Friday, June 27, 2025
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गढवाळी टोपी में खास अंदाज में प्रधानमंत्री मोदी ने दी तिरंगे को सलामी। जानिए क्या है इसके पीछे की वजह।

(मनोज इष्टवाल)।

अब कहने को मीडिया, राजनेता या फिर अन्य गढवाळी टोपी को पहने तिरंगे को सलामी देते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस खास सैल्यूट पर भले ही यह कहकर अपना अंदाज बयां कर रहे हों कि उत्तराखंड के चुनाव को देखते हुए प्रधानमंत्री की यह टोपी अहम किरदार निभा रही है, लेकिन सच यह भी है कि इस टोपी के इतिहास ने सम्पूर्ण गढ़-कुमाऊँ का आज जो मान बढाया है वह अतुलनीय है।

मसूरी के सोहम हिमालयन म्यूजियम के फाउंडर समीर शुक्ला व उनकी पत्नी श्रीमती कविता शुक्ला द्वारा गढवाळी टोपी को खास अंदाज में डिज़ाइन कर उसमें कुछ डोरियां व ब्रह्मकमल जोकि उत्तराखंड राज्य के प्रतीक चिह्नों में एक चिह्न है, का अद्भुत मिश्रण किया है। यों तो इस टोपी को बड़े से बड़े राजनेता व अधिकारी पहनते आये हैं। सीडीएस विपिन रावत भी इस टोपी की अक्सर पहने दिखाई देते थे लेकिन हम में से बहुत कम जानते होंगे कि यह टोपी गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट की आन बान शान की प्रतीक भी समझी जाती है जिसे ब्रिटिश काल से ही गढवाल राइफल्स के सिपाही पहनते आये हैं। आज यह टोपी व मणिपुर का अंगवस्त्र (गमछा) जब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा गणतंत्र दिवस के अवसर पर पहना गया तब इसे दोनों ही राज्यों के विधान सभा चुनाव से जोडक़र देखा जाने लगा है। इसी लिए तो भाजपा नारा भी देती आई है कि “मोदी है तो मुमकिन है।” वह कहाँ से शुरुआत कर दें शायद इस बात का अंदाजा उनके एक हाथ से दूसरे हाथ को भी नहीं होता होगा।

पहाड़ी टोपी में खास अंदाज का सैल्यूट।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गणतंत्र दिवस के अवसर पर खास अंदाज में तिरंगे को सलामी दी। उन्होंने जिस अंदाज में तिरंगे की सलामी की, वह नौसेना को समर्पित था। नौसेना में सलामी हमेशा दाहिने हाथ के पंजे को थोड़ा आगे की ओर झुकाकर दी जाती है।

उल्लेखनीय है कि देश की जल थल और नभ सेनाएं अलग-अलग ढंग से काम करती हैं। यहाँ तक की तीनों सेनाओं का सैल्यूट भी अलग है। लेकिन, ऐसा क्यों है? आइए बताते हैं कि नेवी, आर्मी और एयर फोर्स के सैल्यूट में क्या अंतर होता है? सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि सैल्यूट का मतलब अपने बड़े अधिकारियों को सम्मान देने से होता है। इसलिए देश की तीनों सेना के जवान अपने-अपने तरीके से सैल्यूट करते हैं।

इंडियन आर्मी सैल्यूट

इंडियन आर्मी का सैल्यूट पूरी हथेली दिखाकर यानी खुले हाथों से किया जाता है। उनके सैल्यूट के वक्त हाथ का पूरा पंजा दिखता है। सभी ऊँगलियाँ खुली रहती हैं और अँगूठा सिर और आईब्रो के बीच में होना चाहिए।

इंडियन नेवी सैल्यूट

इंडियन नेवी के जवान का सैल्यूट आर्मी से बिल्कुल अलग होता है। इनके सैल्यूट में पंजा नहीं दिखता। हाथ पूरी तरह से नीचे की ओर मुड़ा होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि पुराने जमाने में जब नेवी के जवान जहाज में काम करते थे तो उनके हाथ गंदे हो जाते थे तो वह अपने पंजे को छिपाकर सैल्यूट करते थे। बस तब से ही ऐसे सैल्यूट किया जा रहा है।

एयर फोर्स सैल्यूट

एयर फोर्स का सैल्यूट पहले आर्मी की तरह ही होता है। लेकिन, साल 2006 में इंडियन एयर फोर्स ने अपने जवानों के सैल्यूट के नए फॉर्म तय किए थे। सैल्यूट के दौरान उनके हाथ और जमीन के बीच 45 डिग्री का कोण बनता है। इसका मतलब यह भी होता है कि वायु सेना आसमान की ओर अपने कदम को दर्शाती है।

