(स्वदेश नेगी)
मैदानों से पहाड़ों की ओर पलायन संभवतः 1600-1800 के बाद अधिकांश देवी देवता भी पहाड़ों में आये, किंतु भगवान शिव एवं उनके गणों की पूजा के कई रूप गढ़वाली सभ्यता में पहले से ही प्रचलित थे। घंडियाल देव ग्राम ग्वाड़ एवं कोठगी के भी पूर्व से ही इष्ट देव थे। उनकी ही प्रतिवर्ष पूजा हेतु यह त्योहार अज्ञात प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। भारत के अधिकांश त्योहार फसल पकने के बाद की खुशी में मनाये जाते हैं किंतु बदी का मेला शायद एक मात्र ऐसा त्योहार है जो फसल को शीघ्र पकने की कामना से मनाया जाता है। और फसल पकने के लिये आवश्यक हल्की बारिश की भी इष्ट देव से प्रार्थना की जाती है। यह हल्की बारिश या आंधी तूफान के रूप में भगवान घंटाकर्ण (घंडियाल) के आशीर्वाद के रूप में आज भी मिलता है। कल रात भी हल्की बारिश हुई यह इस आस्था का प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमें भी बचपन में छाता लेकर मेला जाने को घर से कहा जाता था। देवता का महत्व ऐसा है कि आवश्यकता पड़ने पर जाने पर खातस्यूं पट्टी के चुरकंडी गांव वालों को भी दशकों बाद 8-10 साल पहले इस मेले का आयोजन करना पड़ गया था। बिडोलस्यूं के शुक्र गांव में भी बदी देवता या घंडियाल देव का स्थान है। शायद वहां भी कभी बदी का आयोजन होता रहा होगा।
सफल आरोहण एवं फिसलन के बाद मुस्कुराते बद्दी देव
बद्दी मेले का इतिहास –
ग्वाड़ -कोठगी के बद्दी मेले का इतिहास हजार वर्ष से भी पुराना माना जाता है। दोनो गांवों के पूर्वज एक ही थे और एक ही गढ़पति के क्षेत्र में घुमंतू खेती कर जीवन यापन करते थे। किंतु गेहूं की फसल अपने इसी पैतृक इलाके में आकर करते थे। ठंडा स्थान होने के कारण फसल देर में पकती थी तो अपने इष्ट देव को प्रसन्न करने हेतु घंडियाल देवता की पूजा करते थे। इन लोगों के इष्ट देव स्वामी घंडियाल देव (घंटाकर्ण देवता ) थे जिन्हें शिवजी का प्रमुख गण माना जाता है। वैशाख के महीने पूजा एवं कौतुक करके देवता को प्रसन्न करते थे। कौतुक में मुख्य स्थान बद्दी जाति के लोगों द्वारा विभिन्न प्रकार के नाच गान -करतब -और रस्सी पर फिसलने जैसा साहसिक करतब भी किया जाता था। इससे देवता प्रसन्न होकर आंधी तूफान और बारिश करके अपना आशीर्वाद देते थे और दैव योग से कुछ ही दिन में गेहूं की फसल तेजी से पक जाती थी। इससे इन लोगों का घंटाकर्ण देवता पर आज तक भी अटूट विश्वास है। घंडियाल देवता की यह पूजा वर्तमान दोनों गांवों की संयुक्त सीमा पर की जाती थी। (यानी आज के धौड़िया के किसी स्थान पर) इसी धौड़िया स्थान से घंडियाल देव दुख विपत्ति या खुशी के अवसर पर धात (ऊंची आवाज) लगाकर इस स्थान के दोनो ओर रहने वालों को सजग करते रहते थे।
कौन थे बद्दी —
बद्दी जाति के लोग मूलतः हिमालय की ऊंचाइयों में रहने वाले (संभवतः बद्रीनाथ धाम के आसपास के लोग थे। उसी क्षेत्र में जहां आज भी गद्दी (भेड़ बकरी चराने वाले) लोग भी रहते थे। गद्दी जाति के लोग अपने भेड़ बकरी लेकर हिमालय से तराई तक घूमते रहते हैं। उन्हीं की तर्ज पर बद्दी जाति (बद्री और गद्दी का मिश्रित अपभ्रंश) भी घूमते रहते थे।वहां भी घंटाकर्ण देवता की पूजा की जाती है। ये लोग गाना लगाने, नृत्य करने, एवं शारीरिक सौष्ठव के विभिन्न करतब करके लोगों का मनोरंजन करके जीवन यापन करते थे। दुस्साहसिक कार्य करने में पारंगत होते थे। एक समस्या भी थी कि तत्कालीन युवा बद्दी समाज की शादी बड़ी मुश्किल से हो पाती थी। शायद इनके जीवन यापन का ढंग रहा हो या अन्य कोई सामाजिक अवरोध। ये बद्दी लोग अपने गढ़पतियों को अन्य गढ़ो के बारे मे कयी सूचनाएं भी मुहैया करवाते थे। यही बद्दी लोग कालांतर में गढ़वाल क्षेत्र में कयी जगह स्थाई रूप से भी रहने लगे थे। घंडियाल देव में विभिन्न करतब एवं रस्सी पर फिसलने जैसा कार्य इनके दुस्साहसी और कौशलसम्पन्न होने के कारण किया जाता था।
