Tuesday, August 19, 2025
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अस्कोट रियासत के 108 वें राजवार राजा भानुराज सिंह पाल

भारत गणराज्य में 20 बर्ष पश्चात शामिल हुई अस्कोट रियासत। 

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 25 नवंबर 2016)

यह एक ऐसा साम्राज्य रहा है जिसने लगभग 650 साल तक निष्कंटक राज किया। इनका राज्य विस्तार सुदूर इस्लामाबाद से नेपाल तक लगभग 800 बर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ बताया जाता है। इनके अधीन 80 किले यानि 80 राज्य थे, इसीलिए इन्होंने अपनी राजधानी सन 1615 में लखनपुर कोट से देवल शिफ्ट की व अपनी राजधानी का नाम अस्कोट रखा।

उत्तराखंड के सुदूर क्षेत्र पिथौरागढ़ जौलजीवी मार्ग पर लगभग 52.4 किमी. दूरी पर अवस्थित लगभग 400 साल पुराना यह महल आज भी अवस्थित हैं। जहां रजवार वंशज 108वें राजा भानुराज सिंह पाल वर्तमान में भी जीवन यापन करते हैं। रजवार वंशी इस साम्राज्य की जानकारी जुटाने 25 नवम्बर 2016 को हमारी टीम राजमहल में पहुंची। मेरे साथ मेरे मित्र जीवन चन्द जोशी (घोड़ाखाल भवाली), सुप्रसिद्ध फोटोजर्नलिस्ट राकेश काला (नैनीताल) व हरीश जोशी शामिल थे।

राजमहल में राजा भानुराज सिंह पाल के साथ उनके एक बायोवृद्ध नौकर जो 1957 से लगातार वहीं महल की देख रेख करते हैं, उनके हम साया की तरह आज भी मौजूद हैं। राजमाता अपने इकलौते पुत्र युवराज के साथ लखनऊ प्रवास पर हैं व पुत्री युवरानी गायत्री राजे का विवाह जोधपुर राज घराने के महाराज गजराज सिंह के पुत्र युवराज शिवराज सिंह के साथ 2010 में हो चुका है।

महल के शिलापट्ट पर आपको रजवार वंशी 108 राजाओं की जानकारी व उनके राजकाल का ब्यौरा चस्पा मिल जाएगा। 1279 में इनके वंशज प्रथम राजा रजवार अभयपाल सिंह द्वारा पहाड़ी खस राजाओं को परास्त कर लखनपुर कोट में अपना किला व राजधानी बनाई। कालांतर में 1588 में रजवार राजा रामपाल की मृत्यु के पश्चात अल्मोड़ा के चंद वंशी राजा रुद्रचन्द ने इस राज्य पर अधिकार कर यहां 300 रुपये कर लगाकर इसे स्वायत्त राज्य घोषित किया लेकिन 1615 में रजवार राजा महेंद्र पाल ने फिर से अपने राज्य को अर्जित कर लखनपुर कोट से अस्कोट अपनी राजधानी बनाई व यहीं राजमहल का निर्माण करवाया।

(असकोट नरेश राज्य भानू राज सिंह पाल व उनका 400 बर्ष पुराना महल जो अब म्यूजियम के रूप में विकसित किया गया है।) 

राजा भानुराज सिंह पाल ने जानकारी देते हुए बताया है कि वे पूर्व में इंडियन एयरलाइन्स में सर्विस करते थे लेकिन 10 साल बाद हो उन्होंने नौकरी छोड़ दी। अब उनके पुत्र युवराज इंडिगो एयरलाइन्स में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। उन्होंने कहा जब रजवारों का राज चरम पर था तब उनके वंशजों के पास एक लाख सेना हुआ करती थी जिसने सुदूर पश्चिमी नेपाल क्षेत्र से लेकर अपना राज्य विस्तार इस्लामाबाद की सीमा तक फैलाया। उन्होंने महाकाली आँचल व महाकाली नदी के दोनों छोर पर शासन किया।

उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि पंजाब के प्रतापी राजा के सेनापति जोरावर सिंह पूरे मैदानी क्षेत्र को रौंदता हुआ मुनस्यारी होकर तिब्बत पहुंच गया था लेकिन उसने रजवार साम्राज्य में अपनी दखल नहीं दी। तिब्बत के राजा से हमारे अच्छे तालुकात होने के कारण हमारी एक बड़ी सेना की टुकड़ी तब तिब्बत में तैनात थी। जोरावर सिंह से बमुश्किल 25 मिनट के युद्ध के पश्चात जौरावर सिंह की सेना भाग खड़ी हुई । जौरावर सिंह तो हाथ नहीं आये लेकिन उनकी तलवार हाथ आई जो आज भी राजमहल में लटकी हुई है।

