(मनोज इष्टवाल)
तुलसीदास कृत रामायण में ढोल, गंवार, पशु. शूद्र, नारी…. पर जितना हो-हल्ला राजनेताओं ने पिछले बर्ष जातिगत कटा, वह सब जानते हैं, लेकिन सच हमेशा कडुवा ही होता है। सच हारता दीखता है लेकिन हारता नहीं है। ठीक ऐसा ही कुछ इस प्रकरण में मुझे भी बदलते दिखाई देता है। विगत 50 बर्षों में जितने संक्रमण काल से उत्तराखंड का लोकसमाज व लोक संस्कृति गुजरती हुई तेजी से आगे बढ़ी है, वह शायद ही किसी अन्य समाज में हुआ हो!
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से पहले गाँव उजड़ने शुरू हुए, फिर खेत खलिहान बंजर होने और अंत में लोक समाज का सबसे मजबूत ताना-बाना घर गृहस्थी व परिवार ने बिखरना शुरू कर दिया। जिसका सबसे बड़ा दोषी पुरुष समाज ही है क्योंकि उसी ने रुपहले व सुनहरे भविष्य की चकाचौंध में अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा व अच्छा रोजगार देने के लिए सबसे पहले बाहर निकलना शुरू किया। अन्य मैदानी समाज के साथ कसमकश में उसे ही लगने लगा कि आखिर पहाड़ ने हमें दिया क्या है? गंगा के हम मायके वाले हैं लेकिन हमारे भाग्य में गंगा माँ रेती व गंगलोडे (गोल पत्थर) छोड़ गयी व हमारी सारी उपजाऊ मिटटी मैदानों को प्लावित करती चली गयी। वहां के खेत अन्न से लहलाये व घर धन से …! लेकिन मेरी माँ, दादी, काकी और फूफू, बहनों के हिस्से में अगर कुछ आया तो जी तोड़ मेहनत के बाद बमुश्किल 06 माह के लिए कुछ मंडुआ, झंगोरा, कौणी, गेंहू व चावल …! वो खेतों में दिन भर तपती रहती. ऊँची चोटियों व गहरी खाईयों में घास लकड़ी तलाशती रही और कई बार इसी उपक्रम में असमय मौत के आगोश में समा गई।
मर्द समाज का क्या….! हल लगाया घर आ गए, नौकरी की पेंशन आ गए. बीडी-सिगरेट फूंकी दिन भर तलाश खेले और शाम को गप्पिया कर घर में बीबी के सर चढ़ गए कि अभी तक तेरा खाना नहीं बना। कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि घर में राशन पानी की हालत क्या है? बेचारी नारियां कभी बच्चों के साथ रोज सताई गयी, कभी घर परिवार के साथ तो कभी-कभी अचानक आये मेहमान के साथ ! लेकिन फिर भी पारिवारिक ताने-बाने को जोड़े रखने के लिए मुस्कराती रही और सब कुछ निभाती रही।
आज से पूर्व 30 से 50 बर्ष पूर्व की ज्यादात्तर बहुएं सासू की ज्याद्त्तियों से परेशान रही, जबकि इसके बाद सासू माँ कहलाई जाने लगी है, ससुर पिता कहलाये जाने लगे हैं, जेठ भैय्या हो गए और लेकिन देवर व ननद वही रहे जो पहले थे। सासू की सताई बहुएं अब सासू के लिए ज्यादा मुसीबत बन गयी हैं। समय का काल चक्र भी तेजी से घूमता है. वर्तमान के लगभग दो दशकों ने पूरे पहाड़ के ताने-बानों की परिभाषा ही बदलकर रख दी है। जब से हमने अपनी माँ बहनों को अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य की चिंता के साथ अपने पहाड़ी लोकसमाज की मान्यताओं, ताने-बाने से दूर कर उनके कदम मैदानी भाग में रखवाए तब से हमने तरक्की अवश्य की. हमारे बड़े महानगरों में छोटे बड़े मकान बनने शुरू हो गए। हमारे बच्चे गढ़वाली-कुमाउनी बोली-भाषा बोलने ही भूल गए. आखिर बोले भी कहाँ से हमने अपने बच्चों को पहले अंग्रेजी में व्हाट इज युअर नेम सिखाया फिर एक दूसरे की देखा-देखी में अंग्रेजी स्कूलों के एटिकेट्स सिखाने शुरू करवा दिया। मर्द ने आठ घंटे की नौकरी को 12 घंटे में तब्दील कर दिया लेकिन कई धर्मपत्नियों ने मर्द की इस पीड़ा को समझने की कोशिश नहीं की। ज्यादात्तर पत्नियों ने खुद भी हाथ-पाँव मारकर नौकरी करना शुरू किया ताकि हम अपने बच्चों को अंग्रेजी संस्कारों में ढाल सकें। बहुत मेहनत रात दिन करते रहे. बच्चे ज्योंही इंटर पास होते उनके लिए कोचिंग इंस्टिट्यूट तलाशने शुरू किये। फिर बड़े- बड़े नामी शिक्षण संस्थानो में विभिन्न कोर्सों हेतु कर्जा दाखिला दिलवाया….और जब बच्चे एमएनसी में नौकरी करने लगे तो वहीँ अपने पसंद की शादी कर दिए या फिर लिबइन में रहने लगे। बेचारे माँ बाप….! न घर के रहे न घाट के ! बोया पेड़ बबूल का फल कहाँ से होए ?
