(अरुण कुकसाल)
श्रीनगर (गढ़वाल), कीर्तिनगर, मलेथा, डाँगचौरा, दुगड्डा और फिर है, मालूपानी। श्रीनगर से नई टिहरी सड़क मार्ग पर मात्र 18 किमी. दूरी पर मालूपानी स्थित है। जब कभी भी इस रोड़ से आना-जाना होता है तो घने जंगल से घिरे मालूपानी गांव को निहारना एक आदत सी हो गई है।
जैसे, बहुतों में किसी विशेष पर नज़र कुछ ज्यादा ही टिक जाती है।
यह आर्कषण प्रमुखतया मालू के झुरमुटों से आती क्षणिक सुंगध के साथ मन के यादों में बसी बचपन में मालू के पत्तों में खाये स्वादिष्ट व्यंजनो का भी है।
मालूपानी, पैण्डुला ग्राम सभा के अमरोली तोक का एक हिस्सा है। ज्ञातव्य है कि, टिहरी रियासत के विरुद्ध बगावती तेवर वाले किसान नेता दादा दौलतराम खुगशाल का पैतृक गाँव पैण्डुला था। इसके प्रति आर्कषण का एक कारण यह भी हो सकता है।
बहरहाल, इस समय मैं मालूपानी में रहने वाले विनोद घिल्डियाल एवं उर्मिला घिल्डियाल दम्पति के वर्षों से चले आ रहे उद्यमीय प्रयासों से आपको अवगत कराना चाहता हूँ।
सड़क के माइल स्टोन ‘मालूपानी-0 किमी.’ के पास से एक पगडण्डी नीचे की ओर है। इस पगडण्डी में प्रवेश करते ही लगा कि आज वर्षो की यहाँ आने की मुराद पुरी हुई है। परममित्र अनिल स्वामी साथ हैं।
विनोद घिल्डियाल पेड़ों, झाड़ियों, लताओं, फूलों और पौंधों के बारे में किसी वनस्पति/वानकी वैज्ञानिक की तरह हमें बताते जा रहे हैं। मालू, बाँज, हिंसर, बाँस, परिजात, महुआ, आम, अखरोट , नींबू, अमरूद, अंगूर, भीमल, खड़िक, किनगोड़ का घनघोर जंगल इस पतले से रास्ते के दोनों ओर है।
यह जंगल वन विभाग, उत्तराखण्ड का है। परन्तु, घिल्डियाल दम्पति दशकों से पाल-पोष कर इसे और भी समृद्ध कर रहे हैं। एक ऐसा मिश्रित वन जो घिल्डियाल दम्पति के संरक्षण में प्राकृतिक स्वरूप में जीवंतता से पनप रहा है। जिस पर आग लगने का भय कभी पनपा ही नहीं। विनोद के पास तमाम किस्से हैं कि किस तरह इन लहलहाते पेड़ों को जब वो पौध के रूप थे वे यहाँ लाये और कैसे वर्षों तक उनकी परवरिश की थी।
विनोद बता रहे हैं कि दशकों पहले यह जगह गधेरे का रौखड़ थी। बरसात में पानी सरपट बहता हुआ मिट्टी-पत्थरों को भी साथ ले जाता था। इस भाग में विभिन्न प्रजातियों के रोपण और उनकी देखभाल से अब यह हिस्सा कटान से रोका जा सका है। विशालकाय पीले बाँस के कई घने झुरमुटों की ओर वो इशारा कर रहे हैं जिनका योगदान इसमें सर्वाधिक है।
मालूपानी की तलहटी में चन्द्रभागा गधेरा का प्रवाह क्षेत्र है। इतिहास में दर्ज है कि वीर माधोसिंह ने इसी चन्द्रभागा गधेरे से मलेथा तक पानी पहुँचा कर वहां के खेतों को धन-धान्य से परिपूर्ण किया था। आधुनिक विकास ने मलेथा की उसी उपजाऊ भूमि को रेलवे के लिए तहस-नहस कर दिया है। विडम्बना यह है कि वीर माधोसिंह की गाथा से हमें गर्वानुभूति तो होती है, परन्तु उनकी अमूल्य विरासत को खोने से विचलित नहीं होते हैं।
चन्द्रभागा गधेरे के बाँये तट पर बने हाईड्रम योजना को विनोद हमें तल्लीनता से समझाते हैं। वर्तमान में, इस हाईड्रम योजना से ग्राम सभा पैण्डुला की अधिकांश खेतों की सिंचाई नहर, गूल और ड्रिप सिंचाई से होती है। विनोद बताते हैं कि ‘‘ये जो इस जंगल की हरियाली है उसका श्रेय इसी हाइड्रम को है। एक नाली (2160 वर्ग फीट) से भी अधिक क्षेत्र को एक ड्रिप वाल्व एक साथ सिंचित कर देता है। ऐसे कई ड्रिप वाल्व जगह-जगह पर लगे हैं।’’ विनोद रास्ते और जंगल में जगह-जगह पर लगे ड्रिप वाल्व को चला कर दिखाते हैं। एक आनंददाई फुहार हमारे चारों ओर बरसने लगती है।
