क्यों नहीं होती थी टिहरियाल और गंगाडी-सलाणी (पौड़ी) में आपसी रिश्तेदारी..?
(मनोज इष्टवाल)
तैडी की तिलोखा व अमरदेव सजवाण की प्रेम-अगन से जुलसा था, गंगा के दोनों तटों पर बसे टिहरी व पौड़ी के लोग का वजूद !
कालांतर के इस प्रेम ग्रन्थ ने सदियों तक बाँध दी थी आपसी ध्वेस की सीमाएं…!
बांकी लो तैडी की तिलोखा
बांकी लो सेरा की मिंडवाळी
बांकी लो कूली का
ढीस्वालि……………………………….!
आज भी कभी पुरानी महिलाएं जब इन अतीत के पन्नों को अपने मुखारबिंदु में उड़ेलकर प्रस्तुत करती हैं तो लगता है जैसे किसी ने दिल चीरकर रख दिया हो। मैं भी जब अपने बारह पंद्रह साल पुराने अतीत में गया तब मुझे नगर गॉव (असवालस्यूं) का वह इत्तेफाक याद आ गया जिस दौरान में अपनी खोजबीन में “गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका” असवाल एक राजा..! नामक किताब के लेखन हेतु शोध पर व्यस्त था।
वह गर्मियों की शाम और असवाल जाति थोकदार रणपाल असवाल द्वारा सन 1500 ई. में बसाई अपनी राजधानी नगर गॉव का चबूतरे का वह पीपल पेड़ याद आ गया जहाँ एक बुजुर्ग महिला हवा के हलके-हलके झोंकों में आँखें बंद करके यह गीत गा रही रही थी। मेरे कदम वहीँ ठिठक गए और इस प्रेम गाथा की प्यास में मेरा दिल तब इतना आतुर हुआ कि मैं तीसरे ही दिन मनियारस्यूं (शायद बणेलस्यूं) पट्टी स्थित तैडी गाँव जा पहुंचा जिसके प्रधान तब शायद मनमोहन तडियाल हुआ करते थे।
मैं तैडी के उस नवल (कुंवे) को भी देखने गया जिसका जल आज भी परित्याज्य है। मैं तैडी गाँव के खंडहर किले की उन बुलंद दीवारों को भी देखने गया जो अपने अतीत की परछाई में मुझे रानीनिवास (जहाँ महिलाएं रहती थी) नजर आई। और जहाँ से दीये की टिमटिमाती रौशनी की लौ की तपिस भरपूर के क्वाठा (किला) तक पहुँचती थी जिसका अनुशरण कर यहाँ का वीर भड अमरदेव सजवाण मसक (चमड़े से निर्मित पानी में तैरने का आवरण) पहनकर गंगा पार कर तिलोखा से मिलने तैडी के इसी रानीगढ़ में आया करता था। मैं अमसारी भी गया जहाँ पैडूल भंडालू के बुटोला थोकदारों व तैडी के तडियाल थोकदारों ने घेरकर अमरदेव सजवाण नामक वीर भड की तलवारों कुल्हाड़ियों से निर्मम हत्या की थी, और तिलोखा अपने प्रेमी के जीवन दान की भीख मांगती रही। अंत में अपने प्रेमी को अपनी आँखों में इस तरह क़त्ल होते देख इस तिलोखा ने अपने स्तन काटकर इसी नवल (कुंवें) में डाल दिए थे और श्राप दिया था कि तैडी में कोई बांद (खूबसूरत लड़की) पैदा न हो। यह अकाटय सच है कि एक सदी तक उस दौर में जो भी खूबसूरत लड़की तैड़ी गाँव में जन्म लेती थी वह जन्म से ही खंडू हुआ करती थी। बर्षों तक यह श्राप तडियाल थोकदारों ने भुगता। कहा जाता है कि एक सदी पूर्व इस श्राप से उऋण होने के लिए तड़ियालों ने तिलोखा की नारायण-बली की वो श्राप मुक्त हुए।
प्रेम गाथा बेहद लम्बी है किसी मित्र को अगर इससे सम्बंधित पूरी जानकारी की आवश्यकता हो तो मैं जितना ढूंढ पाया उन्हें जरुर बताऊंगा। तब गढ़वाल नरेश की राजधानी श्रीनगर हुआ करती थी और तडियाल (तैडी गढ़), बुटोला (पैडुल/भंडालू), व सजवाण (भरपूरगढ़) थोकदारों का राजदरबार में बड़ा रसूक हुआ करता था।