इस सब उपक्रम में वह गाँव से बिमुख तो हुआ ही लेकिन ग्रामीण सामाजिक ताना-बाना चाचा, ताऊ, भाई-बहन व पारिवारिक नाते रिश्ते भी दूर बहुत पीछे छोड़ चूका है। अब जब बच्चों की बेहय्याई ने हमें कहीं का नहीं रखा तो हमें गाँव याद आने लगा। वह मीलों फैली सरहद, एकड़ों खेत, स्वच्छन्द हवा, पनघट, ठट्ठा-मजाक, गाँव के पंडों- घड़ियाला, और वो सामूहिक नृत्य? लेकिन जाएँ कहाँ …मकान तो खंडहर हैं, खेत बंजर…! जब धर्मपत्नी को बोला कि छोड़ गाँव चलते हैं तब तक धर्मपत्नी अपना मायका भी वहीँ पड़ोस में बसा चुकी थी। अब बच्चे भी मामा-मामी, मौसी-मौसा, नानी-नाना इत्यादि को ही पहचानते थे तो भला वह किस गाँव जाएँ? उस गाँव जिस गाँव वह अपने माँ बाप के साथ देव दोष से बचने के लिए कभी साल दो साल में दो दिन के लिए चले जाते थे और लौट आते थे। उस गाँव में उन्हें एक आध वे चेहरे तो याद आते हैं जिनके साथ उन्होंने चुपके-छुपके एक आध घूँट चियर्स बोलकर गटकी हो। लेकिन उन्हें परिवार के सभी चेहरे धुंधले दिखाई देते हैं। नाम याद नहीं लेकिन शक्ल शायद याद रहती है। इधर माँ ने उन्हें अपने मायके का तोता बना रखा होता है। उन्हें नानी पक्ष के सब याद होते हैं।
नानी पक्ष वाले परिवारों की संख्या महानगरों में बसने के बाद अब सौ में से अस्सी प्रतिशत के आस-पास हो गई है। यकीन न हो तो कभी आज के बच्चों से पूछ लीजिये कि बेटा इस बार की छुट्टी कहाँ कटी? तो वे तपाक से बोल पड़ेंगे – नानी के गाँव…..। ऐसे में हमें इस सब पर विचार करना चाहिये कि क़्या हम अपने बच्चों को अपने गाँव के लोक समाज से बंचित नहीं कर रहे हैं? क़्या माँयें यह नहीं कर रही हैं कि बच्चों के अपने गाँव से मोहभंग हो जाए तो अच्छा। अगर ऐसा नहीं है तो आये दिन पलायन के बाद इन 50 बर्षों में गाँव वापसी अर्थात रिवर्स माइग्रेशन की दर मात्र एक या दो प्रतिशत ही क्यों है। हमारे गाँव क्यों उजाड़ हो रहे हैं और खेत बंजर क्यों पड़ रहे हैं। गाँव आबाद हो रिवर्स माइग्रेशन तभी संभव है जब ग्रामीण समाज की रीढ़ हमारी मातृशक्ति घर और शहर दोनों की आवत-जावत का तारमतम्य बना सके। मुझे लगता है अगर वक्त रहते हम यह सब नहीं कर पाये तो हमारी वर्तमान व भविष्य की पीढियाँ हमें कोसेंगी।