जंगल के एक छोर पर घिल्डियाल दम्पति का घर चारों ओर से आबाद खेतों के बीचों-बीच है। घर के एक तरफ गौशाला जिसमें दो भैंसे तो दूसरी ओर मालू के पत्तों से निर्मित उत्पादों का उद्यम है। खेत वर्षाकालीन तरकारियाँ से भरे हैं। मालू के पत्तों के कुछ गठ्ठर आंगन के एक तरफ़ करीने से रखे हुए हैं।
नितान्त एकान्त में केवल चिडियायें ही जैसे इन दो प्राणियों के साथ सहचरी में रहती होंगी। हम अगर चुपचाप हैं तो चिडियों की चहचहाट ही वातावरण की निस्ब्धता को तोड़ती है।
पहाड़ में अगर हम गाँव अथवा जंगल के आस-पास हों तो जंगली जानवरों के बारे में बात न हो ऐसा होता ही नहीं है। ‘‘यहाँ जंगली जानवर तो आये दिन आते-जाते होंगे।’’ मैं पूछता विनोद से हूँ लेकिन उत्तर उर्मिला देती हैं।
‘‘वून कख जौण भैजी, यख्खी त रॉला। वु त, हमारा दगड्या छन।’’ (उन्होने कहाँ जाना है, भाई साहब, यहीं तो रहेंगे। वो तो हमारे दोस्त हैं।)
‘‘जंगल में लंगूर खूब दिख रहे थे। खेतों को ये नुकसान पहुँचाते होंगे।’’ मैं इस पर उनकी प्रतिक्रिया चाहता हूँ।‘ ‘जंगली जानवरों से बहुत नुकसान होता है। ये हमारे लिए समस्या है पर जानवरों की तो यह जरूरी दिनचर्या है। अब हम उनके डर से अपने जीवकोपार्जन का काम तो नहीं छोड़ सकते हैं। डटकर उनका सामना करते हैं। वैसे, जंगल में काफी कुछ पैदा किया हमने उनके लिए।’’ विनोद इसका पुख्ता जबाव देते हैं।
घर के एक हिस्से में दो मशीनें हैं। जिनसे मालू के पत्तों से निर्मित विभिन्न डिजायन के कप, डोने, प्लेट और पत्तलों का निर्माण होता है। एक आल्मारी में निर्मित सामाग्रियों का स्टोर है। विनोद और उर्मिला अब इन दोनों मशीनों से मालू के पत्तों से बनने वाले विभिन्न सामाग्रियों को स्वयं बना कर हमें दिखा रहे हैं।
औसतन, आधे पत्तों के तीन टुकड़ों से एक दोना बन रहा है। अलग-अलग साइज की डाई से उसी के आकार के दोने बनते हैं। अवशेष मालू के कतरन/टुकड़े पशु चारा और उनके नीचे बिछा कर बाद में खाद के काम आते हैं।
मालू के पत्तों से निर्मित सामाग्री की मुख्य बिक्री श्रीनगर (गढ़वाल) में होती है। मांग इतनी है कि उसे इन दो मशीनों से पूरा कर पाना संभव नहीं है।
विनोद और उर्मिला से एक लम्बी बातचीत का दौर अब शुरू होता है। विनोद बताते हैं कि ‘‘सन् 1982 में डांगचौरा से हाईस्कूल करने बाद उन्होने सन् 1984 में दोबाटा, पुरानी टिहरी से टर्नर से आईटीआई, उर्त्तीण किया। उसके बाद एक साल की अप्रैंटिस बीएचएएल, रानीपुर, हरिद्वार से पास करी। फिर, दिल्ली में 3 साल तक प्राइवेट नौकरियां की। सन् 1989 में छुट्टियों में अपने गाँव आया था। इसी साल लघु सिचाँई, विभाग के द्वारा चन्द्रभागा गधेरे में हाईड्रम लगाया गया था। इससे गाँव की अधिकाँश खेती को आसानी से सिंचाई की सुविधा मिलने लगी। गाँव में कृषि, उद्यान और वानकी उत्पादों की पैदावार पहले से कहीं अधिक होने लगी। मैंने गम्भीरता से सोचना आरम्भ किया कि दिल्ली में रहकर मैं केवल गूजर-बसर लायक ही कमा पा रहा हूँ। क्यों न वापस गाँव आकर यहीं पर रोजगार किया जाए। मैंने सड़क से नीचे इस ओर अपने 15 नाली जमीन के चैक आबाद करने का निर्णय लिया। पारिवार के सदस्यों ने मेरे निर्णय पर सहमति जताई। मैंने पूरे मनोयोग से सब्जियाँ और घास उगाना शुरू कर दिया। प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत 1 लाख रुपये ऋण प्राप्त कर उससे मुज्ज़फरनगर से 5 भैंसे लाया। बहुत जल्दी ही हमने दूध और सब्जी का बाजार श्रीनगर (गढ़वाल) से पौखाल तक फैला दिया था। सन् 1991 में शादी हुई तो उर्मिला जी के मिलकर यह कार्य और भी तेजी से बढ़ने लगा। सब्जी, दूध के अलावा फलदार वृक्षों का निकटवर्ती जंगल में रोपण का कार्य हम करने लगे। इसके लिए यथा संभव सरकारी और गैर सरकारी सहयोग भी मिला। इसी का नतीज़ा है कि जैव विविधता वाला मिश्रित जंगल हमारे इस घर के आस-पास विकसित हो गया है। साथ ही इस क्षेत्र में बरसात में होने वाले कटान पूरी तरह रुक गया। अपने गाँव में रहते हुए घर-बाहर की सभी जिम्मेदारियों का निर्वहन हो जाता था। पुत्र और पुत्री ने उच्च शिक्षा से अच्छे कैरियर को हासिल कर लिया था।’’
