(मनोज इष्टवाल)
हे रज्जा, हिण्डवाणी कोट मा रैंद होला द्वी माळ,
आशा बड़ो होलो, हरि होलो छोटो हिंsदवाण।
शेर जन डुकरदन स्यो, पर्वत जन दिखेंदन,
चार पाथा भात खांदा द्वी पाथा को बाड़ी।
एक सेर घ्यून स्यो जोंखी मलासदन,
मुठ्योंन पठाळ तोड़दन जू, शेरूँ तैं कांधा उठै लौन्दन।
मालूँ मा का माळ होला, सिंघणी का जाया।
अब आप ही बताओ जिनका परिचय इस तरह मुसद्दी गढ़वाल श्रीनगर के तत्कालीन राजा मानशाह को दे रहे हों, वे वीर सूरमा कैसे होंगे? यह वह दौर था जब गढ़वाल की सेना अजेय थी। इसी दौर में महानायक सेनापति माधौ सिंह भंडारी, सेना नायक लोदी रिखोला, दोस्तवेग मुग़ल, जीतू बगडवाल, बर्त्वाल बंधु सहित गढ़वाल की विहंगम सीमा में नजीबाबाद किले के पास स्यालबुँगा किले के गढ़पति खड़क सिंह, अजमेर गढ़ के गढ़पति भंधो असवाल, चौंदकोट गढ़ के गढ़पति रिंगोड़ा, गुजडू गढ़ के गढ़पति भूप्पा गोरला और हिंदवाणी कोट का आशा हिंदवाण सहित कई वीर भड़ हुए। तब श्रीनगर गढ़वाल के राजा हुए मानशाही। जिन्हे मान शाह भी कहा जाता है।
दूसरी ओर हिमाचल सिरमौर में तब राजा मंधाता प्रकाश राज्य करते थे। वह गद्दी पर बैठे ही थे कि राज्य में एक गोड़ी राक्षस पैदा हो गया जिसने न सिर्फ जानवरों को अपितु मनुष्यों को भी खाना शुरू कर दिया। उसने भैंसों के तबेले, बकरियों की गोट की गोट साफ कर दी थी। और तो और औरतें घास लकड़ी को नहीं जा पाती न मर्द खेतोँ में बैल जोत पाते थे।
राजा मान्धाता प्रकाश इतने बेबस हुए कि उन्होंने अपना बिशेष दूत गढ़वाल श्रीनगर भेजा और कागळी लिखी, जिसमें राजा श्रीनगर मानशाह से अनुरोध किया गया था कि मेरे राज्य को गोड़ी नामक रागस (राक्षस) ने तबाह कर दिया है। मैं घोषणा करता हूँ कि आपके राज्य में जो भी आपका वीर भड़, गढ़पति, सेनापति या स्वयं राजा ही क्यों न हो यदि गोड़ी राक्षस से हमें मुक्ति दिला देगा तो मैं उससे अपनी राजकुमारी सुकेशा का विवाह कर आधा राज पाठ उसके नाम कर दूंगा। गोड़ी राक्षस ने मेरा रणी हाट बंजर कर दिया है।
राजा मानशाही ने कागळी पढ़ने के बाद अपने राजदरबारियों व मुसद्दियों से मंत्रणा की कि इस मुसीबत का कोई हल ढूंढे। सबने राजा को सलाह दी कि हिंदवाणी कोट के दो भाई आशा हिंदवाण और हरि हिंदवाण ही ऐसे वीर भड़ हैं जो यह काम कर सकते हैं क्योंकि दोनों ही तंत्र मंत्र के प्रकाण्ड व महारथी योद्धा हैं। यह घटना सन 1600 ई से 1605 ई. के आस पास की मानी जा सकती है क्योंकि राजा मान्धाता प्रकाश सन1600-1618 तक सिरमौर के राजा रहे जबकि राजा मानशाह 1597- 1605 ई. तक गढ़वाल रियासत के राजा हुए।