कहते हैं तब डांडा नागराजा की पूजा की शुरुआत ब्यास चट्टी में नयार व गंगा के संगम पर हुआ करती थी व बहुत बड़ा मेला लगता था जिसमें टिहरी व पौड़ी के थोकदारों भड़ व रसूक वाले लोग शिरकत किया करते थे. उस समय भी कुछ ऐसा ही हुआ था क्वीली गढ के गढ़पति भरपूर किले के अधिपत्ति अमरदेव सजवाण के पिता उनकी माँ सहित व तैडी गढ़ के गढ़पति तिलोखा के पिता भी सपत्नी मेले का शुभारम्भ करने पहुंचे थे। इत्तेफ़ाक से दोनों की पत्नियां गर्भवती थी। दोनों अच्छे मित्र भी थे और दोनों ने देवता के आगे कसम ली कि जिसके घर लड़का पैदा होगा या जिसके घर लड़की पैदा होगी हम दोनों इस सम्बन्ध को रिश्ते में बदल देंगे।
कालगति को कुछ और ही मंजूर था दोनों के आपसी सम्बन्ध बिगड़े तो रिश्ते टूटना कालांतर में स्वाभाविक था। तिलोखा बेहद रूपसी थी उसकी खूबसूरती के चर्चे आम थे। तब पैडुल-भंडालू के बुटोला भी रसूकदार थे। सात भाई बुटोलाओं की तलवारबाजी के चर्चे श्रीनगर दरवार तक प्रसिद्ध थे। तिलोखा के पिता ने तिलोखा की मँगनी यहीं बुटोला परिवार में कर दी। लेकिन तिलोखा की माँ वह राज दिल में न रख सकी जो उसके गर्भ में पलने के समय उसके पिता ने अमरदेव सजवान के पिता को वचन में दिया था। उधर जब तिलोखा की मंगनी की बात भरपूर गढ़ पहुंची तो अमरदेव सजवाण की माँ भी यह बात बेटे से न छुपा सकी।
अमरदेव सजवाण एक तो वीर भड़ दूसरा राजपूती हुंकार…¡ उसने तय कर लिया कि कुछ भी हो वह तिलोखा को अपनी रानी बनाकर छोड़ेगा उधर तिलोखा भी अमरदेव के ख्वाबो-ख़याल में डूबने लगी। फिर मेला लगा और अमरदेव चूढी-फोंदी बेचने वाले के भेष में मेले में पहुंचा। तिलोखा को उसकी अंतरात्मा ने पहचान लिया और तिलोखा ने अमरदेव सजवाण को…! कहते हैं यहीं से प्रेम प्रगाढ़ हुआ और परवान चढ़ा, लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था आखिर यह प्रेम बलि चढ़ ही गया।
इसके बाद गंगा पार टिहरी व गंगा-सलाण (गंगाडी) में गंगाजी ने इतनी गहरी खाई पाट दी कि न पौड़ी की रिश्तेदारी टिहरी होती न टिहरी की पौड़ी। फिर वक्त ने सदियों बाद करवट बदली। 09 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य बनने के बाद गढ़-कुमाऊं व टिहरी-पौड़ी जैसे मुद्दे राजधानी देहरादून बनते ही गौण होने लगे तो स्वाभाविक हुआ आपसी रोटी-बेटी से रिश्तेदारियां प्रगाढ़ होने लगी। आज कई बहुवें टिहरी की पौड़ी में और पौड़ी की टिहरी में हैं यह विषाक्त अब मिट चुका है। शायद तडियाल व सजवाण अब रिश्तेदारी शुरू कर चुके हों। होनी भी चाहिए नीति-नियंता यह समाज खुद बने और दुस्वप्न सुंदर भविष्य की तलाश में उज्जवल हों यही प्रयास होना भी चाहिये। वैसे कहा तो यह जाता है कि हर 100 साल बाद मानव अपनी मृत देह के साथ योनि भी बदलता है लेकिन तैडी और भरपूर की इस प्रेम-गाथा ने मन बदलने में सदियाँ लगा दी। अब जहाँ पौड़ी वालों की पसंद में टिहरी की बहुयें ज्यादा पसंद हैं वहीँ टिहरी के कई क्षेत्रों में पौड़ी के सरकारी सेवारत युवा भी पहली पसंद बन रहें हैं। वर्तमान परिवेश में टिहरियाल और गंगाडी-सलाणी (पौड़ी) में आपसी रिश्तेदारी के साथ साथ गढ़वाली व कुमाऊंनी विवाह भी रिश्तों की प्रगाढता बढ़ा रहे हैं।