गढ़वाली टोपी का इतिहास।

1803 से 1815 तक उत्तराखंड में गोरखा शासन रहा है। उसी दौरान मलेसिया कपड़े से निर्मित ढाका टोपी प्रचलन में आई और कालांतर में यह गोरखा बटालियन का अंग बन गयी। 1887 में गढ़वाल राइफल्स की स्थापना के बाद ढाका टोपी के डिज़ाइन में अमेंडमेंट करते हुए गढ़वाल राइफल्स द्वारा इस टोपी को प्रचलन में लाया गया।

ज्ञात हो कि गढ़वाल राइफल्स भारतीय सेना की एक पैदल सेना रेजिमेंट है । यह मूल रूप से 1887 में बंगाल सेना की 39वीं (गढ़वाल) रेजिमेंट के रूप में स्थापित किया गया था । यह तब ब्रिटिश भारतीय सेना का हिस्सा बन गया , और भारत की स्वतंत्रता के बाद , इसे भारतीय सेना में शामिल किया गया।

ऐसा भी नहीं है कि पहले गढ़वाल में टोपी प्रचलन में न रही हो व यहां का आम जन मानस पगड़ी बांधे रखता हो। उत्तराखंड में टोपियों का वृहद इतिहासक रहा है इनके नाम फेटशिखोई, शिखोई/शिखोली, कनटोपला/कनटोपी/कनुडिया/कनछुपा, फरफताई, टोपला/टुपल्ला, टोपली/टुपली, मुनौव बादणी,चुंदडी, बंदरमुख्या, चुफावाली टोपली, दुफडक्या टोपली इत्यादि  नामों से जानी गयी हैं। जिन्हें कालान्तर में अब गांधी टोपी, जवाहर टोपी, या फिर मिर्जई टोपी के नाम से भी पुकारा जाने लगा है।

यह आश्चर्यजनक है कि हमारे कुछ इतिहासकारों ने अति करते हुए हर बात का श्रेय गांधी व नेहरू को देना शुरू कर दिया और हमारे पहनावे में भी गांधी और नेहरू को शामिल माना जाने लगा।

पहाड़ी टोपी या गढवाळी टोपी को भूल वश हम अपनी लोक अमानत न मानकर इसे गांधी टोपी नाम दे देते हैं जबकि गांधी टोपी का जन्म सन 1892 के बाद माना जाता है जो कांग्रेस के जन्म से 7 साल बाद प्रचलन में आई। (कांग्रेस की स्थापना 28 दिसम्बर 1885)  इस से पहले पूरे मैदानी भू-भाग में पगड़ियों का रिवाज था जो हमारे समाज में भी रहा लेकिन हमारे समाज में पगड़ियां युद्ध लड़ने के लिए या फिर कहीं विवाह कार्य सम्पन्न करने में राजशाही की परम्परा में शामिल रही।

इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खास तरह की टोपी और गमछा पहना हुआ था। मीडिया की रिपोर्ट्स के अनुसार, गणतंत्र दिवस समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तराखंड की टोपी पहनी हुई थी। इस टोपी पर ब्रह्मकमल छपा हुआ था। इसके साथ ही, उन्होंने मणिपुर का गमछा पहना हुआ था। राजपथ पर तिरंगा फहराने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय युद्ध स्मारक भी गए। वहाँ उन्होंने सेना के जवानों को सलामी दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर पुष्पांजलि अर्पित किया।

पहली बार अमर शहीदों को नेशनल वॉर मेमोरियल पर श्रद्धांजलि अर्पित किया गया है। गणतंत्र दिवस के मौके पर आज दिल्ली में सुरक्षा व्यवस्था तगड़ी की गई। पिछले साल गणतंत्र दिवस के मौके पर हजारों किसान केंद्रीय कृषि कानूनों के विरोध में लालकिला तक पहुँच गए थे और उनका पुलिस से टकराव भी हुआ था। इसे देखते हुए इस बार सावधानी बरती जा रही है और टिकरी, सिंघू व गाजीपुर समेत दिल्ली के प्रमुख प्रवेश द्वार को बंद किया गया है।

बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी द्वारा उत्तराखंड की टोपी पहनकर तिरंगे को सैल्यूट देने के पीछे चाहे हम इसे उनका राजनीतिक मकसद ही क्यों न समझें लेकिन यह सच है कि उन्होंने इस टोपी का मान बढ़ाने के साथ साथ उत्तराखंड के उन वीर सैन्य परिवारों का भी मान बढाया है जिनके सिर पर ये टोपी सजती रही। वीर भोग्य वसुंधरा का गुंजायमान करती रही।

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