Tuesday, August 19, 2025
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बिलुप्ति के कगार पर खड़ा है पर्वत क्षेत्र का कामटी मेला ‘नगदूण’

कीड़ा जड़ी से भी पौष्टिक,शक्तिबर्धक व निरोग है “नगदूण” औषधि। श्रावण माह में पर्वत क्षेत्र के जखोल में लगता हैं “नगदूण” का मेला।

(मनोज इष्टवाल 13 अगस्त 2020/12 अगस्त 2017 ट्रेवलाग)

छु मायाsती चोई ले
भानsला नगदूण ले
मुsले चाड़े जोई ले
भानsला नगदूण ले।
बस यही चंद शब्द तब मेरी समझ मे आए जब ये बहनें कामेटी की जात्रा मे जखोल गाँव के ऊपरी बुग्याल कामटे मे कुदाल से हरे पौधे की जड़ खोदकर उसमें आलू के से बिल्कुल छोटे-छोटे दाने खोद रही थी। यह घटना एक बार नहीं बल्कि दो बार मेरे साथ व मेरे मित्रों के साथ घटी। और इस सबसे 12 अगस्त 2017 व 13 अगस्त 2020 मे साक्षात्कार करवाने वाले हमारे मित्र जखोल गाँव के मालदार गंगा सिंह रावत हुए। पहली बार कामटी की इस जात्रा में सन् 2017 में  मेरे साथ मेरे दोनों मित्र वरिष्ठ पत्रकार स्व. दिनेश कंडवाल व स्व राजेन्द्र जोशी जी शामिल हुए जबकि सन् 2020 की जात्रा में यायावर घुमंतू समाजसेवी रतन सिंह असवाल जी व कुछ कुमाऊँ के मित्र ।  यह पोस्ट पुन:आपके सामने कुछ और महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ इसलिए साझा करने का मन है क्योंकि आज इसी नकदूण  की तलाश में वैज्ञानिक व जड़ी बूटी बिशेषज्ञ से लेकर बहुत से बॉटनी विभाग के प्रोफेसर तक केन्द्रीय हिमवती नंदन गढ़वाल  विश्वविद्यालय श्रीनगर से यहाँ जानकारी जुटाने पहुँच रहे हैं। कामटे की जातऱ उत्तरकाशी जनपद के पर्वत क्षेत्र के सुदूरवर्ती गांव जखोल में पारंपरिक रूप से हिंदू पंचांग के अनुसार 26-27 गते श्रावण माह में  22 गांव व चार पट्टियों पंचागाईं, अडोर बड़ासू, ऊपरी पंचगाईं द्वारा मनाया जाता है।

उत्तराखंड की अगर बात हो तो यहाँ की आवोहवा में जन्म लेने वाला हर प्राकृतिक संसाधन ही नहीं बल्कि जन मानस बोली भाषा और लोक संस्कृति कदम कदम पर सतरंगी रंग बदलती रहती है। गंगा जमुना संस्कृति का गढ़वाल हिमालयी क्षेत्र यूँ भी औषधि पादपों के नाम से विश्व विख्यात है। रामचरित मानस में वर्णित “संजीवनी बूटी” की तलाश में सुषेन वैध ने पवनपुत्र हनुमान को इसी हिमालयी भू-भाग में भेज लक्ष्मण की जान बचाई थी। लेकिन अफ़सोस कि हम ऐसी अमृत औषधि को आज तक नहीं ढूंढ पाए। मेरा मानना है कि पिंडारी ग्लेशियर से लेकर आटा-पीक तक या फिर अस्कोट से आराकोट तक जितनी भी उच्च व मध्य हिमालयी लोक समाज की दिनचर्या है वह औषधिया भंडारों की खान से लबालब भरा है। इन्हीं में जब बात उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के रुपिन–सुपिन नदी की गोद में बसे पर्वत क्षेत्र की होती है, तब यहाँ के विराट लोक सांस्कृतिक उत्सवों की वानगी व लोक समाज से जुड़े मेलों का हर अर्क यूँ चढ़ता है मानों इंद्र का शतरंगी धनुष हो।

