(मनोज इष्टवाल संस्मरण 16 दिसम्बर 2021)
पहले देहरादून के बलूनी स्कूल व फिर कोटद्वार के बलूनी स्कूल में इगास पर्व की रोशनी बिखेरने के बाद थकान से चूर देहरादून लौटा ही था। पिट्ठू बैग सोफे पर पटका, किचन में इलेक्ट्रिक केटल में पानी खौलाया और कांच के खूबसूरत गिलास में ग्रीन टी की लंबी पत्तियां डाली। खौलते पानी के बीच पत्तियों का फैलाव क्या देखा कि दिल्ली की सड़कों पर नंगे पैर चलते, कभी साइकिल में नंगे पैर साइकिल पर पैडल मारते उस शख्स का अक्स आंखों के आगे तैर गया जिसने अपनी मूर्धन्य रचनाओं के फैलाव में फैली गढ़वाल की लोकसंस्कृति व लोकसमाज के हर अंग प्रत्यंग के बिखराव को समेटकर उन्हें सुंदर रचनाओं में ढालकर हमें परोसा। जाने क्यों कन्हैयालाल डंडरियाल जी का वह गठीला शरीर सफेद हल्की दाढ़ी व मस्तक का ओज प्रकट हुआ।
किचन से ग्लास उठाया, अपने आईमैक रेटिना का स्विच ओंन किया। क्योंकि अब ख्याल आया कि मैं कन्हैयालाल डंडरियाल जी की उस कालजयी रचना को सुनूँ व थकान मिटाऊं जिसे लोकगायक व कालजयी रचनाकार नरेंद्र सिंह नेगी ने स्वरबद्ध किया है।
दादू मेरी उल्यारु जिकुड़ी, दादू मि पर्वतूं को वासी….!
छायो मी बाजी को पियारू, छायो मी मांजी को लाडुलो।
छो मेरा गौळआ कु हंसूलो, दादू रे बौजी कु भिटुलो।।
अभी गाना सुन ही रहा था कि तन्द्रा टूटी और माँ पर जा पहुंची। माँ याद आये तो भला जन्मभूमि कैसे भूल सकता था। गाना बदला और नेगी जी की फिर आवाज गूंजी- “हे जी सारियूं म फूली गे होलि, फ्योंली लएडी मी घार छोडयावा।”
सचमुच इस गीत की तीसरी आंतरा ने दिल में ऐसी हूक उठाई कि आंखों में आंसू मचल आये। बचपन बालपन व लड़कपन में माँ के साथ साथ जो कुछ देखा व चलचित्र इन पंक्तियों में उभर आया:-
होलि घेण्डूड़ी घुघुति रकर्याणि रीता चौक उरख्याला मा।
कुकुर टपराणु होलु देळी, बिरळी वाड़ी-धूर्पळी मा।
पल्यां म्वारा भी छोड़िकी जल्वटा उडिग्ये होला, मैं घौर छोडयावा।।
अचानक डोरबेल बजी। बंद आंखें खोली और अनमने ढंग से दरवाजे की तरफ लपका। पोस्टमैन एक लिफाफा लिए खड़ा था। भेजने वाले का नाम देखा- मीरा आर्या दानपुर…..!
