जब बौखनाग ने लील ली थी जुब्बल के बेसार्या राणा की 12 बीसी बारात।
(मनोज इष्टवाल)
भले ही ऐतिहासिक जानकारियों में इसकी चर्चा न हो लेकिन सहत्र बर्षों से बौखनाग की यह जागर प्रचलन में है कि “राणा तेरी 12बीसी बरातैs, राणा तेरी हिमाचल्या धौंस्या”..! इसका जिक्र रथी राजा चौहान वंशज के साथ आता है जो स्वीला/सुईला गाँव से संबंधित रहे और जिनकी हजारों-हजार भेड़ें हुआ करती थी। रथ राजा को बड़े बाप का बेटा कहा गया है व उनके साथ बेसारा राणा बतौर मित्र माना गया है जो हिमाचल के जुब्बल गाँव के राजघराने से संबंधित माना गया है व उसकी भी हजारों – हजार भेड़ें थी।
यहाँ बेसारा या बिश्वा राणा व उसकी 12 बीसी बारात को लेकर दो लोकगाथाएँ प्रचलन में हैं । दोनों ही गाथाएँ इस विवाह की पुष्टि तो करती हैं लेकिन दोनों ही लोकगाथाओं या जागरों में बेसारा या बिश्वा राणा की बारात अलग अलग गाँव आई बताई गयी है। पहली लोकगाथा में बारात बणगाँव तो दूसरी लोकगाथा में बारात थाती धनारी पहुँचती है। आइये जानते हैं क्या हैं प्रसंग :-
लोकगीतों व लोक जागरों में बिश्वा राणा की 12 बीसी बारात (पहली लोकगाथा या जागर)
यह जागर यह स्पष्ट तो नहीं करती कि इसका काल खंड क्या रहा होगा लेकिन रथी देवता (धन सिंह अधिकारी) से अगर इसे जोड़कर देखा जाय तो यह घटना गोरखा काल की हो सकती है, यानि लगभग 200-215 बर्ष पुरानी। क्योंकि अधिकारी जाति का आगमन गढ़वाल में नेपाल से इसी काल खंड में माना जाता है। फिर भी ऐतिहासिक तथ्यों की जब तक पूरी पड़ताल न हो तब तक कुछ भी कह पाना संभव नहीं है।
देव जागर से प्राप्त जानकारी के अनुसार बेसारा राणा (बिश्वा राणा) जुब्बल गाँव हिमाचल के राजवंश से संबधित है व उसे उत्तरकाशी जिले की पट्टी – दसकी के बनगाँव के चौहानों की पुत्री मनु से प्यार हो जाता है। या फिर यूँ भी कहा जा सकता है कि उसका रिश्ता तय हो जाता है व उसका रिश्ता तय करवाने में रथी देवता के नाम से मशहूर उसके मित्र चौहान वंशज धन सिंह अधिकारी जोकि स्वीला/सुईला गाँव से संबधित है, का बड़ा हाथ होता है।
बेसारा राणा अपनी 12 बीसी बारात लेकर हिमाचली धौंसी घुँड्या रासो लगाता बड़े उत्साह के साथ जुब्बल हिमाचल से जब तमसा, रुपिन- सुपिन व यमुना पार कर बौखनाग के राड़ीडांडा पहुँचता है तो बौखनाग प्रकट होकर उसकी बारात का रास्ता रोकर कहता है कि मुझे बाखुरी (बकरी ) देना और तब जाना।
कहते हैं कि बेसारा राणा ने बौखनाग से कहा कि वह वापसी में अवश्य आपको बाखुरी देगा। लेकिन बारात वापसी में राणा ने शिब का फ़कीर नामक स्थान से लुकाछिपी का रास्ता अपनाते हुए अपना रास्ता बदल लिया और. राड़ी डांडा के स्थान पर उसने जिलखोला का निचला रास्ता पकड़ कर जुब्बल हिमाचल के लिए वापसी करनी चाही। कहते हैं बौखनाग यह सब देख बड़ा क्रोधित हुआ क्योंकि यह रास्ता भी उसके क्षेत्र में पड़ता था। बौखनाग ने बेसारा राणा से पूछा कि मेरी बाखुरी कहाँ है, जिसका राणा सही-सही उत्तर नहीं दे पाया। बौखनाग अति क्रोधित हुए और उन्होंने भयंकर ओलाबृष्टि शुरू कर दी।
