लगभग 50 प्रतिशत गढ़वाली व 50 प्रतिशत हिंदी भाषाई इस फ़िल्म में यह अनूठा प्रयोग।
मीठी… शब्द गढ़वाली नहीं फिर भी मिठास से लवरेज।
(मनोज इष्टवाल)
फ़िल्म कोई भी बने या बनाये उसमें नाम सुनहले पर्दे पर उभरने वाले कलाकार कमाते हैं या फिर निर्देशक व तीसरे में निर्माता। बेचारा पटकथा लेखक दूर तक नजर नहीं आता। हाँ अगर फ़िल्म फ्लॉप हो गई तो उसकी स्क्रिप्ट व पटकथा को कोसा जाता है और पटकथा लेखक गाली ख़ाता है। फिर निर्देशन की कमियां व अंत में अभिनय की कमियों का बखान होता है। दोनों ही बिषयों में निर्माता अंत में शामिल हो जाता है। फ़िल्म चली तो निर्माता मालामाल हो गया नहीं चली तो बेचारा कंगाल हो गया। यह मैं नहीं कह रहा बल्कि हर दर्शक कहता है। निर्माता के साथ दर्शकों की ख़ुशी और गम का इजहार जुडा ही होता है।
कलर्स चेकर्स इंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड ने जो सब्जेक्ट इस फ़िल्म के माध्यम से दर्शकों के समक्ष रखा उसने सिर घुमाकर रख दिया। मुझ जैसा व्यक्ति भी सोच में पड़ गया कि एक खानपान को लेकर भी कोई फ़िल्म बन सकती है क़्या? लेकिन फ़िल्म निर्माता वैभव गोयल जो गढ़वाली मूल के न होते हुए भी गढ़वाली में फ़िल्म बनाने का दुस्साहस कर बैठे, को सैलूट…! जिन्होंने यह नया प्रयोग बड़े साहस के साथ किया।
अब आते है फ़िल्म के पटकथा लेखक धर्मेश सागर पर…। फ़िल्म के तीजर प्रमोशन पर उमड़ी भीड़ को देख लग रहा था कि जिसने इस फ़िल्म की पटकथा लिखी होगी वह जाने कैसा होगा? धर्मेश जब मंच पर बुलाये गए तो मैं आवाक था। आश्चर्यमिश्रित हृदय के साथ मैं बोल पडा – अरे जिस धर्मेश को मैं बरसों से ढूंढ़ रहा हूँ क़्या यह वही है! खैर मंच से उतरने के बाद जब फ़िल्म के संगीतकार अमित जी ने मेरा परिचय धर्मेश से करवाया तो धर्मेश खुद ही बोल पड़े। इष्टवाल जी ने शायद पहचाना नहीं। आपके जलवे पौड़ी से देखता आ रहा हूँ। बस धर्मेश का इतना कहना था कि मैं बैक गेयर में आज से लगभग 30 बर्ष पूर्व पौड़ी के उस परिवेश में पहुँच गया जहाँ धर्मेश सागर की पटकथा पर “तैड़ी की तिलोगा” नाट्य मंचन हो रहा था। मैं तभी से धर्मेश का फैन था।
धर्मेश की पटकथा पर केंद्रित गढ़वाली फ़िल्म ‘मीठी‘ आजतक जितनी भी गढ़वाली फ़िल्में बनी उनसे इत्तर पटकथा के साथ बड़े पर्दे पर दिखने को मिली। पर्दे पर ‘meethi‘ का कमाल देखकर मुंह से शब्द निकलते रहे “वाह”…! अरे… ओहो इत्यादि।
अभिनेता से निर्देशक बने कांता प्रसाद ने फ़िल्म में उस हार संभावना को तलाशा है जो संभव हो सकता है। उन्होंने अभिनय में मोहित डिमरी, मेघा खुगशाल जैसे नये चेहरे प्रस्तुत किये। जब तक ये चेहरे पर्दे पर उभरकर नहीं आये थे तब तक यही लग रहा है कि कहीं कांता प्रसाद व वैभव गोयल ने स्क्रीनिंग के समय बड़ा रिस्क तो नहीं ले लिया। लेकिन अपने दमदार अभिनय से इन नवांगतुकों ने पर्दे पर वाह-वाही लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