बड़ा सा पैकेट खोला तो हतप्रभ रह गया क्योंकि उसमें बागनाथ की थाती माटी की खुश्बू समाई थी। सफेद कपड़े पर सुर्ख लाल बुरांश सजा देख उसे उठाये तो देखा वह कुमाऊं की लोकसंस्कृति की पहचान व आन बान शान कुमाउनी टोपी है जिस पर बुरांस का फूल छपा है। दूसरा कोई अंगवस्त्र लगा । उठाया तो पाया टी शर्ट है जिस पर मोटे मोटे हर्फ़ों में दानपुर लिखा हुआ था।
बस फिर क्या था, उदास मन प्रफुल्लित हो उठा और आंखों में तैरने वाली गढ़वाल की लोकसंस्कृति में अब नेपाल से सीमा बांटता बागेश्वर जिले के दानपुर क्षेत्र जा पहुंचा। जहां कुमाऊनी कहावत में दानपुरिया लोगों के लिए सरल, सज्जन व भोले-भाले कहा जाता है। याद हो आया कि करीब 7-8 माह पूर्व ही तो मीरा आर्या उनसे संस्कृति विभाग में कार्यालय में मिली थी। और उन्होंने मुझसे पता मांगा था।
फोन उठाया व श्रीमती मीरा आर्या का नम्बर डायल किया। उन्हें धन्यवाद दिया और साथ ही कहा यह सचमुच मेरे लिए बड़ा सरप्राइज है।
बेटी का मायका व मायके के प्रति लगाव।
श्रीमती मीरा आर्या ने बातों-बातों में जानकारी दी कि उन्हें अपनी लोकसंस्कृति की यह समौण भेजने में इसलिये देरी हुई क्योंकि काल ने उनसे उनके पति छीन लिए। यह सचमुच बेहद दुखदायी घटना थी। मैं आवाक रह गया। खैर विधि के विधान को भला कौन टाल सकता है।
बातों के सिलसिले में मैंने आखिर मीरा आर्या के प्रश्न पूछ ही दिया कि टी शर्ट में दानपुर छापने का औचित्य क्या है। आखिर इसके पीछे आपकी परिकल्पना क्या है। वह बोली- सर, मैं अपनी जन्मभूमि अपनी थाती माटी से अगाध प्रेम करती हूं। भले ही बच्चों की शिक्षा, इनकी नौकरी के कारण आज देहरादून जैसे महानगर में रह रही हूं लेकिन मेरे मन पपीहे की तरह है। वह उड़कर मेरे दानपुर जा पहुंचता है। जहां का भोला भला समाज अभावों के पंखों में विकास के स्वप्नों को सजाकर अब धीरे धीरे आंखें खोल रहा है। मैंने बचपन में शिशु मंदिर, फिर मिडिल पास उत्तरकाशी व इंटर मीडिएट एडम्स इंटर कॉलेज हल्द्वानी से शिक्षा ग्रहण की। कुमाऊँ विश्व पिथौरागढ़ से ग्रेजुएशन किया और फिर शादी के बाद देहरादून आ गयी। नौकरी का मन था, वह पतिदेव को पसन्द नहीं था तो नहीं की, लेकिन मन में एक छटपटाहट थी कि दानपुर के लिए कुछ करना है। बचपन में अक्सर शिशु मंदिर में कभी राधा का अभिनय करना पड़ता था तो कभी माँ पार्वती का। सच कहूं तो मैं पहले पहाड़ी गाने सुनना भी बिशेष पसन्द नहीं करती थी। पतिदेव को रुचि थी, उनके लिए कैसेट खरीद लाती थी। धीरे धीरे जाने कब मुझे भी रुचि हुई और सोचा क्यों न इसी को प्लेटफार्म बनाकर अपने दानपुर के लोकसमाज व लोकसंस्कृति पर काम करूँ।
(दानपुर लोककला सांस्कृतिक संगम की अध्यक्ष श्रीमती आर्या के साथ लेखक)
2015 में अपने पतिदेव से बात की कि मैं अपनी लोकसंस्कृति के लिए काम करना चाहती हूँ। उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। उनका कहना था कि यह अच्छी बात है कि हम अपने लोकसमाज लोकसंस्कृति के लिए कुछ योगदान दें लेकिन मुझे इसमें जोड़े रखने को मजबूर मत करना क्योंकि मैं सरकारी नौकरीपेशा व्यक्ति हूँ व अपने विभाग की बहुत सारी जिम्मेदारियों का निर्वहन करता हूँ तुम खुशी खुशी अपना काम शुरू करो।
फिर क्या था हमने 2015 में पार्टनरशिप में कुछ लोगों के साथ मिलकर दानपुर म्यूजिक कम्पनी के नाम से एक एलबम निकाली जिसे लोगों ने पसन्द किया और यहीं से अपना सफर शुरू हुआ।
