परीताल— उंटाधूरा की ट्रैकिंग खोल दो साहिब..।
(केशव भट्ट की कलम से)
वर्ष 1998 और 2011 में मुनस्यारी के जोहार घाटी के मिलम होते हुए उंटाधूरा दर्रा पार कर गढ़वाल में चमोली जिले के मलारी जाने का अभियान आज भी सुनहरी यादों में अकसर आते रहता है. इन दो अभियानों का यात्रा वृतांत का लेखा जोखा नैनीताल समाचार समेत काफल ट्री के पन्नों में दर्ज है. जोहार घाटी में यह पैदल यात्रा सिर्फ हिमालय को नापने की नहीं, बल्कि हिमवीरों के जटिल नियमों से दो-चार होने की भी थी.
हिमालय का ये दर्रा अपने आप में रोमांच से भरा बीते ईतिहास की कहानियों से रूबरू कराता है. मिलम गांव से आगे उंटाधूरा की गोद में पसरा परीताल हो या गंगपानी का विस्तार, आजादी से पहले कैलाश मानसरोवर यात्रा की अपनी कहानी बांचता सा महसूस होता है. उंटाधूरा दर्रे से गुजरने वाला यह प्राचीन ट्रैक न केवल व्यापार और तीर्थयात्रा का साधन था, बल्कि भारत-तिब्बत की सांस्कृतिक साझेदारी का प्रतीक भी रहा है. यह वह भूमि है, जहां आजादी से पूर्व तीर्थयात्रियों के कदम श्रद्धा से भरकर चलते थे. लेकिन 1962 की भारत-चीन युद्ध के बाद यह मार्ग बंद हो गया. न केवल फिजिकल रूप में, बल्कि हमारी सरकारी प्राथमिकताओं और सामूहिक स्मृति से भी. मुनस्यारी निवासी पर्वतारोही मित्र नरेन्द्र कुमार बताते हैं कि, मुनस्यारी के टूर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ने कई बार इस ट्रेक को आमजन के लिए खोलने की मांग की लेकिन शासन में उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की जैसी आवाज बन कर रह जाती है. हांलाकि उन्होंने फिर से एक बार केन्द्र में देश के मुखिया को पत्र भेज इस मार्ग को खोलने की मांग फिर से उठाई है. यह पत्र केवल एक पर्यटक मार्ग खोलने की याचना नहीं है, यह उस आत्मा को पुनर्जीवित करने की याचना है, जो वर्षों से हिमालय की चुप्पियों में कैद रही है.
मुनस्यारी से जोहार घाटी में गुजरने वाले मार्ग में रालम, ल्वां, पांछू, तिम्फू, मिलम ग्लेशियर के सााि ही दर्जनों ग्लेशियरों को जाने वाले रास्तों के खूबसूरत दृश्य आंखों में उतरते हैं. लेकिन इन दृश्यों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है वो आत्मिक दृश्य, जो ट्रैकर यहां अनुभूत करते हैं. यह मार्ग न केवल प्रकृति प्रेमियों के लिए स्वर्ग है, बल्कि वह पुल भी है जो वर्तमान को हमारे अतीत से जोड़ता है. आज जब सीमांत के गांव पलायन, बेरोजगारी और उपेक्षा की त्रासदी से जूझ रहे हैं, तब उंटाधूरा-परीताल मार्ग का खुलना एक नई शुरुआत हो सकती है।. यह न केवल पर्यटन और रोजगार का द्वार खोलेगा, बल्कि हमारी जड़ों, श्रद्धा और अस्मिता को फिर से जोड़ने का माध्यम बनेगा.
देखा जाए तो मुनस्यारी में पर्यटन व्यवसायियों के साथ ही पर्वतारोहियों की यह मांग दरअसल आर्थिक उत्थान की एक रणनीति से अधिक, सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता की परिकल्पना है. सीमांत गांवों के लोग, जो दशकों से पलायन, बेरोजगारी और उपेक्षा की त्रासदी झेलते आ रहे हैं, इस मार्ग के खुलने से न केवल रोजगार पाएंगे, बल्कि एक बार फिर अपने गौरवशाली अतीत से जुड़ पाएंगे. उंटाधूरा—परीताल मार्ग को खोलने की यह मांग, एक यात्रा की तरह है, बाहर से भीतर की यात्रा. बाहर से यह यात्रा हिमालय की घाटियों और ग्लेशियरों तक जाती है, लेकिन भीतर से यह यात्रा हमें अपनी जड़ों, अपनी संस्कृति, अपनी श्रद्धा और अपने स्वाभिमान तक ले जाती है.
अब वो समय ना जाने कब आएगा जब कि शासन-प्रशासन इस पुकार को केवल एक पत्र नहीं, एक ऐतिहासिक अवसर के रूप में सुने. वैसे मुनस्यारी के उपजिलाधिकारी द्वारा पर्वतारोहियों के इस पत्र को जिलाधिकारी को अग्रसारित करना, इस दिशा में एक अच्छा कदम है. लेकिन निर्णय की अंतिम मंज़िल तक यह पहल पहुँचे, यह जनप्रतिनिधियों, मीडिया, और प्रत्येक जागरूक नागरिक की सामूहिक जिम्मेदारी है. जब तक यह निर्णय राज्य और केंद्र स्तर पर गंभीरता से नहीं लिया जाता, तब तक यह सिर्फ एक फाइल में दबी याचिका बनी रहेगी.
आज जब हिमालय स्वयं अपने मौन में यह संदेश दे रहा है, आओ, मुझे फिर से पहचानो, तो परीताल की यह पुकार केवल एक ताल की नहीं, एक पूरी सभ्यता की पुकार है. इसे सुनिए, समझिए, और इस पर चलिए, क्योंकि यह रास्ता केवल पर्वतों के बीच नहीं, बल्कि हमारी अस्मिता के बीच से होकर गुजरता है.