फ़िल्म का मजबूत पक्ष
यों तो “मीठी” शब्द गढ़वाली शब्द सम्पदा का शब्द है ही नहीं। मीठे को गढ़वाली में अगर बोला जाय तो वह ‘मिट्ठी‘ कहना ज्यादा उपयुक्त रहेगा लेकिन हो सकता है फ़िल्म को गढ़वाली-हिंदी मिक्सर देने के कारण इस शब्द को फ़िल्म प्रोडयूसर, डायरेक्टर व पटकथा लेखक ने वार्ता के बाद फाइनल किया हो। रलौ-मिसौs एक शब्द गढ़वाली का है जो हर खांचे में फिट बैठता है। वह चाहे मिट्टी-गारे का मिश्रण हो, रेत सीमेंट का या फिर मिक्स दाल का व मसालों का…। उसकी ख़ुशबु व खूबसूरती के लिए मुझे लगता है ‘मीठी‘ शब्द ने यहाँ जन्म लिया है।
फ़िल्म आज तक बनने वाली जितनी भी गढ़वाली भाषाई फ़िल्में हैं, उन सबसे हटकर पटकथा लेकर अपने को प्रस्तुत करती नजर आई है। जहाँ हर एक इसके गढ़वाली व हिंदी के सामान्तर प्रारूप को लेकर चर्चा करता नजर आया है कि यह गढ़वाली फ़िल्म कहाँ से है? वहीं मुझे लगता है फ़िल्म मेकर्स ने इसे बहुत अलग अंदाज इसलिए दिया है ताकि इसे उत्तराखंड ही नहीं भारत बर्ष का हर गढ़वाली व हिंदी भाषाई व्यक्ति देख सके व उसका मर्म समझ सके।
इसका दूसरा मजबूत पक्ष यह है कि इसके डायलॉग डिलीवरी में बिशुद्ध गढ़वाली इस्तेमाल में लाई हुई है। एक एक शब्द खानों में बेहद शुद्ध रूप से छनकर आये हैं। यह बोली भाषाई मजबूती का स्वरुप कहा जा सकता है। इसमें एक गेम प्लान यह भी नजर आता है कि राज्य ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार भी गढ़वाली अन्न को विश्व स्तर तक ले जाने में पूरी शक्ति के साथ काम कर रहे हैं। मिलेट्स को आगे बढ़ाने के लिए राज्य व केंद्र सरकार की लखपति दीदी पहल भी इसका दूसरा स्वरुप कहा जा सकता है। ऐसे में निर्माता, निर्देशक व पटकथा लेखक ने इस पक्ष की मजबूती का जो खेला, खेला है, वह लाजवाब है।
अभिनय क्षेत्र
मुख्य किरदार के रूप में मीठी अभिनय कर रही बड़े पर्दे पर पहली बार अपना भाग्य आजमाने वाली औसत कद काठी व रूप सज्जा की मेघा खुगशाल ने उन बड़े नामों को आईना दिखाया है, जो रूप सज्जा से परिपूर्ण बरसों से इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं। मेघा का बेजोड़ अभिनय फ़िल्मी पर्दे पर उभरकर आया है। उसका प्रतियोगिता में भाग लेते हुए अपने को दब्बू दिखाना, तानों पर वास्तविक रिएक्ट करना। आँखों में स्वाभाविक आंसुओं को लाकर आँखों के अंदर ही पी जाना। यकीन मानिये लाजवाब था। अभिनेता मोहित डिमरी अपने छोटे किरदार में भी अपने को साबित करते दिखे।