त्यौहार की प्रसिद्धि –
पूर्व काल में इस त्योहार को सीमित एवं स्थानीय स्तर पर मनाया जाता था। इसलिये यह त्योहार बहुत अधिक प्रसिद्ध नहीं हुआ। किन्तु राजशाही के उदय के समय सन 1500 ई0 के आसपास देवलगढ को राजधानी बनाया गया। और राजधानी के उद्घाटन के समय विशाल कार्यक्रम आयोजित किये गये। ग्वाड़ कोठगी गांव से देवलगढ़ 4-5 किमी दूर ही है अतःएव यहां के लोगों ने राजा के मनोरंजनार्थ बद्दी फिसलाने का कार्यक्रम बनाया। यह कार्यक्रम देवलगढ़ के आसपास ही किसी स्थान पर किया गया। एक अविवाहित युवा बद्दी को प्रशिक्षित किया गया, किंतु आयोजकों ने रस्सी की लंबाई को बहुत अधिक बढ़ा दिया। युवा बद्दी हेतु काठ का एक बड़ा सा रथ बनाया गया था जिसपर बैठकर उसे फिसलने के करतब को अंजाम देना था। रस्सी की लंबाई देखकर युवा बद्दी को हैरानी हुई और राजा से जाकर कहा कि आप मेरी शादी करेंगे तो ही मैं यह कार्य करूंगा। राजा ने वचन दिया। धूमधाम से युवा बद्दी को नहलाया गया। बांदे दिये गये। मंगल गीत गाये गये। इष्टदेव घंटाकर्ण स्वामी की पूजा की गई। और निर्धारित स्थान पर बद्दी अपने काठ के रथ पर बैठ कर फिसलने के खतरनाक एवं दुस्साहसिक कार्य को सफलता पूर्वक पूरा किया। जनता हर्षित हुई। राजा प्रसन्न हुये। युवा बद्दी का ढोलदमाऊं एवं अन्य वाद्य यन्त्र बजाकर तत्काल विवाह किया गया। राजा ने अमूल्य वस्त्र एवं धनधान्य दिया। अपने निकट बैठा कर परम सम्मान किया, रहने के लिये कोल्ठा गांव के समीप गांव बसाने के लिए स्थान भी दिया। और पुनः तीन दिन बाद पनोण के दिन पुनः फिसलने को कहा। इस दिन बद्दी की पीठ पर गांव वालों ने कलेऊ के रूप में विभिन्न मिठाइयां रखी। बद्दी ने फिर सफलतापूर्वक आरोहण एवं फिसलन किया। राजा ने खतरनाक खेल के दृष्टिगत गांववालों को रस्सी की लंबाई सीमित 500 मीटर करने को कहकर प्रतिवर्ष घंडियाल देव की पूजा का आदेश दिया और त्योहार की तिथि वैशाख के महीने तीसरे सोमवार को निश्चित की। प्रतिवर्ष मेले के संबंध में राजा को सूचना देने को भी कहा। और इस प्रकार बद्दियों की कृपा से घंडियाल देव घंटाकर्ण स्वामी के इस त्योहार को पूरे क्षेत्र में प्रसिद्धि मिल गयी।
पर्यटन ग्राम खीरसू अपनी खूबसूरती के साथ साथ अपनी सांस्कृतिक परंपरा को सदियों से जीवित रखे हुए है। खिरसू मेला इसका उदहारण है। ये मेला प्रतिवर्ष मनाया जाता है, जिसमे प्रवासी लोग बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं। ग्रामवासियों के लिए यह एक सांस्कृतिक उत्सव है, इस उत्सव के लिए प्रत्येक ग्रामवासी बेसब्री से इंतेज़ार करता रहता है, अपने घरों का रंग रोगन करता है और धूमधाम से इस मेले का आयोजन करते हैं। काठ के बने बद्दी को सुख समृद्धि की कामना के साथ लगभग 150 मीटर रस्सी पर फिसलाया जाता है। अगर इसके इतिहास पर नजर डालें तो उत्तर भारत में पहले बेदारत, ‘बर्ता’ और बदवार के नाम से मशहूर रस्सी पर मानवाकृति फिसलने वाले इस त्यौहार को अब ‘कठबद्दी’ के नाम से जाना जाता है। ऐतिहासिक रूप से, 100 से ज़्यादा गाँव इस त्यौहार को मनाते थे। आज, पौड़ी जिले के सिर्फ़ दो गाँव- ग्वाड़ और कोठगी- इसे बदले हुए स्वरूप में मनाते हैं।
फोटो साभार :- प्रीतम नेगी