राजा मानशाह ने हुक्म दिया कि जितनी जल्दी हो हिंदवाणी कोट जाकर आशा हिंदवाण को मेरा आदेश सुनाया जाय। हिंदवाणी कोट तब मूलत: वर्तमान में पौड़ी गढ़वाल के चौंदकोट क्षेत्र के छामाखाल के ऊपर एक टीले पर हुआ करता था। ऐसा अनुश्रुतियों में जिक्र है। इसी के पास हिंदवाण जाति के ब्राह्मणोन् का गाँव अन्दखिल है। जब यह हुक्म आशा हिंदवाण तक पहुंचा तब यह वीर अपनी नौरंगी तिबारी से बर्बरा कर उठ बैठा, इसकी भुजाएं फड़फड़ाने लगी। उसे हुक्म ही राजा का ऐसा था कि अपना बख्तरी जामा पहनना जरूर लेकिन तनियां श्रीनगर आकर बाँधना। खाना चाहे घर ही खा लेना लेकिन पानी यहाँ आकर पीना।
राजज्ञा सुन आशा हिंदवाण ने मूंछो पर ताव दिया अपनी ऐड़ी हत्यारी रखी। घोड़े की जीन कसी। अपने भाई की ऐसी तैयारी देख हरी हिंदवाण आया और बोला – बड़े भाई, कहाँ की चला-चली है। आपकी छाती के बाल बरबरा रहे हैं, चेहरे पर ओज आ गया है आखिर किसके कुल का नाश करने जा रहे हो। आशा हिंदवाण बोलता है, तुझे जाते समय टोकना नहीं चाहिये था। फिर वह हरी हिंदवाण को पूरा किस्सा सुनाता है। हरी हिंदवाण कहता है, मेरे रहते आप जाओगे तो यह डूब मरने वाली बात है। फिर उसने बख्तरी जामा पहना, तलवार म्यान में रखी, घोड़े पर कोढ़ा मारा और श्रीनगर जाकर राजा से सिर नवाकर बोला कि आप मेरी गर्दन के मालिक हैं, हुक्म दीजियेगा। राजा सारा वृतांत सुनाता है और कहता है तुम्हें सिरमौर के लिए निकलता होगा।
लोक गाथाओं व आवजी समाज की जागरों में वर्णित यह वृतांत यहाँ आकर जरा और रोचक हो जाता है जब वह कहते हैं कि ये चार पाथे चावल का भात और दो पाथा मंडूवे का बाड़ी एक समय ख़ाता था। इससे आगे हरी हिंदवाण नौ दोण बोरा सामळ (अन्न) अपनी जेब में रखता है, चार दोण भट्ट अपनी टोपी के किनारों में रखता है और घोड़े में सवार होकर सिंह की भांति गर्जना कर सिरमौर के लिए चल पड़ता है। यह वर्णन अतिश्योक्तिपूर्ण लगता है लेकिन इसके पीछे का सच यह है कि इस वर्णन में राजपूती जोश सम्माहित होता था।
सिरमौर पहुँच कर राजा व प्रजा ने हरी हिंदवाण का बिहंगम स्वागत किया। उसे तरह तरह के पकवान् खिलाये और गोड़ी राक्षस वाली धौळा उड़यारी में लड़ने के लिए भेज दिया। दोनों में नौ दिन नौ रात युद्ध हुआ। जनता व राजा इस युद्ध के साक्षी बने। नौवें दिन जब गुफा के द्वार से खून ही खून गुफा के मुआने से बाहर निकलने लगा तब लोग व राजा भयातुर हो गए कि हरी हिंदवाण शायद मारा गया। जब हरि हिंदवाण बाहर आया तो प्रजा ने जयकारे लगाये। हरी हिंदवाण को राज भवन लाया गया जहाँ उसकी भूख मिटाने के लिए बकरे काटे गए। जैसे ही राजा को ध्यान आया कि उसकी राजकुमारी सुकेशी का विवाह व राज्य का आधा हिस्सा अब हरी हिंदवाण को देना पड़ेगा। उसने अपने राज्य के सालाहकारों से गुप्त मंत्रणा की और धोखे से उसके खाने में जहर मिला दिया। हरी हिंदवाण बेहोश होते होते अपनी कुलदेवी का स्मरण नहीं भूला। उसने अपनी बुक्साडी