी बनावटीपन नहीं झलका। हाँ.. उनके अभिनय ने नाट्य रंगमंच की ओर मेरा ध्यान अवश्य खिंचा।
टिंचरी माई
ठगुली देवी के संघर्ष और बाद में टिंचरी माई बनी फ़िल्म की मुख्य अभिनेत्री का अभिनय जी रही अभिनेत्री निशा सिंह शुरुआती दौर के ठगुली के किरदार में उलझी सी दिखाई दी। शायद यही कहानी का यथार्थ भी उजागर करता है।
ओह माय गॉड… यह अभिनेत्री टिंचरी माई के विभिन्न रूपों को जीती हुई आगे बढ़ती ही गई और वह सब कर गुजरी जो इस फ़िल्म के लिए बहुत जरुरी था। इस अंटोल्ड स्टोरी का वह रूप पहली बार पता चला कि हरिद्वार आश्रम में ठगुली से हुए बलात्कार के बाद ही वह टिंचरी माई बनी। बलात्कार के अभिनय में अभिनेत्री निशा सिंह ने चंबल की फूलन देवी की याद दिला दी। बलात्कार के बाद घिसटकर जल प्रपात तक पहुँच प्यास बुझाती और फिर बाल कटवा कर गंगा स्नान करते दृश्य के फ़िल्मांकन व अभिनय ने अभिनेत्री निशा सिंह को सचमुच में टिंचरी माई बना दिया। मुझे लगता है जिस दिन यह फ़िल्म नेशनल अवार्ड के लिए जाएगी निशा सिंह अवार्ड जरुर अर्जित करेगी।
पटकथा : लोकेश नवानी
वाह.. लोकेश नवानी जी। आपने पटकथा में जो कुछ रखा वह अतृप्त करने वाला था। मिनट टू मिनट के परिदृश्य में आपकी पटकथा जीवंत होती रही। मुझे लगता है मोटाढ़ाक स्कूल के संघर्ष की अनछुई कहानी या तो स्व. पुष्कर मोहन नैथानी को पता रही होगी या फिर आपको या मुझे! क्योंकि पुष्कर मोहन नैथानी अक्सर टिंचरी माई से मिलने सिगड्डी स्थित उनकी कुटिया पर जाया करते थे। पूरी फ़िल्म में टिंचरी माई के सारे करेक्टर सम्माहित रहे लेकिन यहाँ मुझे लगता है टिंचरी माई का वह किरदार भी जरुरी था जिसके कारण भाबर क्षेत्र को पेयजल से जोड़ा गया। साथ ही उनके मायके में प्रसंग भी सम्माहित होते तो कुछ और बातें सामने आती। फिर भी बजट को ध्यान पर रखकर लिखी गई यह पटकथा बेहद मजबूत है। मेरा बहम यह भी दूर हुआ कि उनके पति कि मृत्यु हैजा या चेचक के कारण हुई।
हैट्स ऑफ लोकेश नवानी जी..।
कस्ट्यूम डिज़ाइनर
वाह स्वाति डोभाल…। मैं सोच भी नहीं सकता था कि इतनी कम उम्र की लड़की की सोच में आज से लगभग 80 बर्ष पहले के लोक समाज व वस्त्र आभूषण सज्जा की रूहानी सोच जीवित हो। फ़िल्म के ड्रेसिंह सेंस ने वह काल जीवित कर दिया जिसकी परिकल्पना क्षेत्रीय भाषा के आज के बड़े बड़े फ़िल्ममेकर नहीं कर पाते। आपने कमाल कर दिया। आज के समाज के लिए यह स्वस्थ संदेश कहा जा सकता है।
फ़िल्म निर्देशक के डी उनियाल
एक युवा जिसे हमने पहली बार किसी फीचर फ़िल्म को डायरेक्शन देते देखा होगा और वाह उसी में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा ले तो इस क्षेत्र में काम करने वाले मुझ जैसे जाने कितने लोगों को आपसे जलन नहीं होगी। आपने सबसे बड़ी बात यह रखी कि फ़िल्म के कट टू कट शॉट्स की बारिकियों का खयाल रखकर इसकी कंटीनिटी में जरा सा भी झोल नहीं आने दिया। सबसे सुखद अहसास यह था कि आप जैसे युवा ने करीब एक सदी पूर्व के चित्रण को बखूबी