इन्ही ओलों के साथ जबरदस्त हिमपात भी हुआ और पूरे बाराती व दुल्हन के साथ चले घराती भी वहीँ दफन हो गये। अभी भी कहावत है कि राणा की बारात जुब्बल नहीं पहुंच पाई। लोगों का मानना है कि रात्रि पहर में राड़ी डांडा क्षेत्र के इस जंगल में हिमाचली धौंसी (ढ़ोल-नगाड़े) के साथ घुंडिया रासौ की आवाजें सुनाई देती हैं। ऐसा लगता हैं मानों आज भी बारात चल रही हो।
लोकगीतों व लोक जागरों में बिश्वा राणा की 12 बीसी बारात (दूसरी लोकगाथा/जागर)
लोकगीत व जागर का अगर आप पीछा करते हुए हम उस काल की ढूंढना शुरू करेंगे जिस काल की यह घटना है, तब नहीं लगता कि हम उस काल तक प्रमाणिकता के साथ पहुँच सकते हैं क्योंकि एक लोकगाथा या जागर में बिश्वा राणा जिसे बेसारा या बिसारा राणा नाम से संबोधित किया गया है, की 12 बीसी बारात वणगाँव चौहानों के यहाँ गयी है और जिससे उनका विवाह हुआ है उसका नाम मनु है, जिसका जिक्र मैं पूर्व में भी कर चुका हूँ जबकि दूसरी लोकगाथा या जागर में बिश्वा राणा की बारात धनारी गाँव उत्तरकाशी जनपद के पारस रौतेला की पुत्री सूनादेई से विवाह की बात उजागर करती है।
जागर के अनुसार राजा बिश्वा राणा के दादा का नाम पुरीचंद, पिता का नाम उरी चंद, माँ का नाम लीलावती व चाचा का नाम यमी चंद है। उनकी एक सौतेली माँ हैं जिनका नाम भानामति है जो बिश्वा राणा को ताने कसती हुई कहती है कि तू अगर सचमुच का राणा है तो गढवाल की रूपसी राणी राजकुंवरी सूनादेई को विवाह कर ले आ ….! फिर ताने देकर कहती है, वैसे यह तेरे वश की बात नहीं है क्योंकि जाने कितने उसका डोला लाने गए लेकिन सफल नहीं हुए। कहा जाता है कि “त्रिया के बोल और ब्रह्मांड की चोट” उस दौर के राजपूत अपनी आनबान शान के विरुद्ध समझते थे। राजा बिश्वा ने जिन्हें वीर सिंह राणा भी कहा गया है अपने कुल पुरोहित रामा नैलवाल को बुलाया व उसे विवाह का शुभदिन वार दिखवाकर सोबनी कलम से थाती धनारी के पारस रौतेला को कागली (चिट्ठी) लिखी व कहा कि वह आपकी बेटी का डोला लेने आ रहे हैं।
कागली के पीछे पीछे बारात लेकर बिश्वा राणा चल पड़ा जो अपने रत्नजडित सिंहासन में विराजमान है। उसके साथ 12 बीसी अर्थात 240 चुनिंदे बाराती, 120 घोड़े, 12 बीसी सय्यद , भोट के भोटिया, कुन्नौरी पहलवान, ड्यूडी के जवान, पहाड़ के रौथाण व बुशेर के राणा हैं। उसने अपना मखमली जामा धारण किया है ।उसके साथ जुडवा तोपखाना, तलवार व बरछियां साथ हैं।