घिल्डियाल दम्पति का सब कुछ ठीक चल रहा था। तभी वर्ष-2020 का कोरोना काल आया। और, उनकी समस्त गतिविधियाँ एकाएक कमजोर होने लगी। ऐसे में जीवकोपार्जन के अन्य विकल्पों पर भी वे सोचने लगे। परन्तु कोई उचित रास्ता सूझता नहीं था। लेकिन, यह बात भी सच है कि हर विषम स्थितियों का समाधान अवश्य होता है।
उर्मिला जी के मन-मस्तिष्क में आस-पास में भरपूर मात्रा में मालू के पत्तों के उपयोग का विचार सूझा। आपसी विचार-विमर्श से मालू के पत्तों से विभिन्न घरेलू सामाग्रियों का निर्माण करने का निर्णय उन्होने लिया। विनोद दिल्ली से दोना-पत्तल बनाने की सैकिंड हैंड दो मशीनें लाये और नियमित अभ्यास से विभिन्न प्रकार के डोने, पत्तल और प्लेट बनाने का हुनर उनमें आ गया। देखते ही देखते इस सामाग्री की मांग बढ़ने लगी। इस कार्य में उन्होने गाँव के अन्य लोगों को भी जोड़ना आरम्भ किया।
वर्तमान समय में साल के 8 महीने उनके पास 3 या 4 व्यक्ति नियमित कार्य करते हैं। मालू के पत्तों को लाने के कार्य में भी प्रतिदिन 2 या 3 व्यक्तियों को रोजगार मिल जाता है। इसके साथ ही सोलर लाईट का उत्पादन कर उसे ग्रिड में सप्लाई कर लगभग 3 हजार रुपये यह दम्पति प्रत्येक महीने कमा लेते हैं। सब्जी, दूध और अन्य खेतीगत उत्पादों से भी एक अच्छी आमदानी हासिल हो जाती है।
विनोद और उर्मिला का कहना है कि हमारे समाज में मालू के पत्ते सांस्कृतिक तौर पर शुद्ध और शुभ माने जाते हैं। भोजन को पौष्टिक एवं स्वादिष्ट बनाना भी इनका प्राकृतिक गुण है। शादी, तीज-त्यौहार से लेकर विशेष अवसरों पर कुछ ही दशक पूर्व इनका ही प्रचलन था। मालू के पत्तों से लिपटे अरसे, सिंगोरी और पेड़े तो पहाड़ के बहुत मशहूर हैं। खाना खाने की सामाग्रियों में प्लास्टिक के उत्पादों से लोग तंग आ गए है। और, वे उसका जैविक विकल्प चाहते हैं। ऐसे में मालू के पत्ते एक बड़ा बाजार बन सकता है।
विनोद और उर्मिला अपने इस कारोबार को विकसित करना चाहते हैं। उनका मानना है कि दो और मशीन, उपकरण तथा एक हाल और स्टोर की व्यवस्था हो जाए तो इस कार्य को प्रर्याप्त विस्तार देने की उनकी योजना है। इसमें लगभग 5 से 7 लाख रुपये की व्यवस्था की जानी है। सरकार से इस संदर्भ में यथा संभव मदद के लिए वे प्रयासरत भी हैं।
मित्र अनिल स्वामी इस पर अपनी सहमति जताते हुए कहते हैं कि “गाँव में रहकर उद्यमशीलता का एक अभिनव प्रयास घिल्डियाल दम्पति ने किया है। इनके प्रयासों से सांस्कृतिक परम्पराओं के निर्वहन के साथ हम पर्यावरण सम्मत, स्वस्थ और स्वच्छ उत्पादों का विकास किया जा सकता है। सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को विनोद और उर्मिला घिल्डियाल के स्वरोजगारपरक प्रयासों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।”
मालूपानी गांव से वापस आते हुए मन-मस्तिष्क में यही विचार प्रबल था कि पहाड़ी गाँवों में विनोद और उर्मिला जी जैसे हुनरमंद और मेहनती लोगों की कमी नहीं है, बस उन्हें सही दिशा और व्यवहारिक सहयोग देने की जरूरत है।
संपर्क – विनोद घिल्डियाल, मोबाइल नंबर – 9927146430