अंजाम दिया। नंगे पैरों के साथ, उस लोक समाज के मेकअप, ड्रेस और आभूषण तथा खानपान को बेहद बारिकी से दर्शाने के लिए आपको साधूवाद। बस एक जगह जरा कंन्फ्यूजन हुआ, जहाँ प्लास्टिक की चपलें पहने दलाल जो ठगुली को खरीदने व बेचने आये थे! उनके पैरों में दिखी। हो सकता है 1960 के दशक तक बिजनौर क्षेत्र में प्लास्टिक की चप्पल चलन में रही हो लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी दखल 1970-80 के काल में हुई उससे पहले यहाँ बिरले धनवान ही चमड़े के जूते व चप्पल पहना करते थे। आपने सच में साबित कर दिया कि फिल्में मज़बूत पटकथा को जीवित करने वाले डायरेक्शन से ही सफल होती है। आइये एक चौंकाने वाली बात आपके साथ साझा करता हूँ। फ़िल्म टिंचरी माई.. द अंटोल्ड स्टोरी के निर्देशक के डी उनियाल भले ही हम सबके लिए इस फील्ड में नये दिखाई दे रहे हों लेकिन आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि इस फ़िल्म को निर्देशित करने से पूर्व के डी उनियाल सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक तिग्मांशू धूलिया के साथ लगभग 4 बर्ष बतौर असिस्टेंट काम कर चुके हैं। उनियाल फ़िल्म पान सिंह तोमर, बुलेट राजा और साहब बीबी और गेंगस्टर में उनके असिस्टेंट रहे हैं।
फ़िल्म में नामी-गिरामी कलाकार
टिंचरी माई.. द अंटोल्ड स्टोरी में ऐसा नहीं है कि सब नवोदित ही कलाकार रहे हों। इसमें आपको दर्जनों हिंदी टीवी सीरियल, बॉलीवुड फ़िल्म, गढ़वाली फ़िल्म व रंगमंच के अभिनेता मुकेश शर्मा, गढ़वाली फिल्मों के मँझे कलाकार रमेश नौडियाल, व गढ़वाली रंगमंच के शुरुआती दौर की रंगकर्मी व अदाकारा स्मिता राजेन टोड़रिया भी अभिनय करती दिख जाएंगी लेकिन इनके रोल इतने छोटे थे कि लगता है इन्हें गेस्ट कलाकार के रूप में उपस्थिति दर्ज करने के लिए इसमें शामिल किया गया था।
सम्पादन व पर्दे के पीछे की टीम
आप सबने कमाल कर दिया। निर्माण के सहयोगी स्व. पुष्कर मोहन नैथानी, निर्माता के डी उनियाल, लाइन प्रोड्यूसर संजय मैठानी, आर्ट डायरेक्टर अनुज नौटियाल, सिनेमाफोटोग्राफ़र विद्यानाथ भारती सहित समस्त टेक्निकल स्टॉफ जिसमें स्पॉट बॉय से लेकर सभी शामिल हैं। आप सबको भी शुभकामनायें। एक बेहतरीन फ़िल्म दर्शकों के मध्य लाकर खुद को साबित करने के लिए..।
फ़िल्म पर अपनी राय प्रकट करते हुए विद्वान व्यक्तिव निर्मल नैथानी कहते हैं कि कल विकास मॉल इंदिरा नगर में यह फिल्म देखी फिल्म में पात्रों का अभिनय ,संगीत,पहाड़ी जीवन ,पहाड़ के रमणीक दृश्य,डायलॉग्स,स्क्रिप्ट सभी कुछ अद्वितीय है ।
लगभग 2:30 Hrs की फिल्म को एकटक लगाकर देखा पर्दे से आंखें हटी नहीं ।
इस फिल्म के डायरेक्टर,प्रोड्यूसर,संगीतकार,स्क्रिप्ट राइटर,अभिनय निभाने वाले पात्र सभी को बहुत बहुत बधाई ।आरती साही पूरी फिल्म पर छा गई है । छोटी थगुली (वैभवी)का भविष्य सुनहरा है । इस फिल्म की पब्लिसिटी में थोड़ी कमी रह गई वरना बॉलीवुड फिल्म्स की टक्कर की फिल्म है ।
मेरी राय..