राजा बिश्वा राणा व रौतेली सूनादेई के विवाह के उल्लेख को अगर इस लोकगाथा या जागर में जानने का यत्न करें तो विश्वा राणा जुब्बल का राजकुंवर न होकर बुशेहर का राजा या राजकुंवर है। राजा बिश्वा की बारात का सुदिन-सुबार पंडित रमानैनवाल ने 12गते बैशाख तय किया। लोकगाथा व लोक जागर बुशेहर से बारात के आगमन का मार्ग को चिन्हित करते हुए जागर गायक अतोल कुंडियाल ने रामपुर बुशेहर से त्यूनी का बाजार, भोरिल भंकाण, मोरी-नैटवाड, जरमोला धार, निसीलो गडीलो गाड़ (कंडियालगाँव), ऊचीलो राजगढ़ी, गंगाणी कुंड (बारात का बिश्राम स्थल), अगली सुबह स्नान ध्यान करके बारात डंडाल गाँव, राड़ी घाटी के ऐच (राडी पर्वत शिखर के ऊपर), जहाँ बिश्वा राजा के ढोल के सबद से नगर गुंजायमान हो गया । ढोल और सारंगी, बिखुली के बाजे सुनकर टीलू की मातृकाएं, कोट की कोटगी, व बौख की मातृकाएं प्रकट हो गयी। यही नहीं इन ढोलों के साथ बजती हिमाचली सारंगी, बिजेसारी बिखुली बाजा, व गोरिल रणसिंगों ने ध्यानमग्न बौखनाग की तन्द्रा भी तोड़ डाली, और बौख नाग प्रकट हो गए। उनके साथ बौख की मातृकाएं व देवी जस्कोटी भी प्रकट हुई जो उन्हें न्यौता देकर बुलाती हैं व पूज कर भेजती हैं। बारात अब निचले सिलक्यारा पहुँच गयी, वहां से मोल्याणी पानी में नाग की ढोकरी (बौखनाग के खेत) जहाँ नागलोक के नाग प्रकट हुए। उन्होंने इस नाग ढोकरी में बारात रोक ली। थक हार कर बिश्वा राणा ने नागों को वचन दिया कि वह बारात वापसी में जौंल बाखुरी (जुड़वा बकरे) देगा और सोने का छत्र भी देगा।
12 बचन देने के बाद नाग खुश हुए और उन्होंने बारात को आगे बढ़ने दिया यहाँ से बारात कुंडलदेवी धार जा पहुंची। यहाँ बूढा कचडू प्रकट होता है, कचडू की मातृकाएं भी प्रकट हो जाती हैं. आखिरकार बारात थाती धनारी पहुँचती है। जहाँ राजकुंवरी सूनादेई के पिता पारस रौतेला व माँ चौहानी चाँदनी चौक में बारातियों का आदर सत्कार करते हैं। ख़ुशी से अब राजा बिश्वा अपने बारातियों के साथ गेंदुआ खेलने लगता है। देश विदेश के राजाओं के साथ गेंद व पांसा खेल रहा है, जो उसके 12 बाराती मेहमान हैं।
आखिरकार वह समय भी आ ही गया जब अगली सुबह 06 बजे सुबह फेरों का लगन जुड़ा, और इस तरह बिश्वा राजा से राजकुंवरी सूनादेई का विवाह सम्पन्न हुआ और वह रानी सूनादेई कहलाई। वापसी में बिश्वा राणा की बारात जब डुंडा के सौड पहुंची तो उसके मन में कपट आ गया कि मैं क्योंकर नागों के 12 वचन मानू व क्यों उन्हें जुड़वा बकरे व सोने का छत्तर दूँ। इसलिए उसने बारात को राड़ी डांडा वाले मार्ग से ले जाने की जगह उसका रास्ता बदल दिया। इसलिए वह अपनी बारात को ऊँची नागुरी के रास्ते समतल सिमोटया पहुँच गयी जहाँ से वह ऊँचे खेतों में जा पहुंची। नागलोक में नाग को सपना हो गया और उसे क्रोध आया कि विश्वा राणा ने उसे झूठे वचन दिए ! नागों ने अब बारात घेर ली। सभी मातृकाएं भी बहुत क्रोधित हुई. उन्होंने बारातियों पर पत्थरों जैसे ओलों की मार शुरू कर दी। इतनी ओलावृष्टि हुई की सभी बाराती उसी में दफ़न हो गए। सब राजाओं के राजमहल सूने पड़ गए और राजा विश्वा भी यहीं दफन हो गया।
जनश्रुतियों के अनुसार यह बौखनाग का ही प्रकोप था कि आज भी उस बारात का अता-पता नहीं है। स्थानीय लोग आज भी नहीं बता पाते कि यह घटना किस काल खंड की है?