(राजा भानूराज सिंह पाल व राज रानी सबसे अंतिम में राज्य साहब के साथ जीवन जोशी जी व राजीव काला जी)

उन्होंने कहा ब्रिटिश काल में नेपाल के बाद ब्रिटिश कमांडर द्वारा अस्कोट पर भी आक्रमण किया गया लेकिन ब्रिटिश सेना बुरी तरह हारी व ब्रिटिश कमांडर का सर कलम कर हमारे वंशजों ने उसे महल की नींव में चुनवा दिया था। उस कमांडर की जब्त तलवार भी राजमहल में है।

अपने निजी शौक पर चर्चा में उन्होंने बताया कि वह बॉक्सिंग, बास्केटबॉल, फुटबॉल इत्यादि खेला करते थे लेकिन बाद में यह सब छोड़कर उन्होंने बैडमिंटन खेलना शुरू किया जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर काँस्य पदक हासिल किया। उन्होंने कहा कि 13वीं सदी में उनके पास तांबे की खानें हुआ करती थी व उसी के सिक्के रजवार राज्य में बतौर मुद्रा प्रचलन में थे।

उनकी दादी अर्थात राजा विक्रम बहादुर सिंह पाल की पत्नी भझांग नेपाल की राजकुमारी हुआ करती थी जबकि उनकी मां बांसवाड़ा की राजकुमारी थी। उनकी पुत्री राजकुमारी गायत्री राजे की शादी जयपुर स्थित रामबाग पैलेस में 2010 में हुई थी जो उस समय की सबसे चर्चित व महंगी शादी थी। इस शादी में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, प्रिंस चार्ल्स, टाइटेनिक फ़िल्म की अभिनेत्री सहित दुनिया भर की जानी मानी हस्तियां आयी थी।

राजा भानुराज सिंह पाल बताते हैं कि 1862-63 तक उत्तराखंड क्षेत्र में ब्रिटिश मैप के अनुसार नैनीताल व अस्कोट दो ही जिले थे, जबकि हमारा राज्य 1279 से लेकर 1967 तक इस क्षेत्र पर रहा। अंग्रेजों ने सुघौली सन्धि के दौरान हमारे पूर्वजों से 1817 ई. में सात लाख रुपये देकर हमसे पश्चिमी नेपाल का बड़ा भू/भाग नेपाल में शामिल करवा दिया था। 1961 तक हमारे राज्य से ही कैलाश मानसरोवर यात्रा होती थी इसका रूट बाद में बदल दिया गया। राजा मैसूर व राजा बनारस कैलाश मानसरोवर यात्रा के समय उनके राज्य अतिथी रहे जिन्हें उनके दादा जी द्वारा सन 1931 में , अपने साथ कैलाश मानसरोवर की यात्रा करवाई गई।

व्यथित नजर आए राजा भानुराज सिंह पाल।

राजा भानुराज सिंह पाल दो बातों को लेकर वर्तमान परिवेश से बहुत व्यथित दिखे। पहला उन्हें आज की राजनीति व राजनेताओं से बड़ी शिकायत है। वे कहते हैं चुनाव के समय ही राजनेता जनता के बीच दिखते हैं। अस्कोट आना-जाना भी उनका तभी होता है। आगे-पीछे क्या हो रहा है इसका उनसे कोई वास्ता नहीं होता। वे उस बात से भी व्यथित दिखे कि वर्तमान में रजवाड़ों की बची हुई साख का संचालन भी दिल्ली से होता है। हम क्या पहनें क्या खाएं यह तय भी वही करेंगे तो कैसे चलेगा।

रिवर्स माइग्रेशन ही बचा पायेगा पहाड़ों को।

उन्होंने उन सभी धनवानों से अनुरोध किया है जो पहाड़ छोड़कर देश विदेश में जाकर बस गए हैं कि लौट आओ। अब इन पहाड़ों को आपकी सख्त जरूरत है। आप ही लोग इन के भाग्य विधाता बन सकते हैं। वरना यह सब पहाड़, झरने, नदियां, बुग्याल, वन्यजीव व अन्य सम्पदायें नष्ट हो जाएंगी।

अस्कोट राजमहल में म्यूजियम बनाना चाहते हैं राजा भानुराज सिंह पाल।

(म्यूजियम)

राजा भानुराज सिंह पाल ने कहा। अब बहुत हुआ। अपने पूर्वजों के इतिहास को वे यूँही समाप्त नहीं होने देंगे इसलिए उन्होंने तय किया है कि वे पुराने राजमहल को म्यूजियम बनाएंगे जहां उनके राजवंश से सम्बंधित विभिन्न दस्तावेज संग्रहित होंगे। साथ ही राज घराने सम्बंधी आयुध सामग्री भी।