धमाका न्यूज़ के सीईओ व एंकर की भूमिका में गढ़वाली फिल्मों व रंगमंचों पर अपनी छाप छोड़ने वाले जाने माने कलाकार पदमेन्द्र रावत ने अपने डायलॉग्स से साथ पूरा इन्साफ किया व अपने बेजोड़ अभिनय से फ़िल्म की क्यूरेसिटी बनाये रखी।
फ़िल्म का कमजोर पक्ष
फ़िल्म लगभग 20 से 25 मिनट तक यह साबित करने में असमंजस के भाव पैदा करती रही कि आखिर फ़िल्म कहना क़्या चाहती है। मीठी को जिस तरह पर्दे पर लाया गया वह शॉट्स मेरे हिसाब से NG शॉट था। उसके इंट्रो को फिल्माता यह शॉट कैमरा की कमियां दर्शाता नजर आया। और तो और इतनी बड़ी आइकन जब मंच पर लाई जा रही है उसका पीछा करने के लिए कोई कैमरा नहीं दिखता। कैमरा जर्क यूँ तो कई जगह हैं लेकिन यहाँ ज्यादा दिख रहा है। फ़िल्म कांसेप्ट के आधार पर इसे प्रस्तुत करने में कहीं चूक हुई है, जबकि फ़िल्म का कांसेप्ट एकदम हटकर है।
एडिटिंग में कलर मिक्सर, मीठी को पर्दे में देर से लाना, वीआईपी गेस्ट की भूमिका में एक अफ्रिकन की ख़राब सी इंट्री, मास्साब को पता न होना कि पत्नी गर्भवती है, मास्साब जब बच्चों को पढा रहे हैं, तब स्कूल के कमरों में ताले लटके होना। मास्साब स्कूल के गेट पर ही हर्ट अटैक से मर जाते हैं और स्कूल स्टॉफ को खबर नहीं। फ़ूड प्रतियोगिता में खुले बालों से पकवान तैयार करवाना। गढ़वाली मिलेट्स की परफेक्ट अर्थात सम्पूर्ण थाली को प्रस्तुत न कर पाना, जखोल गाँव की छत्तों में फैली दालों को व दाल छाड़ते, कूटते कैमरे का प्रॉपर सदुप्रयोग न होना कहीं न कहीं आर एंड डी की कमी नजर आती है। वस्त्र विन्हास में भी थोड़ा सा कंजूसी नजर आई है।
प्रशंसनीय।
गीत लिखे गाये व संगीत पक्ष बेहद मजबूत नजर आया। सुप्रसिद्ध गायक पवन राजन व विवेक नौटियाल ने बड़ी खूबसूरती से अपने गीत गाये हैं। थीम सांग्स फ़िल्म के आधार पर परफेक्ट हैं।
बहरहाल इस फ़िल्म में साकारात्मक पक्ष नाकारात्मकता से कई ऊपर उठकर आये हैं। इस फ़िल्म की भव्यता यह दर्शाने भर को काफी है कि आने वाला कल उत्तराखंडी की फिल्म इंडस्ट्री के लिए बड़े आयाम रचने वाला है। फ़िल्म निर्माता वैभव गोयल जल्दी ही इस फ़िल्म को घर-घर पहुंचाने के लिए OTT प्लेटफार्म पर लायेंगे लेकिन उस से पहले मेरा आप सबसे अनुरोध है कि परिजनों के साथ जाएँ व इस शानदार फ़िल्म को गढ़वाली ही नहीं बल्कि हर हिंदी भाषी व्यक्ति भी जाकर देखे। मेरा दावा है यह फ़िल्म आपको जरूर गढ़वाली मिलेट्स का स्वाद चखने के लिए लालायित करेगी। यह पहली ऐसी फ़िल्म है जिसमें अभिनेता व अभिनेत्री के बीच कोई रोमांस नहीं है लेकिन फिर भी साफ जाहिर होता है कि यह चाहत तो है लेकिन देवतुल्य…।