22 गाँवों के पर्वत क्षेत्र में एक गाँव ऐसा है जिसकी आबादी आज भी एक हजार परिवार के आस-पास है। यहाँ के त्यौहारों की वानगी देखने के लिए दूर दराज क्षेत्रों से लोगों का यहाँ तांता लगा रहता है। विगत श्रावण मास के 27 गते सम्पन्न हुए नगदूण मेला जिसे कामेटी की जात्रा के नाम से जाना जाता है के पीछे का सच जब सामने आया तो आश्चर्य चकित रह गया।

पट्टी पंचगाई के जखोल गाँव में 26 गते श्रावण के शांयकाल होते-होते पूरे 22 गाँव पर्वत क्षेत्र के सैकड़ों स्त्री-पुरुष सोमेश्वर मंदिर प्रांगण में इकट्ठा होने शुरू हुए और देखते ही देखते ढोल बाजों के बीच तांदी गीत प्रारम्भ हुए। गीत कुछ पल के लिए रुके जरुर लेकिन फिर रात्रिभोज के बाद आँगन भर गया। मैंने जखोल के मालदार गंगा सिंह रावत व अधिवक्ता के के रावत को पूछा कि क्या ये रात भर योंहीं चलता रहेगा । जवाब कुछ यो मिला – हांजी सर ! आँगन में सुबह 4 बजे तक गायन नृत्य चलता रहेगा। 4 बजे बाद सभी महिलायें अपनी-अपनी कुदाल लेकर नगदूण खोदने जायेंगे। सुबह से दिन भर नकदूण खोदने के बाद दिन में 12 बजे दोपहर से गाँव के पुरुष लोग मेले की तैयारी करते हैं और जहाँ मेला स्थल कामेंटी है वहां ढोल बाजों के साथ पहुँचते हैं। आपको बता दूँ कि कामटे / कामती या कामेटी जखोल गाँव से लगभग दो से ढाई किमी. दूरी पर सरुका ताल के पास वाला स्थान है जहाँ फिर 4 बजे शांय तक 22 गाँव पर्वत का मेला जुटता हैकामटी की जात्रा में समस्त क्षेत्रीय महिलायें एवं पुरुषवर्ग द्वारा अपने परिधान व आभूषण पहनकर आते हैं जिनमें टोपी, लकटी, फरजी, सुनतन आदि पहनकर इसे उत्सव के तौर पर मनाते हैं। मर्दानी, फरजी, सदरी, ढांटूली, ढांटू, पछुडी,ऊन की काली सूतन, लौखटा (कमरबंद) व कोट व आभूषण के रूप में कुंडल या गोखुरू, गले में तिमोणी, नाक में नथबुलाक, गले में चंद्राहार, कमर में पेटी, हाथ में पौंछी, सिर में झालर, बालों पर झूटी, कानों में मुर्कियाँ व हाथ में कड़े–धागुलेचूड़ियाँ तथा पुरुष समाज में गहनों के रूप में चांदी के पौराणिक देव मालाएं, कानों में मुर्खुली, हाथों में धागुले इत्यादि पहनकर मेले में शिरकत करते हैं।

नकदूण नामक औषधि खोदने गयी महिलायें अपनी अपनी टोकरियों में नकदूण लेकर जब आती है तो कई लामण गीत भी गाती हैं जिनका मेला स्थल में स्वागत होता है और यहाँ जमकर तांदी नृत्य होता है। औसतन एक महिला लगभग दो से तीन किलोग्राम नकदूण ही खोद पाती हैं।

नगदूण 

औषधीय गुणों से भरपूर नगदूण या नकदूण  उच्च हिमालयन क्षेत्र में पाई जाने वाला पौधा है जिसमें सभी प्रकार की विटामिन के साथ पाचनतंत्र के लिए लाभदायक है और नगदूण  खाने के बाद भूख नहीं लगती है प्राचीन काल में लोगों को उच्च हिमालय क्षेत्र में अन्न उपजाने में कठिनाई होती थी, क्योंकि वर्ष में आधे से ज्यादा दिनों तक बर्फ से ढके रहते थे इसलिए नगदून ही एकमात्र भोजन की पूर्ति का एक मात्र विकल्प था। इसे भूख न लगने वाला पौधा भी कहा जाता है। स्थानीय लोग इसे कैंसररोधी भी मानते हैं। 