जौलजीवी मेला।

राजा भानुराज सिंह पाल बताते हैं कि कभी इस मेले में तिब्बती व शौका व्यापारी सांभर, खाल, चँवर, पूँछ, कस्तूरी, जड़ी-बूटियों को लेकर आया करते थे जिसमें अब धीरे धीरे कमी आने लगी । वहीँ कपड़ा, नमक , तेल, गुड़, हल, निंगाल के बने डोके, काष्ठ उपकरण-बर्तन आदि  भी यहाँ प्रचुर मात्रा में बिकते थे! तब जौहार, दारमा, ब्यांस, चौंदास घाटी के ऊनी माल के लिए तो इस मेले का विशेष रुप से इंतजार किया जाता था । उस काल में  गौरी और काली नदियों पर पुल नहीं थे। इसलिए अस्कोट के राजाओं द्वारा गोरी नदी पर कच्चा पुल बनाया जाता तो नेपाल की ओर से भी काली नदी पर पुल डाला जाता था। जौलजीवी का यह मेला चीनी आक्रमण के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ । तिब्बत का माल आना बन्द हो गया जिससे ऊनी व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा । काली नदी के तट पर जो बाजार लगते था, वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा हालांकि अब भी दन, कालीन, चुटके, पश्मीने, पँखियाँ, थुल्में आदि यहाँ बिकने आते हैं, लेकिन तब के व्यापार और अब में अन्तर बहुत हो गया है ।

ब्रिटिश काल में अस्कोट के राजा पुष्कर पाल द्वारा यह मेला अक्टूबर 1871 में शुरू करवाया गया था जिसमें शिरकत करने के लिए नेपाल व तिब्बत देश को मुख्य रूप से आमंत्रित किया गया! मेले में सबसे बड़ी समस्या यह रही कि तीनों देशों की मुद्रा का आपस में चलन कैसे हो अत: इसी मेले से तय किया गया कि तीनों देशों में एक दुसरे देश की मुद्रा को आसानी से चलाया जा सकता है! वर्तमान में भले ही भारतीय बाजार में न तिब्बती मुद्रा ही चलायमान है और न ही नेपाली मुद्रा लेकिन नेपाल में भारतीय मुद्रा बदस्तूर जारी है और वहां की यह मजबूरी भी है क्योंकि नेपाल की अर्थ व्यवस्था का सबसे बड़ा पोषक वर्तमान में भारत ही है!

(जौलजीवी गोरी व काली नदी का संगम, तिब्बत भारत का यह कभी बडा ब्यापार केंद्र था)

तीन देशों की अलग-अलग मुद्रा होने के बाबजूद भी ब्रिटिश काल में अंग्रेज इस मेले को सफलता पूर्वक चलाने में नाकामयाब रहे जिससे यह मेला कुछ बर्षो तक बंद रहा! लेकिन इसे पुनः प्रारम्भ करने आ श्रेय अस्कोट के तालुकदार राजा स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल को जाता है, उन्होंने ही यह मेला सन् 1914 में प्रारम्भ किया था, यद्यपि उस समय यह मेला धार्मिक दृष्टिकोण से ही प्रारम्भ हुआ तो भी धीरे-धीरे इसका जो स्वरुप उभरकर सामने आया वह मुख्य रुप से व्यवसायिक था । जौलजीवी भी कैलाश मानसरोवर के प्राचीन यात्रा मार्ग पर बसा है । स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल अस्कोट के ताल्लुकदार थे । 

जौलजीवी में काली-गौरी नदियों का संगम है और शिव का प्राचीन मंदिर स्कंदपुराण में भी वर्णित है कि मानसरोवर जाने वाले यात्री को काली-गोरी के संगम पर स्नानकर आगे बढ़ना चाहिये । इसलिए मार्गशीर्ष महीने की संक्रान्ति को मेले का शुभारम्भ भी संगम पर स्नान से ही होता है । इसके पश्चात् महादेव की पूजा अर्चना की जाती है । प्राय: कुमाऊँ में लगने वाले सभी मेलों की तरह इस प्रसिद्ध मेले का स्वरुप भी प्रारम्भ में धार्मिक ही था जो बाद में व्यापार प्रधान होता गया । चीनी आक्रमण से पहले तक यह मेला उत्तरभारत का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक मेला था । इस मेले में तिब्बत और नेपाल के व्यापारियों की सक्रिय भागीदारी होती थी । इसमें नेपाल के जुमली डोटी के व्यापारी सबसे अधिक आते थे बताया जाता है कि असकोट के पाल राजाओं ने ही यहाँ जैलेश्वर महादेव तथा अन्नपूर्णा देवी के मन्दिरों की स्थापना की और उन्हीं के द्वारा जमीनें मन्दिरों को दान में दी गयीं तथा इन मंदिरों में पूजा के लिए विधिवत पुजारी भी नियुक्त किये गए। 

 

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