मेरा शोध :-
दोनों ही लोकगाथाओं का कहीं न कहीं इस ऐतिहासिक प्रसंग में समावेश है। लेकिन पहली लोकगाथा की अपेक्षा मेरे हिसाब व शोध के अनुसार दूसरी लोकगाथा जागर में नामों का समावेश कहीं न कहीं बिश्वा राणा को जुब्बल या बुशेहर के राजवंश के करीब ले जाता है। भले ही नाम अपभ्रंश हैं व जागर गाथा आगे पीछे हुई है लेकिन इसके साक्ष्य काफी हद तक बुशेहर राजवंश के करीब पहुँचते हैं। दूसरी और पहली लोकगाथा क्षेत्रीय देवता रथी से जुडी हुई है जिसका कालखंड ज्यादा पुराना नहीं है। रथी देवता गोरखा-काल के बाद का प्रसंग या बमुश्किल सौ सवा सौ बर्ष पुरानी लोकगाथा कही जा सकती है क्योंकि धन सिंह अधिकारी जो बाद में रथी देवता कहलाये मूल रूप से भेड़ाल के रूप में जाने जाते हैं जो उत्तराखंड व हिमाचल के बुग्यालों में अपनी हजारों भेड़ बकरियों के साथ विचरण करते थे। यह संभव है कि रथी देवता धन सिंह अधिकारी का पश्वा व बिश्वा राणा का पश्वा एक साथ नाचता हो व गला-भेंट करते हों लेकिन यह तर्क कहीं भी देना उचित नहीं है कि रथी देवता व बिश्वा राणा का कालखंड एक ही है।
बशेर रियासत (जिसे बुशहर, बुशहर, बुशहर के नाम से भी जाना जाता है) कभी ब्रिटिश राज के प्रशासन के तहत अट्ठाईस शिमला हिल रियासतों में से सबसे बड़ी थी, जो क्षेत्रीय और अंतरमहाद्वीपीय व्यापार में निवेश करने और हिमालयी संसाधनों का दोहन करने के लिए उत्सुक थी। इसकी सीमा उत्तर में स्पीति, पूर्व में तिब्बत, दक्षिण में गढ़वाल और पश्चिम में जुब्बल, कोटखाई, कुम्हारसैन, कोटगढ़ और कुल्लू से लगती थी। आज स्वतन्त्र भारत का हिस्सा है लेकिन दूसरी लोकगाथा का अगर पीछा करते हुए आप बुशेहर या बशेर राजवंश का इतिहास खंगालेंगे तो पायेंगे कि यह लोकगाथा आपको उस सच्चाई के बेहद निकट आपको ले जाती है जो लोकगाथा में बर्णित है, भले ही इस राजवंश के राजाओं की श्रृंखला में लोकगाथा आगे पीछे हो रखी है।
राजा केहरी सिंह, बशहर के 113वें शासक के रूप में सशख्त राजा माने गए इनके बाद इनके वंशज राज्य को ढंग से नहीं संभाल सके जिसके कारण यह राज्य टुकड़ों में बंटता चला गया। यहाँ यह बात समझ नहीं आती कि इन राणा राजवंशियों के पीछे लोकगाथा में चंद शब्द क्यों जोड़ दिया गया है। स्थानीय लोगों में राजाओं को उनके उपनामों से जाना जाता रहा है या फिर नामों की अपभ्रंषता हर युग में होती रही है चाहे वह राष्ट्र का नाम रहा हो या क्षेत्र बिशेष व व्यक्ति बिशेष का। राजा केहरी सिंह को रज्जा केरी, रज्जा पुरीचंद उनके पुत्र राजा विजय सिंह (राजा विजय सिंह -/1708, बशहर के 114वें शासक।) को स्थानीय नाम राजा विजय सिंह, बिश्वा या बेसरा राजा के नाम से व बिश्वा राजा के पुत्र राजा उदय सिंह (राजा उदय सिंह (1708/1725), बशहर के 115वें शासक, विवाहित और संतान वाले।) को रज्जा उरि चंद या उदी चंद के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा है ।
ऐसे में मेरा शोध यह तो प्रमाणित करने में सफल कहा जा सकता है कि राजा बिश्वा राणा से जुडी यह लोकगाथा आज से 316 बर्ष पूर्व की है। क्योंकि राजा विजय सिंह एक मात्र ऐसे शासक रहे जो राजगद्दी पर बैठने के कुछ ही माह बाद कालग्रास बन गए। उनकी मृत्यु क्यों हुई ? इसका अगर कहीं लेखा-जोखा मिल सकता है तो वह बुशेहर राजवंश के प्रमाणिक पांडुलिपियों में संरक्षित हो सकता है। लोकगाथा या जागर में राजा उरी/उद्दी चंद को राजा बिश्वा का पिता कहा गया है जबकि राजवंश में राजा उदय सिंह, राजा विजय सिंह के पुत्र हैं जिन्होंने उनके निधन के बाद उसी बर्ष राजगद्दी संभाल ली जिस बर्ष राजा विजय सिंह की मृत्यु हुई।
जनश्रुति तो यह भी जाता है कि राजा केहरी सिंह के बाद राजगद्दी को सम्भालने वाला कोई सुयोग्य राजवंशी नहीं था ऐसे में राणा विजय सिंह को राजगद्दी पर बिठाया गया जिनके पिता का नाम अमीचंद व चाचा का नाम उद्दी चंद था। सौतेली माँ भानामति का उद्दीचंद से गुप्त प्रेम था व एक साजिश के तहत ही राजा विजय सिंह को मरवाया गया ताकि उद्दी चन्द अर्थात राजा उदय सिंह को राजगद्दी पर बैठाया जा सके। यथार्थ क्या है अभी उस पर और अधिक शोध की आवश्यकता है लेकिन मेरा व्यक्तिगत मानना यह है कि विश्वा राणा ही राजा विजय सिंह हुए ।