नगदूण पकाने की विधि 

4 बजे से प्रारंभ हुए मेले के समाप्त होने के बाद नकदूण को गर्म पानी के साथ खूब उबाला जाता है। उबालने के पश्चात इसके बाहरी छिलके उतारे जाते हैं। उबालने के बाद इसे पहले ओखली  फिर सिलबटे या मिक्सी में बारीक करके पीसा जाता है। फिर इसकी गोलियां बनाकर घी या शहद ले साथ खाया जाता है।  इसे कच्चा नहीं खाया जा सकता। कच्चे में यह जहर के समान होता है। इसकी खीर भी बड़ी स्वादिष्ट होती है। लेकिन इसका स्वाद शुरुआत में इतना अच्छा नहीं लगता जितना स्थानीय लोग बताते हैं। लेकिन हाँ… अगर आपने इसे दो या तीन बार खा दिया तो इसका स्वाद दांत व जीभ में काफी समय तक बना राहत है।  सिर्फ 27 गते सावन ही यह जड़ी निकलती है व इसी दिन इसे खोदकर खाया जाता है, जो साल भर तक आपके शरीर का तापमान हिमालयी क्षेत्र के अनुकूल बनाए रखता है! इसकी पौष्टिकता और पौरुषता महिला व पुरुषों के लिए बराबर काम करती है।  यह जड़ी बेहद शक्तिबर्धक मानी जाती है। नगदून से लोल (खीर) व घाण (गोलियाँ) बनाई जाती हैं। घाण शहद व घी के साथ खायी जाती हैं।

(नकदूण नामक औषधि)

नगदूण नामक जड़ी मुख्यतः सावन मास में सिर्फ और सिर्फ जखोल गाँव के बुग्याली ढालों में 27 गते सावन को ही प्रकट होती है! यह मूलतः हरे पत्तों वाले पौधों की जड़ होती है ! ठीक वैसी ही जैसे  बड़ासू पट्टी के डाट्मीर-धारकोट, गंगाड, पवाणीओसला गाँव की हर पर्वत शिखर से लेकर हर की दून तक पाई जाने वाली नागक्षत्री के पौधे से मेल खाती है। नागक्षत्री को कीड़ाजड़ी जैसा शक्तिबर्धक माना गया है व विगत कई सालों से इसका यहाँ जमकर दोहन भी हुआ है। लेकिन नकदूण अलग किस्म की जड़ी है क्योंकि यह सिर्फ सावन मास के 27 गते ही उत्पन्न होती है और वह भी सिर्फ जखोल क्षेत्र में। यह सफ़ेद रंग की आंवले या कंचे के आकार की होती हैं। या यूँ कहें बिलकुल लाल बारीक आलू की तरह के आकार के।

इसमें मुख्यतः किस तरह के आयुर्वेदिक औषधीय गुण होते हैं इसका अभी तक कहीं परीक्षण नहीं हुआ है लेकिन इतना जरुर है कि नकदूंण खोदने के लिए एक बड़ा मेला आज भी पर्वत क्षेत्र में बेहद प्रचलित है जिसे कामटी/कामेटी की जात्रा कहते हैं। यहाँ के लोगों का मानना है कि इसी को डांडे की जात्रा कहते हैं व इसी जातर का गीत उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी द्वारा उस दौर में गया गया, जब वे उत्तरकाशी जनपद में जिला सूचना अधिकारी के रूप में कार्यरत थे व उन्होंने गाया था- “डांडे की जातरा मेरी बिजुमा बाँठिया…ओडू आई नेडू मेरी बिजुमा बांठिया। लेकिन यह चिंतनीय है कि बदलते सामाजिक परिवेश के साथ यह ऐतिहासिक मेला सिमटता चला जा रहा है।  उम्मीद की जा सकती है कि 22 गांव व चार पट्टियों पंचागाईं, अडोर बड़ासू, ऊपरी पंचगाईं के लोग इसे बनाए रखने के लिए जल्दी ही कोई बड़ी कार्य योजना बनाएंगे ताकि उनका यह मेला फिर से बुलंदियाँ छू ले। 

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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