श्रीमती मीरा आर्या बोली-फिर जन्मा दानपुर लोककला सांस्कृतिक संगम। 2015 से बदस्तूर अपना लोकसंस्कृति का सफर जारी रखने वाली श्रीमती मीरा आर्या बताती हैं कि इन 5-6 सालों के सांस्कृतिक सफर के दौरान अब समझ में आया कि जब भी हम लोकसमाज में अपनी पहचान बनाते हैं तो अपने ही आस-पास के सबसे पहले उस घेरे को तोड़ने का यत्न करते हैं। उन्होंने कहा कि जब जब उनके विरुद्ध अपनों ने ही स्वर बुलन्द किये तब-तब वह और मजबूती से खड़ी हुई हैं। जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण को अपना गुरु व लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी को अपना आदर्श मानने वाली मीरा आर्या बताती हैं कि जब उनके दिमाग में यह कंसेप्ट आया कि वह अपने दानपुर का नाम देश व समाज के सामने पहुंचाएगी। तब उन्होंने एक तरीका सोचा कि क्यों न हम कुछ ऐसी टी शर्ट बनाये जिन पर दानपुर लिखा हो। उन्होंने इसके निर्माण के बाद सभी लोक कलाकारों से आशीर्वाद मांगा। एक दिन हास्य कलाकार किशना बगोट जी ने बताया कि कुछ युवा जो कोरोना की वजह से बेरोजगार हो गए हैं वे मास्क निर्माण कर रहे हैं, तब मैंने भी अपनी संस्था के लिए मास्क बनवाये। मुझे यह सब करने से अंतर्मन से खुशी हुई कि चलो कहीं तो हम ऐसे छोटे मोटे काम से रोजगार सृजन कर रहे हैं।
श्रीमती मीरा आर्या बताती हैं कि उनके दानपुर में शिक्षा का अभाव है, इसलिए उनके मन में कसक है कि वहां शिक्षा का अच्छा संस्थान खोला जाय तो हमारा क्षेत्र काफी आगे बढ़ सकता है। वह बताती हैं कि अभावों के कारण ही उनके माँ व बाबू जी गांव का अपना तिमंजिला मकान छोड़कर बागेश्वर में रह रहे हैं। उनका कहना है कि वह स्वयं चाहती हैं कि दानपुर में शिक्षा संस्थान खोलें लेकिन उसके लिए न उनके अकेले के पास इतना धनबल है न जनबल।
मीरा आर्या ने प्रारम्भिक शिक्षा को मूलभूत आधार मानते अपने क्षेत्र के प्रारंभिक स्कूलों में बच्चों के लिए पुस्तकालय खुलवाया है ताकि वे इन्टरबल में भी किताबों से जुड़ सकें।
उन्होंने बताया कि उन्हे अपने क्षेत्र दानपुर से उन्हें अगाध प्रेम है और उनकी भरसक कोशिश है कि वह दानपुर में ऐसा कुछ सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में करे जिससे वहां के लोकसमाज व लोकसंस्कृति को देश व दुनिया जाने। वह कहती हैं कि बागेश्वर जिले का दानपुर उनकी दृष्टि में बेहद खूबसूरत जगह है। जहां पारिवारिक एकजुटता, आपसी भाई चारा व सच्चे व अच्छे लोगों का प्यार प्रेम आपको आनन्दित कर देता है। दानपुरियों को इसीलिए सरल व सहज समझा व कहा जाता है, क्योंकि वे शहरी माहौल के उन चतुर लोगों की तरह नहीं हैं जो अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु ढोंग करते हैं।
उन्होंने कहा कि दानपुरिया टी शर्ट को इतना प्रचार प्रसार मिल चुका है कि अब लोग दानपुरिया टी शर्ट के कारण उन्हें भी पहचानने लगे हैं। मैंने अपने पहाड़ की पहचान सफेद टोपी पर लाल बुरांस उकेरकर उसे माथे पर सजाया है ताकि यह टोपी हमारा प्रतिनिधित्व कर सके। उनका मानना है कि कुछ नया करते करते कई अमेंडमेंट उसे और खूबसूरत बनाते हैं। उन्होंने न सिर्फ दानपुरिया टी शर्ट बनाई है बल्कि उनके डिज़ाइन किये दानपुरिया हुड की बाजार में अच्छी मांग है जिसे वह उसी कीमत पर उपलब्ध करवा रही हैं जो बाजार भाव है। उन्होंने कहा उनके पति अपने बच्चों को बहुत अच्छी शिक्षा दे गए हैं व उनकी दो रोटी का अच्छे से जुगाड़ भी…ऐसे में कोई ये कहे कि यह सब मैंने व्यवसाय के लिए किया है तो वह व्यर्थ की बातें हैं। मेरा एक ही मकसद है कि मेरा दानपुर सब पहचाने व दानपुर से ही मेरी व मेरी लोकसंस्कृति की पहचान हो।