झोली से अमृत जड़ी निकाली और दांतो तले दबा दी। राज वैध व सबने जब देखा कि हरी हिंदवाण की सांस नहीं चल रही तब सबने उसे रस्सी और पत्थरों से बाँध कर सागर ताल में डाल दिया। आज सागर ताल झील रेणुका झील कहलाती है। कहते हैं माँ रेणुका को दया आयी व उसने उसके प्राण बचाये। वह आशा हिंदवाण के सपने में में गई और उसे सारा वृतांत बताया। आशा हिंदवाण ने यह खबर अपनी माँ को दी। बुक्साडी झोली, नाथ का चिमटा और अपनी अजय शमसीर रखी और रात दिन एक करके तीसरे दिन सुबह सपने में देखें सागर ताल जा पहुंचा। वहां आशा हिंदवाण देखता है कि हरी हिंदवाण की घोड़ी नजदीक ही पेड़ के नीचे बँधी है जो आशा हिंदवाण को देख हिनहिनाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करती है व बड़े बड़े आँसू टपकाती है।
आशा हिंदवाण घोड़े को पुचकारता है और सागर ताल में बड़े पत्थरों व रस्सियों से बंधे अपने भाई हरी हिंदवाण को मुक्त कराता है। भगवान परशुराम व माँ रेणुका को प्रणाम कर अपने हुंकार से पूरे सिरमौर को भयभीत कर देते हैं। दोनों भाई जो भी रास्ते में दिखता उसे मूली गाजर की तरह काटते हुए आगे बढ़ते। इस युद्ध का बर्णन लोकगाथाओं व जागरों में कुछ इस तरह बर्णित है :-
तौन बख्तरी जामो पर्याली मर्दों,तौन हूणी हुँत्याळी कर्याली मर्दो। तौका जामो की तणी टूटीन मर्दों। तौन क्याळा सी ग्वाबा रैंठेनी मर्दो, तौ माई मर्दूँ का मरदूँन मर्दों तख भंगलो बूतण कर्याली मर्दो।।
जब दोनों भाईयों ने बेरहमी से सिरमौर तहस नहस करना शुरू किया तब राजा मान्धाता प्रकाश ने अपनी बेटी सुकेशी को ढाल बनाकर अपनी रक्षा की। सुकेशी का विवाह हरी हिंदवाण से सम्पन्न कर राजा ने सम्पूर्ण पर्वत क्षेत्र, रवाई, जौनसार, बावर यानि टोंस पार का अपना आधा राज कालसी तक आशा व हरी हिंदवाण को दे दिया। राजा मानशाह ने यह रियासत इन दोनों के नाम कर दी और अटाल के नजदीक इन्होंने फिर हिंदवाणी कोट नामक बड़ा किला बनाया। कलांन्तर में रानी सुकेशी से हँसा हिंदवान ने जन्म लिया और इनकी अंतिम पीढ़ी भानू भौंपेला के रूप में मानी जाती है क्योंकि भयंकर अकाल के दौर में बूढ़े आशा हिंदवाण ने अपने पूरे परिवार के लिए अपनी प्राणों से प्यारी तीलू बाकरी काटी व उसे पकाते वक्त उसमें जहर मिला दिया। जहर से सब मर गए और आशा ने पूरा हिंदवाणी कोट आग के हवाले कर दिया। जब भानू भौपेला अपने मामाकोट से लौटता है तो यह दृश्य देख दुःखी हो जाता है। भानू भौपेला से जुडी लोकगाथा बाद में चर्चा में लाऊंगा। और साथ में बताऊंगा कि बचे खुच्चे हिंदवाणों ने कैसे अपनी जात छुपाकर रवाई में पनाह मांगी और क्यों वे हिंदवाण से इंदवाण बन गए। प्रसंग पसंद आये तो जरूर कमेंट में लिखिए ताकि मैं आपको आगे भानु भौपेला का इतिहास सुना सकूँ।