फ़िल्म जिस दिन राष्ट्रीय अवार्ड के लिए सब्मिट होगी उस दिन जरूर झंडे गाड़ेगी। मेरा मानना है कि यह पूर्णतः आर्ट फ़िल्म की कैटेगरी में शामिल होगी क्योंकि फीचर फ़िल्म के बजट आधारित इस फ़िल्म को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार के नामांकन में शामिल करने में बजट आड़े आ सकता है। रही आर्ट फ़िल्म की बात तो यह लो बजट की बेहतरीन फ़िल्म है जिसे देखने हमें सिनेमा हॉल तक जाना चाहिए।
मेरा आशय आर्ट फ़िल्म से इसलिए भी है क्योंकि यह फ़िल्म आर्ट फ़िल्म के खांचे पर बेहद फिट बैठती है। आर्ट फिल्म, जिसे अक्सर “आर्टहाउस सिनेमा” या “स्वतंत्र सिनेमा” भी कहा जाता है, ऐसी फिल्में हैं जो व्यावसायिक मनोरंजन से हटकर कला, रचनात्मकता, और गहरे विचारों पर केंद्रित होती हैं। इन्हें मुख्यधारा की फिल्मों (जैसे बॉलीवुड या हॉलीवुड की व्यावसायिक फिल्मों) से अलग माना जाता है।
आर्ट फिल्में अक्सर असामान्य, जटिल, या यथार्थवादी कथानकों पर आधारित होती हैं। ये भावनात्मक, दार्शनिक, या सामाजिक मुद्दों को गहराई से उजागर करती हैं। उदाहरणत: पाथेर पांचाली (सत्यजीत रे)। जबकि प्रायोगिक शैली में गैर-रैखिक कहानी, अनोखी सिनेमैटोग्राफी, न्यूनतम संवाद, या प्रतीकात्मक दृश्यों का उपयोग होता है। जैसे शिप ऑफ थीसियस में दार्शनिक प्रतीकवाद।आर्ट फिल्में सामाजिक मुद्दों, मानवीय संघर्षों, या व्यक्तिगत खोज को दर्शाती हैं, जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती हैं।
आर्ट फिल्म बनाम व्यावसायिक फिल्म में यह अंतर अक्सर देखा जाता है कि आर्ट फिल्म कहानी, कला, और संदेश पर जोर देती है व सीमित दर्शकों व कम व्यावसायिक मुनाफे को सोचकर बनाई जाती है। यही कारण है कि छोटे निर्माताओं की आर्ट फ़िल्म देखने के लिए दर्शक दीर्घा अक्सर 60 प्रतिशत तक ही भरी मिलती है।
जहाँ व्यावसायिक फिल्म मनोरंजन, बड़े सितारे, और मुनाफे पर जोर व बड़े दर्शक वर्ग को देखकर बनाई जाती है, वहीं आर्ट फिल्में सिनेमा को कला के रूप में देखती हैं और दर्शकों को गहरे अनुभव प्रदान करती हैं। इसलिए फ़िल्म को देखने के बाद यदि मैं व्यक्तिगत तौर पर इस फ़िल्म को कैडर देना चाहूंगा तो इसे मैं बिशुद्ध आर्ट फ़िल्म ही कहूंगा।